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विपक्षी एकता का विरोधाभास

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता रहस्य की धुंध में घिरी एक पहेलिका जैसी ही है. अभी यह मौजूद है, और अगले ही पल यह नजरों से ओझल भी है. जो कुछ अचरज से भरा है, वह यह कि एकता का यह दिखावा जिस विडंबना का शिकार है, […]

पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता रहस्य की धुंध में घिरी एक पहेलिका जैसी ही है. अभी यह मौजूद है, और अगले ही पल यह नजरों से ओझल भी है. जो कुछ अचरज से भरा है, वह यह कि एकता का यह दिखावा जिस विडंबना का शिकार है, उसे इस दिखावे के अभिनेताओं द्वारा कोई अहमियत भी नहीं दी जाती. भाजपा का विरोध करते वक्त वे इस चीज से खुशी-खुशी बेपरवाह दिखते हैं कि अखिल भारतीय स्तर पर खुद उनकी मंडली पारदर्शी रूप से अनेकता से ग्रस्त है.
मुख्य विपक्षी दलों द्वारा जारी हालिया बयान इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं. बसपा सुप्रीमो मायावती कहती हैं कि उनकी पार्टी कभी कांग्रेस के साथ नहीं जा सकती. एक हालिया रैली में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा कि लोगों का भरोसा तोड़ने के काम में कांग्रेस सबसे अगली पांत में शामिल है.
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ममता बनर्जी की बखिया उधेड़ती दिखती है, तो ममता कांग्रेस तथा सीपीएम की आलोचना करने में कोई कसर छोड़ती नहीं लगतीं. दिल्ली के चुनावों के लिए कांग्रेस एवं आप में समझौता वार्ता का कोई अंत आता नहीं दिखता और इसी बीच दोनों पार्टियां एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के तीर भी छोड़ती जाती हैं.
किसी भी तटस्थ प्रेक्षक को यह सब अनेकता का एक ऐसा अराजक शोरगुल प्रतीत होगा, जो समग्र एकता की कोशिशों को गंभीर नुकसान पहुंचाता है.
इसके पहले कई अवसरों पर विपक्षी पार्टियों ने राजनीतिक मतांतरों से परे उठ मंचों पर एक-दूसरे का हाथ थामकर नरेंद्र मोदी तथा भाजपा के विरोध का संकल्प लिया है. पर जैसे ही ऐसी रैली समाप्त होती है, फिर वे एक-दूसरे पर आक्रमण के अपने नियमित अभ्यास में जुट जाते हैं.
ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि इनके द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर एकता की बातों का स्थानीय स्तर की कट्टर कटुता से कुछ भी लेना-देना नहीं. वे यह यकीन करते-से लगते हैं कि राज्यों में जमीनी स्तर पर एक-दूसरे के साथ गलाकाट दुश्मनी में लगे होने के बावजूद किसी राष्ट्रीय मंच पर आने के बाद उनमें एक जादुई एकता का संचार हो जाता है. ऐसा कोई भ्रम एक गंभीर खामी का ही शिकार होता है. सियासी पार्टियां काडर से बनती हैं.
स्थानीय स्तर पर ये काडर किसी खास संदेश को आत्मसात कर लेते हैं, जिसे राष्ट्रीय स्तर पर अनायास मिटाया नहीं जा सकता. जब एक बड़े फलक पर एकता के प्रयास किये जाते हैं, तो जमीनी स्तर पर पैदा विरोध उन पर हावी होता ही है. यह कहना कि ये दोनों परस्पर असंबद्ध हैं, एक घातक दिवास्वप्न के सिवाय और कुछ नहीं है.
यदि कांग्रेस यूपी में बसपा तथा सपा के साथ होती, कांग्रेस एवं माकपा ने पश्चिम बंगाल की प्रबल विपक्षी पार्टी टीएमसी का विरोध करने का फैसला न किया होता और दिल्ली में कांग्रेस और आप साथ आ जातीं, तो वास्तविक विपक्षी एकता की दिशा में एक कहीं ज्यादा प्रभावी प्रयास की संभावनाएं बनती दिखतीं.
पर इनमें से कुछ भी नहीं हो सका. ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस इन चुनावों को एक समग्र राष्ट्रीय एकता का निर्माण करने की बजाय सियासी रूप से स्वयं के पुनरोदय का एक मौका मान रही है. यह सही है कि एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस अपने काडर के साथ अपनी प्रतिबद्धताओं को छोड़ नहीं सकती तथा जिन क्षेत्रों में पहले इसका दबदबा हुआ करता था, वहां खुद को पुनर्स्थापित करने के लक्ष्य से भटकना गवारा नहीं कर सकती.
पर इसका नकारात्मक पहलू यह है कि अंततः वह यूपी में बसपा-सपा के संयुक्त मताधार में सेंध लगाती और पश्चिम बंगाल में टीएमसी द्वारा भाजपा के आक्रमण झेलने की सामर्थ्य को कमजोर ही करती दिखती है. ओड़िशा के संबंध में भी यही सत्य है, जहां वह भाजपा की उभरती ताकत का मुकाबला करते बीजद के समर्थन आधार को ही खाने में लगी है.
एक सामान्य मतदाता के नजरिये को भी देखना ही चाहिए. विपक्षी पार्टियों के बीच चल रहे घमासान के मध्य वह क्यों न सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंच जाये कि एक स्पष्ट तथा शक्तिशाली नेता के साथ एकताबद्ध भाजपा के विरोधी पक्ष में एक दुर्निवार रूप से विभक्त विपक्ष खड़ा है?
उन्हें भाजपा से कुछ शिकायतें अथवा निराशाएं हो सकती हैं, पर उन्हें आपस में ही युद्धरत विपक्षी दलों के इस असहज जमावड़े को लेकर कहीं अधिक चिंताएं सता सकती हैं, जिनके व्यक्तिवादी मुखिया अस्थिर, अहंवादी, अनमनीय और परिपक्व सियासी समझौते में असमर्थ हैं.
मतदाताओं के मन में यह विचार भी उभरेगा ही कि यदि किसी तरह से सियासी पार्टियों का ऐसा दल सत्ता में आ भी गया, तो क्या वह सरकार बना सकेगा, और यदि बना भी ले, तो क्या वैसी सरकार चल सकेगी?
यह सिर्फ एक मिथक ही है कि जब वे सत्ता की दहलीज पर होंगे, तो चुनावी प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न आपसी कटुता तब अचानक किसी जादुई एकता में तब्दील हो जायेगी. अहं के इन बेशुमार टकरावों, कटुता की इतनी बहुसंख्यक स्मृतियों, इतनी बड़ी तादाद में राज्यस्तरीय विरोधाभासों के मौजूद होते हुए इतनी आपसी विसंगतियों से ग्रस्त तत्वों से बनी सरकार राष्ट्रीय स्तर पर सुचारु रूप से चल सकेगी, इस पर यकीन कर पाना वस्तुतः अत्यंत कठिन है.
विपक्षी एकता की महत्वाकांक्षा का सत्य अब यही है कि यमुना का इतना ज्यादा जल गलत दिशा में बह चुका कि ऐसे प्रयास अब सफल नहीं हो सकते.
इसकी बजाय यदि प्रमुख विपक्षी पार्टियां आरंभ में ही मिलकर यह निश्चय कर लेतीं कि राज्य स्तर पर छोटे-मोटे नुकसान की कीमत पर भी वे मिलकर भाजपा का मुकाबला करने के मुख्य लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होंगी और ऐसे फैसले के बाद यदि मुख्य राज्यों में यथार्थवादी समझौते सुनिश्चित कर विपक्षी एकता मजबूत कर ली गयी होती, तो वर्तमान में यह कहानी कुछ दूसरी ही होती.
आज तो हमें एक विभाजित विपक्ष का ही दीदार हो रहा है, जो इस उम्मीद से चिपका है कि चुनाव पश्चात की स्थिति में उनके द्वारा एक-दूसरे के प्रति उचारे गये समस्त दुर्वचन प्रशंसा में परिवर्तित हो जायेंगे और किसी जादू से परस्पर संदेहों की जगह एकजुटता अवतरित हो उठेगी. दुर्भाग्य से, सियासत की जमीनी दुनिया परी कथाओं के उस काल्पनिक लोक से बहुत अलग होती है, जहां हर एक अंत सदा सुखद ही होता है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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