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समर्थन व विरोध का क्षेत्रीय द्वंद्व

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com मध्य प्रदेश और राजस्थान में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को अपनी पार्टी के समर्थन की घोषणा से पहले बसपा अध्यक्ष मायावती ने उसकी खूब लानत-मलामत की. कहा कि इस देश के दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की दुर्दशा के लिए कांग्रेस की सरकारें जिम्मेदार हैं. एक साथ समर्थन और विरोध […]

नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
मध्य प्रदेश और राजस्थान में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को अपनी पार्टी के समर्थन की घोषणा से पहले बसपा अध्यक्ष मायावती ने उसकी खूब लानत-मलामत की. कहा कि इस देश के दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की दुर्दशा के लिए कांग्रेस की सरकारें जिम्मेदार हैं. एक साथ समर्थन और विरोध का यह द्वंद्व राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के रिश्ते का अनिवार्य पहलू है. बसपा की तरह कई क्षेत्रीय दल कांग्रेस-विरोध के कारण जन्मे, लेकिन आज भाजपा को अपने लिए बड़ा खतरा जानकर वे कांग्रेस का साथ समर्थन लेने-देने को सशंक तैयार हो रहे हैं.
क्या यह मजबूरी अंतत: 2019 में भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस केंद्रित राष्ट्रीय गठबंधन बनने का कारण बन पायेगी? मध्य भारत के तीन राज्यों में भाजपा को हराकर सत्ता में आयी कांग्रेस का साथ क्या अब क्षेत्रीय दल आसानी से स्वीकार कर लेंगे? खुद कांग्रेस इस रिश्ते को निभाने में कितनी समझदारी दिखायेगी?
सबसे बड़ा असमंजस उत्तर प्रदेश को लेकर रहा है. सपा-बसपा का गठबंधन लगभग तय है. अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल के भी उसका हिस्सा बनने में दिक्कत नहीं है. दिक्कत सिर्फ कांग्रेस को साथ लेने में थी. ताजा चुनाव नतीजों के बाद क्या अब सपा-बसपा राष्ट्रीय स्तर पर उसका नेतृत्व आसानी से स्वीकार कर लेंगी? उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या कांग्रेस उत्तर प्रदेश में छोटा-सा सहयोगी बनने को तैयार होगी?
भाजपा-विरोधी मोर्चे के लिए सक्रिय ममता बनर्जी कांग्रेस की विजय पर उत्साहित क्यों नहीं हैं? क्या कांग्रेस का भाजपा को हराना उन्हें कहीं अपने लिए खतरा भी दिखायी देता है? या उन्हें लगने लगा है कि अब कांग्रेस नेतृत्वकारी भूमिका में आ जायेगी, तो उनकी महत्त्वाकांक्षा का क्या होगा? स्वयं कांग्रेस क्या चंद्रबाबू नायडू से अपनी हालिया दोस्ती पर अब पुनर्विचार करने लगेगी? यह दोस्ती तेलंगाना में भारी पड़ी, तो आंध्र प्रदेश में मददगार हो पायेगी? क्या नायडू अब भी कांग्रेस को धुरी बनाकर विपक्षी एकता की अलख जगायेंगे?
ऐसे कई अंतर्विरोध भारत की क्षेत्रीय राजनीति में उठते रहे हैं और स्थितियों के अनुरूप उनके जवाब भी मिलते आये हैं. आज ये प्रश्न फिर सिर उठा रहे हैं, क्योंकि 2019 का आम चुनाव सामने है. कांग्रेस का ही नहीं, कुछ क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व भी दांव पर है. साल 2014 के बाद से दौड़ रहे भाजपा के चुनावी अश्वमेध का घोड़ा थाम लेना कई दलों को आवश्यक लगने लगा है. इसलिए कुछ समय से भाजपा विरोधी दलों में एकता की बातें होती रही हैं. कभी तेलंगाना के चंद्रशेखर राव प्रस्ताव करते हैं, तो कभी नायडू और ममता बनर्जी. शरद यादव और शरद पवार जैसी हाशिये पर पहुंची हस्तियां भी सक्रिय होती हैं, लेकिन कांग्रेस को लेकर शंका बनी रही.
अपने-अपने राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय दलों में भाजपा को रोकने की काफी क्षमता भले हो, उनका कोई संयुक्त राष्ट्रीय विकल्प आकार नहीं ले सकता. नेतृत्व से लेकर मुद्दों तक के विवाद बीच में आ जाते हैं. उन्हें एक गठबंधन के सूत्र में पिरोने के लिए एक राष्ट्रीय डोर चाहिए या फिर कोई सर्व-सम्मानित बड़ी हस्ती. ऐसा नेता आज चूंकि कोई है नहीं, इसलिए फिलहाल वह कांग्रेस ही है, जो क्षेत्रीय दलों को जोड़कर राष्ट्रीय विकल्प बना सकती है.
अभी तक कांग्रेस, जैसा कि नरेंद्र मोदी कहते थे, आइसीयू में पड़ी थी. टूटे मनोबल वाली और भारत के नक्शे में सिकुड़ी-मुचड़ी कांग्रेस को गठबंधन के नेता के रूप में क्षेत्रीय दल देख ही नहीं पा रहे थे. फिर, उसके नये और युवा अध्यक्ष राहुल गांधी को भाजपा की प्रचार मशीनरी ने ‘पप्पू’ बनाकर रखा था. वे सक्षम नेता लगते ही नहीं थे. लेकिन, तीन राज्यों में सत्तारोहण से कांग्रेस को वह संजीवनी मिल गयी है, जिसकी उसे अत्यंत आवश्यकता थी. राहुल के नेतृत्व पर भी सक्षमता की मोहर लगी है. यह भी साबित हो गया है कि नरेंद्र मोदी अजेय नहीं हैं. तो, क्या अब क्षेत्रीय दल कांग्रेस के नेतृत्व में एक छतरी के नीचे आयेंगे?
क्षेत्रीय दल कांग्रेस से एक साथ समर्थन और विरोध की नीति पर चलेंगे. अगर कांग्रेस उनके राज्यों में क्षेत्रीय दलों को पर्याप्त सम्मान दे और ऐसी स्थितियां पैदा न करे कि उनके लिए खतरा पैदा हो, तो वे राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को समर्थन दे सकते हैं.
मायावती ने एक तरफ अपने मतदाताओं को यह संदेश दिया कि पूर्व में कांग्रेस ही उनके दुखों का कारण रही है, लेकिन चूंकि अब भाजपा उससे बड़ा दुख बन गयी है, इसलिए कांग्रेस को समर्थन देना मजबूरी है. यानी यह समर्थन रणनीतिक है, कांग्रेस-समर्थक नहीं बन जाना है.
‘तेलुगू स्वाभिमान कुचलनेवाली कांग्रेस’ को नायडू का समर्थन ऐसी ही रणनीति है. अखिलेश यादव कांग्रेस को गठबंधन का हिस्सा बनाना चाहते हैं, तो इसलिए नहीं कि पिछड़ों के वोट कांग्रेस के पक्ष में चले जायें, बल्कि इसलिए कि उनके जनाधार के लिए अब भाजपा बड़ा खतरा है. यह द्वंद्व लगभग सभी क्षेत्रीय दलों का है.
अगला सवाल कांग्रेस के लिए है. क्या वह क्षेत्रीय दलों को निशंक कर सकेगी? क्या राहुल कांग्रेस की राष्ट्रीय स्तर पर वापसी के प्रस्थान बिंदु के रूप में क्षेत्रीय दलों को उनका पूरा ‘स्पेस’ देने का साहस दिखा सकते हैं?
इसके लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, आंध्र, जैसे कुछ अन्य राज्यों में कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों का छोटा या गौण सहयोगी बनने को राजी होना पड़ेगा. इससे कांग्रेस के पहले से ही बिखरे संगठन और निरुत्साहित कार्यकर्ताओं के और भी लापता हो जाने का खतरा जरूर होगा, लेकिन इस रास्ते वह उन दसेक राज्यों में तत्काल खड़ी हो सकेगी, जहां भाजपा से उसका सीधा मुकाबला है.
स्वाभाविक है कि यह तात्कालिक रणनीति ही हो सकती है. कालांतर में कांग्रेस को उन राज्यों में अपने पैर जमाने और विस्तार के लिए प्रयत्न करने होंगे. इस प्रक्रिया में उसे क्षेत्रीय दलों से टकराना होगा, लेकिन तब तक वह शेष देश में अपनी ठीक-ठाक जगह बना चुकी होगी.
कांग्रेस यह त्याग कर सकी, तो वह क्षेत्रीय दलों को विश्वस्त सहयोगी के रूप में पा सकेगी और भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय गठबंधन का नेतृत्व कर सकेगी. अन्यथा क्षेत्रीय दल उससे सशंक ही रहेंगे और चुनाव बाद के गठजोड़ों की संभावनाओं पर नजरें टिकाये रहेंगे.
कांग्रेस को अब बड़े कौशल और धैर्य की जरूरत है. तीन राज्यों में उसकी जीत राष्ट्रीय स्तर पर उसके पुनर्जीवन का संकेत नहीं मानी जा सकती. क्षेत्रीय दलों के सहयोग की उसे उतनी ही जरूरत है, जितनी उन्हें उसकी. देखना है कि इसमें राहुल कितने परिपक्व साबित होते हैं.

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