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दबाव में प्रणाली की प्रभावशीलता
डॉ वाईवी रेड्डी पूर्व गवर्नर, आरबीआइ www.thebillionpress.org भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत वर्ष 1991 के भुगतान संतुलन संकट के समय से हुई. इन सुधारों में मौद्रिक नीति के संचालन में स्वायत्तता के एक स्तर के आधार पर राजकोषीय स्थिरता, वित्तीय क्षेत्र में विनियमितीकरण (डीरेगुलेशन) के अलावा सरकारी ऋण कार्यक्रम का बाजारीकरण, बैंकिंग विनियमन के […]
डॉ वाईवी रेड्डी
पूर्व गवर्नर, आरबीआइ
www.thebillionpress.org
भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत वर्ष 1991 के भुगतान संतुलन संकट के समय से हुई. इन सुधारों में मौद्रिक नीति के संचालन में स्वायत्तता के एक स्तर के आधार पर राजकोषीय स्थिरता, वित्तीय क्षेत्र में विनियमितीकरण (डीरेगुलेशन) के अलावा सरकारी ऋण कार्यक्रम का बाजारीकरण, बैंकिंग विनियमन के वैश्विक मानकों को अपनाना तथा पूंजी बाजार, बीमा एवं पेंशन के लिए पृथक विनियमन निकायों की स्थापना भी शामिल थी.
इस सुधार प्रक्रिया की कई ऐसी विशेषताएं थीं, जो राजकोषीय, मौद्रिक तथा वित्तीय क्षेत्र की नीतियों के लिहाज से गौरतलब हैं: पहली, सरकार ने वित्तीय एवं वैदेशिक क्षेत्र के संबंध में अपना प्राधिकार आरबीआइ विनियामकों एवं बाजारों के हाथ छोड़ दिया. आरबीआइ ने परिचालन संबंधी स्वयत्तता हासिल की, अपनी नीतियों को सरकार से संबद्ध किया तथा संरचनात्मक परिवर्तनों के मामलों में सरकार के साथ घनिष्ठ सहयोग रखते हुए काम करना आरंभ किया. स्वचालित मुद्रीकरण (मोनेटाइजेशन) तथा विनिमय नियंत्रण की समाप्ति की तरह कई बार ऐसा भी हुआ कि इन चीजों पर अमल पहले शुरू हुआ और उन्हें वैधानिक स्वीकृति बाद में मिली.
दूसरी, वित्तीय क्षेत्र के सुधारों के संबंध में आरबीआइ ने सरकार के सलाहकार के रूप में सक्रिय भूमिका निभाना शुरू किया. तीसरी, जैसे-जैसे सुधार परवान चढ़े, सरकार ने परिचालन स्तर पर समन्वयन का कार्य पूंजी बाजारों पर देखरेख के लिए स्थापित एक कमेटी को सौंप दिया, जिसके अध्यक्ष आरबीआइ गवर्नर तथा संयोजक वित्त मंत्रालय के संयुक्त सचिव होते हैं. राजकोषीय प्राधिकारियों से बातचीत कर आरबीआइ का बैलेंस शीट समृद्ध करते हुए नीतिगत सुधारों की प्रभावशीलता बढ़ायी गयी.
मगर विनियमन के मामलों में नरसिम्हन कमेटी की वह प्रमुख अनुशंसा नहीं मानी गयी कि बैंकों पर दोहरा नियंत्रण नहीं होना चाहिए. सरकार ने अभी भी वित्तीय क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों की विशेषाधिकार प्राप्त स्वामिनी बन इस विनियामक की प्रभावशीलता घटा रखी है. वर्ष 2008 में रघुराम राजन कमेटी की अनुशंसाओं एवं 2010 में श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट के साथ ही सुधारों के संबंध में सरकार का नजरिया बदल गया. सुधारों के संबंध में सामान्य सोच पर आरबीआइ का प्रभाव घट गया और उसकी जगह एक नये ढांचे ने ग्रहण ले ली.
वर्ष 2010 में वित्त मंत्री की अध्यक्षता में वित्तीय स्थिरता और विकास परिषद् (एफएसडीसी) की स्थापना के साथ ही वित्तीय सुधारों के क्षेत्र में समन्वयन का कार्य सीधे सरकार के हाथ आ गया. इस परिषद् के अन्य सदस्यों में आरबीआइ के गवर्नर, सरकार के चार सचिव, मुख्य आर्थिक सलाहकार तथा विभिन्न विनियामक निकायों के चार प्रमुख शामिल हैं. इस परिषद् को वित्तीय विकास, वित्तीय स्थिरता, वित्तीय साक्षरता, वित्तीय समावेशन और सर्वाधिक प्रमुख रूप से अंतर विनियामकीय समन्वयन का उत्तरदायित्व दे दिया गया.
आरबीआइ एक्ट में संशोधन कर जून 2016 में भारत में एक नये मौद्रिक नीति ढांचे हेतु विधायी स्वीकृति लागू की गयी. मौद्रिक नीति का प्राथमिक उद्देश्य अब विकास लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए मूल्य स्थिरता कायम रखना हो गया और आरबीआइ को इस नये ढांचे के परिचालन की जिम्मेदारी दी गयी.
एफएसडीसी सरकार को वित्तीय क्षेत्र के विकास तथा स्थिरता हेतु जिम्मेदार बनाती है. उभरते बाजारों की अर्थव्यवस्थाओं के अंतर्गत वित्तीय क्षेत्र की अस्थिरता राजनीतिक अस्थिरता के साथ सह-अस्तित्व बनाये रखती है. इसलिए जब सरकार स्वयं ही अस्थिर हो, तो उसे वित्तीय अस्थिरता से निबटने में दिक्कतें पेश आती हैं. यदि सेंट्रल बैंक (रिजर्व बैंक) तथा विनियामकों का सरकार के साथ सही तालमेल न हो, तो एक समन्वयक के साथ ही विनियमित निकायों की स्वामिनी होने की वजह से वह उन्हें निष्प्रभावी बना देती है.
सरकार द्वारा वित्तीय क्षेत्र, खासकर बैंक जमा राशियों को संसदीय निगरानी के बगैर ही बजट के विस्तारित अंग की तरह इस्तेमाल करने की परंपरा रही है. राजकोषीय दबाव में विनियामक एवं सरकारी स्वामित्व के विनियमित के बीच के संबंधों को प्रभावित करने की क्षमता होती है, जिसके राजकोषीय निहितार्थ बाद में प्रकट होते हैं. पूर्व में रिजर्व बैंक के बहुतेरे उद्देश्य हुआ करते थे और डिप्टी गवर्नर मौद्रिक नीति निर्माण से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते थे. नयी व्यवस्था के तहत वित्तीय स्थिरता की चिंताओं पर प्रकट रूप से विचार नहीं किया जाता. यहां तक कि वैदेशिक क्षेत्र के संबंध में भी वित्तीय स्थिरता के सरोकारों को मौद्रिक नीति के उद्देश्यों में शामिल नहीं किया जाता.
तो क्या एक संपूर्ण सेवाएं देनेवाले सेंट्रल बैंक के साथ अंतर्निहित ढंग से जुड़ी समन्वयक की भूमिका भुला देने की वजह से अब एक खतरा आ खड़ा हुआ है? क्या एक संपूर्ण सेवाएं देनेवाले सेंट्रल बैंक (आरबीआइ) के साथ मौद्रिक नीति कमेटी (एमपीसी) के सह-अस्तित्व से एक पहचान का संकट आ खड़ा हुआ है?
मौद्रिक नीति का संचरण अब भी बैंकिंग प्रणाली पर निर्भर है, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का दबदबा कायम है. मौद्रिक नीति वाले यह मानते हैं कि यह व्यवस्था वस्तु तथा बाजार उन्मुखी प्रोत्साहनों एवं निरुत्साहनों के प्रति प्रतिक्रिया करती है. मगर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक व्यापक सार्वजनिक हितों को ध्यान में रखते हुए मौद्रिक नीति संकेतों के प्रति प्रतिक्रिया देते हैं.
मौद्रिक नीतिगत बयान के बाद वित्त मंत्री आवश्यक रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पदाधिकारियों को संबोधित किया करते हैं, ताकि उन्हें उनकी अगली कार्रवाइयों के लिए दिशा-निर्देश दिये जा सकें. इस प्रकार, मौद्रिक नीति के संचरण हेतु सरकारी स्वामित्व के बैंकों की अहमियत के कारण एक ‘स्वतंत्र’ मौद्रिक नीति का असर भोथरा हो जाता है.
चूंकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का शासन सरकार निर्देशित ही है, अतः बैंकों का विनियमन ढांचा उनके स्वामित्व के प्रति निरपेक्ष नहीं रह पाता है.
राजकोषीय प्राधिकारी बैंकिंग प्रणाली का इस्तेमाल कुछ सरकारी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु करते हैं और इस काम में एक विनियामक के रूप में आरबीआइ सुगमता प्रदान करता है. कानून के अनुसार, बैंकों के खर्चे काटकर उनके पास बाकी बचे अधिशेष से सुरक्षित कोष में दिया जानेवाला अंश भुगतान करने के बाद सरकार को दिये जानेवाले लाभांश का भुगतान किया जाता है. पर हाल में इस प्रक्रिया पर भी राजकोषीय सरोकारों का असर पड़ता दिखता है.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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