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आइए, वोट करें और देश गढ़ें

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in चुनाव किसी भी लोकतंत्र का आधार स्तंभ होता हैं. इसलिए इसे लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है. इसकी खूबसूरती यह है कि हर खासोआम के वोटों से सरकार का चयन होता है. इसलिए मतदाता लोकतंत्र की रीढ़ माने जाते हैं. हर शख्स को यह समझना चाहिए कि […]

आशुतोष चतुर्वेदी

प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
चुनाव किसी भी लोकतंत्र का आधार स्तंभ होता हैं. इसलिए इसे लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है. इसकी खूबसूरती यह है कि हर खासोआम के वोटों से सरकार का चयन होता है. इसलिए मतदाता लोकतंत्र की रीढ़ माने जाते हैं. हर शख्स को यह समझना चाहिए कि उसके वोट का कितना महत्व है.
यही वजह है कि प्रभात खबर ने मतदाताओं को जागरूक और प्रेरित करने के लिए वोट करें, देश गढ़ें अभियान छेड़ा हुआ है. विसंगतियों के बावजूद दुनियाभर में लोकतांत्रिक व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है.
अत: हम सब का दायित्व है कि हम चुनाव में भागीदार बनें और वोट कर लोकतंत्र को समृद्ध करें. चुनावों में हरेक एक वोट की अहमियत है. ऐसे कई अवसर आये हैं कि एक वोट के कारण सरकारें चली गयीं हैं और लोग चुने जाने से वंचित रह गये हैं.
बहुत पुरानी बात नहीं है. केवल एक वोट के कारण अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर चुकी है. 1999 में केंद्र में भाजपा गठबंधन की सरकार थी और उसका नेतृत्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कर रहे थे. अन्नाद्रमुक का नेतृत्व दिवंगत जयललिता के हाथों में था.
केंद्र सरकार से अन्नाद्रमुक ने अपना समर्थन वापस ले लिया. इसके बाद सरकार की ओर से विश्वास प्रस्ताव लाया गया. भाजपा गठबंधन के सामने बहुमत साबित करने की चुनौती थी. केवल एक वोट की कमी की वजह से अटल जी की नेतृत्व वाली 13 महीने पुरानी भाजपा गठबंधन सरकार इस चुनौती को पार नहीं कर पायी.
सरकार के विश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 269 और विरोध में 270 वोट डाले गये थे. दूसरा मामला कांग्रेस के नेता सीपी जोशी का है. 2008 में राजस्थान विधानसभा का चुनाव था. जोशी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे व मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे. वह विधानसभा चुनाव भी लड़ रहे थे, लेकिन सिर्फ एक वोट से हार गये और उनकी दावेदारी भी खत्म हो गयी.
सीपी जोशी को 62,215 और उनके प्रतिद्वंद्वी कल्याण सिंह चौहान को 62, 216 वोट मिले थे. पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है, लेकिन कहा जाता है कि उस चुनाव में जोशी की मां, पत्नी और ड्राइवर वोट नहीं डालने नहीं गये थे. अगर ये लोग वोट डालने गये होते, तो तस्वीर कुछ और ही होती.
उपलब्ध तथ्यों के अनुसार, 2004 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव था और जनता दल (यूनाइटेड) की ओर से के कृष्णामूर्ति मैदान में थे. उनका मुकाबला कांग्रेस के आर ध्रुवनारायण से था, लेकिन कृष्णामूर्ति सिर्फ एक वोट से चुनाव हार गये. उन्हें 40751 वोट और ध्रुवनारायण को 40752 वोट मिले. इस मामले में भी कहा जाता है कि कृष्णमूर्ति ने ड्राइवर को वोट डालने जाने नहीं दिया था.
2015 में पंजाब के मोहाली नगर निगम के चुनाव में कांग्रेस की कुलविंदर कौर रागी ने अपनी प्रतिद्वदी निर्मल कौर को सिर्फ एक वोट से हरा कर जीत हासिल की थी. मुंबई नगर निगम के चुनाव किसी विधानसभा चुनावों से कम नहीं होते. 2017 के चुनाव में वार्ड 220 से शिव सेना के सुरेंद्र बगलकर और भाजपा के अतुल शाह के बीच मुकाबला था. दोनों द को बराबर 5946 वोट मिले हैं.
फैसला लाॅटरी से हुआ और अतुल शाह विजयी हुए. सुरेंद्र बगलकर के पक्ष में अगर एक वोट और पड़ गया होता, तो तस्वीर कुछ और ही होती. लब्बोलुआब यह है कि आपका दिया एक एक वोट लोकतंत्र को मजबूत करता है.
चिंता का एक और विषय है कि अब जनता से जुड़े विषय चुनावी मुद्दे नहीं बनते. किसानों की समस्याएं, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा की स्थिति, राज्यों का विकास जैसे विषय उभर कर सामने नहीं आ पाते हैं.
पिछले लोकसभा चुनावों में हिंदी पट्टी में भाजपा का दबदबा रहा है और वह दूसरा कार्यकाल हासिल करना चाहती है. दूसरी ओर कांग्रेस अपनी वापसी करना चाहती है.
यही वजह है कि दोनों पार्टियों के लिए ये लोकसभा चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गये हैं. चुनाव के मुद्दों पर नजर डालें, तो शुरुआत विकास के मुद्दे से हुई थी, लेकिन जल्द यह मुद्दा पीछे छूटता नजर आ रहा है. राहुल गांधी राफेल की खरीद में भ्रष्ट्राचार का मुद्दा प्रमुख रूप से उठा रहे हैं.
कांग्रेस जीएसटी और नोटबंदी जैसे मुद्दे उठा रही है, वहीं भाजपा पाकिस्तान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई और सरकार के विकास कार्यों का हवाला दे रही है. पीएम नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह सघन प्रचार के जरिये भाजपा हवा का रुख अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन स्थानीय फैक्टर पार्टियों के गणित पर असर डाल सकते हैं.
हर सब जानते हैं कि संसद लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है. संविधान निर्माताओं ने ऐसी परिकल्पना की थी कि संसद के माध्यम से कानून बनेंगे और उनके द्वारा जनता की अपेक्षाओं को पूरा किया जायेगा.
सदन सार्थक चर्चा और जनता की समस्याओं के निराकरण का मंच भी है. सांसद जनहित के मुद्दों को उठाते हैं और सरकार को जवाब देना होता है.
यह सारी प्रक्रिया हम सबके लिए महत्वपूर्ण है. एक तथ्य और जान लीजिए कि संसद की कार्यवाही हमारे आपके द्वारा जमा किये टैक्स से चलती है. इसको चलाने में जो लंबा चौड़ा खर्चा आता है, उसकी पूर्ति हमारे आपके टैक्स के भुगतान से की जाती है. संसद की प्रति मिनट कार्यवाही पर औसतन ढाई लाख रुपये का खर्च आता है.
एक दौर था, जब संसद में विभिन्न विषयों पर लंबी और गंभीर बहसें होती थीं. यह बहुत पुरानी बात नहीं है, लेकिन अब उनका अभाव साफ नजर आता है. एक तो अनेक सांसद सदन के विधायी नियमों का पालन नहीं करते हैं और बहुत से अवसरों पर उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं होती.
एक और चिंतनीय विषय है कि सदन में अमर्यादित आचरण और शब्दों का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. विधानसभाओं की स्थिति तो और भी चिंताजनक है. वहां विधायकों में मारपीट तक की घटनाएं घटित होने लगी हैं.
पिछली बार एक पुरुष सांसद अपने राज्य को विशेष दर्जे की मांग को लेकर महिला का वेष धारण कर संसद भवन परिसर पहुंच गये थे. ऐसी नौटंकी लोकतंत्र के लिए कतई मुफीद नहीं है. इस सबके लिए हम और आप जिम्मेदार है, क्योंकि हम श्रेष्ठ लोगों का चयन ही नहीं करते हैं.
यह जान लीजिए, जैसा बीज रोपियेगा, वैसी ही फसल काटनी पड़ेगी. इसलिए एक तो मतदान अवश्य करें. दूसरे, ऐसे व्यक्ति का चयन करें, जो क्षेत्र का विकास कर सके और आपकी समस्याओं को देश की सबसे बड़ी पंचायत में उठा सके.
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक मिसाल है. यही वजह है कि लोकसभा चुनावों पर देश और दुनिया दोनों की निगाहें लगी हुईं हैं. हमें इसे और मजबूत करना है. आइए, हम सब प्रतिज्ञा करें कि लोकतंत्र के इस महापर्व पर अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करेंगे.

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