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देश की राजनीति में हिंदी पट्टी

मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com एक समय था, जब हिंदी पट्टी भारतीय राजनीति की दिशा निर्धारित करती थी, लेकिन आज वह पूरी तरह से हाशिये पर है. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद और स्वतंत्रता के शुरुआती दौर में आर्थिक तौर पर मजबूत रहने के बावजूद ऐसा क्या हो गया […]

मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
एक समय था, जब हिंदी पट्टी भारतीय राजनीति की दिशा निर्धारित करती थी, लेकिन आज वह पूरी तरह से हाशिये पर है. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद और स्वतंत्रता के शुरुआती दौर में आर्थिक तौर पर मजबूत रहने के बावजूद ऐसा क्या हो गया कि यह पूरा इलाका बीमारू राज्य बन गया? एक बात तो समझ में आती है कि बहुत समय तक इन रज्यों ने राष्ट्र निर्माण का बोझा उठाया.
बिहार और झारखंड जैसे राज्यों का आर्थिक दोहन लगातार होता रहा और ये राज्य इसे राष्ट्र के विकास में अपनी हिस्सेदारी मानते रहे. इन राज्यों के कोयले से राजधानी को बिजली मिलती रही, लेकिन इन राज्यों में अंधेरा छाया रहा. इन राज्यों के उच्च शिक्षा को आहिस्ते-आहिस्ते खत्म होने दिया गया.
कभी अपनी स्तरीयता के लिए प्रसिद्ध इलाहाबाद, बनारस, अलीगढ़, पटना, रांची, भागलपुर, सागर और जयपुर के विश्वविद्यालय द्वितीय श्रेणी के हो गये. विकास के लगभग हर क्षेत्र की यही कहानी है. यहां उद्योग धंधों की कमी, बेरोजगारी और किसानों की बदहाली इतनी बढ़ गयी कि एक तरह का सामाजिक संकट हो गया. फिर सिलसिला शुरू हुआ अपराध का.
उदाहरण के लिए, देश की सबसे उपजाऊ भूमि के लिए जाना जानेवाले बिहार के सीमांचल के कई जिले देश के सबसे गरीब जिले हो गये. बड़े पैमाने पर लोग राज्य छोड़कर पलायन करते हैं और अब तो जहां-तहां पिटते नजर भी आते हैं.
इन सबके लिए कौन जिम्मेदार है? यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इसके लिए जिम्मेदार इन राज्यों की राजनीति और देश की राजनीति में इसके हिस्सेदारी की कमी है.
जहां एक तरफ दक्षिण के राज्य हर समय इस बात को लेकर सचेत थे कि उनका आर्थिक विकास सही ढंग से हो सके, और केंद्र सरकार उसका सही ध्यान रखे. दूसरी तरफ हिंदी पट्टी के राज्य इन सबसे बेखबर रहे. यूरोपियन यूनियन के एक मित्र ने एक बार बताया कि दक्षिणी राज्यों के मुख्यमंत्री जब दिल्ली आते हैं, तो अपने साथ पदाधिकारियों की एक टीम लेकर सबसे पहले उनके पास आते हैं और उनसे अपने राज्यों की स्वयंसेवी संस्थाओं को सहायता के लिए व्यवस्था करते हैं. जबकि हिंदी पट्टी के मुख्यमंत्री इस तरह के विकासोन्मुखी संस्थाओं से कोई संबंध नहीं रखते हैं.
इन राजनीतिक दलों के पास जाति और धर्म को लेकर सोशल इंजीनियरिंग का खाका तो रहता है, लेकिन उनके पास इन राज्यों के विकास का कोई ब्लूप्रिंट नहीं है. न ही यहां के नौकरशाही के पास कोई ब्लूप्रिंट है. आखिर उनकी स्वायत्तता ही कितनी है. उनका भी स्वभाव कुछ वैसा ही हो जाता है, जिसमें खाओ-पियो और मौज करो की प्रवृत्ति प्रधान हो जाती है.
ऐसे कई उदाहरण हैं, जिस आधार पर इन बातों को सही ठहराया जा सकता है. अभी हाल में शोध कार्य के दौरान पता चला कि एक बांध को लेकर लोग आंदोलन कर रहे थे, तो उन्हें किसी तरह रोका गया, लेकिन बिना सही वजह बताये ऐसे ही एक खतरनाक बांध की योजना बन गयी. यह राजनेताओं, ठेकेदारों और नौकरशाहों की संयुक्त साजिश प्रतीत होती लगती है.
ओएनजीसी ने यह माना है बिहार के पूर्णिया क्षेत्रों के आस-पास प्रचुर मात्रा में तेल है, लेकिन उसे निकालने की कोई खास कोशिश नहीं की गयी है.
जबकि, देश के अन्य इलाकों में बहुत खर्च करने के बाद भी तेल नहीं मिला और फिर भी खर्च की कोशिश की जा रही है. ऐसे अनेक उदाहरण मिल सकते हैं, जिससे यह प्रमाणित किया जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद विकास गति इन इलाकों के राजनेताओं ने समझा ही नहीं या फिर उसके बारे में वे सचेत ही नहीं रहे. उलटा यहां सामंती प्रवृत्ति का पुनः प्रत्यारोपण होने लगा. और ऐसा लगने लगा कि हम वापस मध्ययुगीन अंधकार में लौटने लगे.
अब सवाल है कि आगे की योजना क्या होनी चाहिए, जिससे हिंदी पट्टी को एक बार फिर देश को दिशा देने का मौका मिल सके. निश्चित रूप से इसके लिए यहां एक नयी राजनीतिक चेतना की जरूरत है और यह तभी संभव है, जब स्वतंत्रता संग्राम के समय के अधूरे काम पूरे किये जा सकें.
ऐसा मानने में किसी को उज्र नहीं होना चाहिए कि स्वतंत्रता आंदोलन के समय बंगाल जैसे राज्यों में जिस तरह का सामाजिक आंदोलन हुआ, इसका प्रभाव हिंदी पट्टी में कम पड़ा. जो आंदोलन शुरू भी हुए, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद थम गये. इसलिए किसी राजनीतिक परिवर्तन की पहली शर्त है कि इन इलाकों में सामाजिक परिवर्तन की एक जोरदार लहर चले, ताकि इसके जातिवादी स्वरूप में परिवर्तन हो, महिला विरोधी स्वभाव बदले और विकास के अभाव में जो मानसिकता यहां पनप रही है, उसका खात्मा हो.
कोई सरकार या राजनीतिक पार्टी इसके लिए शायद ही तैयार हो. सच तो यह है कि पार्टियां और उनकी सरकारें इस तरह के किसी आंदोलन को दबाने का ही काम करेंगी.
इसलिए इन आंदोलनों के लिए समाज को स्वयं ही आगे आना पड़ेगा. अर्थात् राजनीति को बदलने के लिए सामाजिक बदलाव जरूरी है, हमारी सामंती मानसिकता में परिवर्तन जरूरी है, ताकि जातियों और धर्मों के आधार पर सोशल इंजीनियरिंग करने के बदले पार्टियां विकास के मुद्दों को अपना आधार बना सकें.
सामाजिक परिवर्तन के लिए जरूरी यह है कि तमाम सामाजिक संस्थाओं को तार्किक आधार पर कसा जाये, उसमें बदलाव के लिए पहल की जाये. लोगों में अपनी आमदनी को पुनः उत्पादन में लगाने के लिए प्रेरित किया जाये. इन सबके लिए इन राज्यों में शिक्षा जगत को ठीक करना होगा.
आज बिहार के बहुत से लोग जो बाहर रहते हैं और राज्य में बदलाव चाहते हैं, उन्हें एकजुट होकर शिक्षा में लागत लगानी चाहिए. शिक्षा के सरकारी प्रयासों से अलग अन्य प्रयोग किये जाने चाहिए. और इस प्रयोग में सामाजिक परिवर्तन और राजनीतिक चेतना को जगह देने की जरूरत है.
एक जमाने में इन राज्यों के गांव-गांव में जन सहयोग से पुस्तकालय चला करते थे, जो अब लगभग खत्म हो गये हैं. एक आंदोलन ऐसा भी होना चाहिए, जो इन पुस्तकालयों को पुनः स्थापित कर नये स्वरूप में उसकी कल्पना करे. इन पुस्तकालयों के माध्यम से इन राज्यों की जनता को दुनिया से जोड़ने की कोशिश की जानी चाहिए और जो लोग इन समाजों से बाहर जाकर दुनिया के बदलाव को देख रहे हैं, उनसे भी जुड़ना चाहिए. और इन सबके लिए हमें राज्य पर निर्भर नहीं होना चाहिए, बल्कि जनसहयोग ही इसका एक मात्र रास्ता है.

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