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खतरनाक हैं चीन के बड़े प्रोजेक्ट

प्रो सतीश कुमार अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार singhsatis@gmail.com अमेरिका ने यह माना है कि चीन का ओबीओआर प्रोजेक्ट दुनिया की सुरक्षा के लिए खतरनाक है. अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा है कि दुनिया के कई देशों में चलाये जा रहे चीन के ओबीओआर और अन्य परियोजनाएं अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने की बजाय उन […]

प्रो सतीश कुमार

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
singhsatis@gmail.com
अमेरिका ने यह माना है कि चीन का ओबीओआर प्रोजेक्ट दुनिया की सुरक्षा के लिए खतरनाक है. अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा है कि दुनिया के कई देशों में चलाये जा रहे चीन के ओबीओआर और अन्य परियोजनाएं अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने की बजाय उन देशों की सुरक्षा व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो जायेगा. दरअसल, चीन जानबूझ कर ही ऐसा कर रहा है.
दिखावटी तौर पर चीन का दावा है कि मध्य एशिया, मध्य-पूर्व, पूर्वी एशिया, अफ्रीका और यूरोप के बीच संपर्क और सहयोग बढ़ेगा. साथ ही सांस्कृतिक आयाम भी जुटेंगे, जो सिल्क रूट के युग में था. इस सोच के आधार पर पूरी विश्व व्यवस्था बदलेगी और हिंसा और संघर्ष में कमी आयेगी. ऐसा चीन का दावा है. लेकिन पश्चिम के तमाम विद्वान चीन की बात से सहमत नहीं हैं.
उनकी नजर में यह एक फंदा है, जो कई देशों को फांस देगा. इसके कई उदाहरण मौजूद हैं. दरअसल, चीन इतना पैसा खर्च कर देता है कि संबंधित देश कर्ज के बोझ में दब कर समर्पण कर बैठते हैं. मलेशिया के प्रधानमंत्री ने चीन की परियोजना को धूर्त कह कर संबोधित किया.
श्रीलंका में जब हंबनटोटा बंदरगाह को श्रीलंका सरकार द्वारा 99 वर्षों के लिए गिरवी रखा गया, तो इसका कारण भी आर्थिक बोझ ही था. बंदरगाह के पूरी तरह से चीन के कब्जे में आने के बाद वह उसका उपयोग अपने सैनिक समीकरण को बनाने में करता है. नेपाल और पाकिस्तान में भी चीन यही कर रहा है.
पाकिस्तान की राजनीति और व्यवस्था को समझनेवाले हुडबॉय का मानना है कि बलूचिस्तान में चीन की कंपनी और उसके लोगों की सुरक्षा व्यवस्था के लिए तकरीबन बारह हजार से ज्यादा पाकिस्तान के सैनिक लगे हुए हैं.
आखिर पाकिस्तान को क्या लाभ मिलनेवाला है, जब परियोजना का पूरा फायदा चीन की कंपनी को जाता है? इससे पाकिस्तान की जनता भी नाराज है और वह चीन-विरोधी भी बन रही है.
चीन तो सेना और बंदूक की नोक पर सीपीइसी (चीन-पाक आर्थिक गलियारा) योजना को चलाने में सफल है. बहुत हद तक चीन अपने पैसे के बूते नेपाल में भी घुसपैठ कर वहां की संस्कृति और राजनीतिक व्यवस्था को बदलने की कोशिश कर रहा है.
चीन की चाल अब भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित नहीं रहा. पिछले दिनों इटली भी चीन के घेरे में फंसता हुआ दिखायी दिया. वहीं यूरोप के देश अमेरिका से नाता तोड़कर चीन के ओबीओआर प्रोजेक्ट में शामिल होने के लिए व्याकुल हैं.
यहां महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि चीन की परियोजना क्या सचमुच दुनिया के लिए खतरा है? चीन की विचारधारा ही उसकी आर्थिक व्यवस्था को संचालित करती है. कहने के लिए प्राइवेट कंपनियां इसमें शामिल हैं, लेकिन उनकी सोच और कार्यप्रणाली चीन की राजनीति शक्ति से चलती है. चीन दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना चाहता है, ऐसी आर्थिक व्यवस्था जो अंतरराष्ट्रीय नियमों पर नहीं, बल्कि चीन की हिदायत और निर्देश पर चलती हो.
चीन यूरोप को भी दो खंडों में बांट देना चाहता है. जिससे उसकी पकड़ छोटे यूरोप के देशों पर आसानी से बन सके. भारत के पड़ोसी देशों के बीच चीन पर्ल ऑफ स्ट्रिंग के जरिये भारतीय उपमहाद्वीप के देशों पर अपनी पकड़ बना ली है.
भारत ओबीओआर परियोजना का हिस्सा नहीं है. लेकिन होना या न होना भारत के लिए पर्याप्त नहीं है. जिस तरीके से चीन का अश्वमेध घोड़ा दौड़ लगा रहा है, उसे रोकना या चुनौती देना भी भारत के लिए जरूरी है. संभव है कि इस द्वंद्व में युद्ध की स्थिति भी बन सकती है. इसका उदाहरण पाकिस्तान है.
भारत के प्रधानमंत्री ने कारगर कूटनीति के द्वारा महज पाकिस्तान को ही नहीं, चीन को भी घेरने की कोशिश की है. मसूद अजहर पर सुरक्षा परिषद् की सोच एक है. चीन पर निरंतर दबाव बनाया जा रहा है, जो चीन के लिए भी मुश्किलें पैदा करेगा.
भारत अब अमेरिका के साथ मिल कर चीन को घेरने की कवायद में है. चीन की सबसे बड़ी पारियोजना सीपीइसी है, जो ओबीओआर योजना का कोहिनूर हीरा है. अगर अमेरिका और भारत मिल कर इस परियोजना के लिए संकट पैदा करने में सक्षम हो जाते हैं, तो चीन की नींद उड़ सकती है.
पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट के जरिये ही चीन मध्य-पूर्व एशिया और अफ्रीका तक पैर फैलाने की योजना को पूरा करना चाहता है. पाकिस्तान इसलिए भी यहां चीन की कमजोर कड़ी है, जिसके लिए वह कोई भी अधर्म कर सकता है. अगर चीन के अश्वमेध घोड़े को यहीं पर रोका नहीं गया, तो भारत का कश्मीर और अरुणाचल का हिस्सा चीन की विस्तृत नीति के नजर में होगा.
वर्षों से चीन मानता आ रहा है कि यह हिस्सा चीन का है. चीन की परियोजना दरअसल सामरिक सोच का ही नतीजा है. दुनिया को जोड़ने की आड़ में वह विश्व को अपनी दलान बनाना चाहता है. इसका सबसे ज्यादा नुकसान भारत को होगा.
अभी तक की बात करें, तो परिस्थिति भारत के अनुकूल है, भारत और अमेरिका मिल कर चीन की दीवार को लांघ सकते हैं. इसकी शुरुआत पाकिस्तान से की जा सकती है. इसके लिए भारत और अमेरिका के बीच सहमति भी बन चुकी है.
अमेरिका जिस तेवर के साथ चीन से बात कर रहा है, वह भारत के लिए अनुकूल परिस्थिति पैदा कर रही है. भारत में एक मजबूत सरकार है, प्रधानमंत्री मोदी की सोच भी चीन को चुनौती देने की है. ऐसे में उम्मीद पूरी है कि भारत और अमेरिका मिल कर ही चीन की इन गतिविधियों को रोक सकते हैं.

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