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कृषि व्यवस्था दुरुस्त करना जरूरी

वरुण गांधी सांसद, भाजपा fvg001@gmail.com कुछ महीने पहले 30,000 से ज्यादा किसानों ने एक लाख रुपये प्रति एकड़ की पूरी कृषि ऋण माफी के साथ 50,000 रुपये सूखा मुआवजे की मांग को लेकर ठाणे से मुंबई तक मार्च किया. इस समय नासिक और मराठवाड़ा जिले के अलग-अलग हिस्सों में कई गांवों को पानी की कमी […]

वरुण गांधी
सांसद, भाजपा
fvg001@gmail.com
कुछ महीने पहले 30,000 से ज्यादा किसानों ने एक लाख रुपये प्रति एकड़ की पूरी कृषि ऋण माफी के साथ 50,000 रुपये सूखा मुआवजे की मांग को लेकर ठाणे से मुंबई तक मार्च किया. इस समय नासिक और मराठवाड़ा जिले के अलग-अलग हिस्सों में कई गांवों को पानी की कमी (औसतन 30 फीसद) का सामना करना पड़ रहा है, जबकि यहां के किसान पहले से ही कम फायदेमंद खरीफ फसलों में निवेश के चलते कर्ज तले दबे हुए हैं.
अब यहां के ग्रामीणों को मजदूरी की तलाश में रोजाना पास के शहरी इलाकों में भटकते देखा जा सकता है. पिछले कुछ वर्षों में विदर्भ और देश के बहुत से दूसरे उपेक्षित इलाकों की अपनी यात्राओं के दौरान सीमांत किसानों की खस्ता हालत और कृषि कर्ज माफी के लिए उनकी जरूरतों से मेरा सामना हुआ है. इस साल कम बारिश को देखते हुए आगामी रबी की फसल से भी कम ही उम्मीद है.
यह नयी बात नहीं है. हाल ही में बेंगलुरू में हजारों किसानों ने कृषि ऋण माफी की मांग के साथ विधानसभा का घेराव किया था. दूसरी तरफ, पंजाब के भटिंडा के दूरस्थ इलाके में सीमांत किसान राजिंदर सिंह जैसे लोग फसल के अवशेष को मशीनों की मदद से संसाधित करने के बजाय जलाने पर नेशनल मीडिया की तीखी आलोचना झेल रहे हैं; उनकी हरकत को प्रचंड विनाश की करतूत करार दिया जा रहा है. हालांकि इस तरह के तर्क देते समय, अपेक्षाकृत संपन्न राज्यों में भी मशीनीकरण अपनाने से जुड़े आर्थिक पहलू की अनदेखी कर दी जाती है.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, फसल अवशेष जलाने पर मोटे तौर पर करीब 2,500 रुपये प्रति एकड़ जुर्माना लगता है; इसकी तुलना में फसल के अवशेष प्रसंस्करण की मशीनरी के किराये, डीजल की लागत और मजदूरी सहित तकरीबन 6,000 रुपये प्रति एकड़ लागत पड़ती है.
यह देखते हुए कि वर्तमान में फसल अवशेष (पराली या फाने) का कोई आर्थिक मूल्य नहीं है और किसानों पर ऋण के लिए सख्त दबाव बनाया जाता है, इसे जलाना ही समझदारी लगता है. इस बीच, नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की 2013 की रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब में प्रति व्यक्ति औसत बकाया ऋण तकरीबन 1,19,500 रुपया है. पीटीआइ की नवंबर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब में किसानों द्वारा फसल ऋण का भुगतान नहीं करने के मामले बढ़ रहे हैं, जिस कारण कृषि क्षेत्र में एनपीए 9,000 करोड़ रुपये से अधिक हो गया है.
पंजाब जहां पर दशकों से कृषि विकास सबसे अच्छा रहा है, कृषि से जुड़ी अनिश्चितताओं से निबटने के लिए संस्थागत उपाय महत्वपूर्ण रूप से विकसित किये गयेे हैं. किसी की भी सरकार हो, सभी अक्सर संस्थागत ऋण के लिए ऋण माफी का सहारा लेती हैं; यह अलग बात है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़ी हिस्सेदारी गैर-संस्थागत ऋण (साहूकारों के ऋण) की है. कृषि संकट से निबटने के लिए व्यवस्था को फिर से दुरुस्त करना होगा.
जिला ऋण निबटान फोरम (पंजाब कृषि कर्जदारी का समाधान अधिनियम, 2016) के अलावा ऋण समझौता बोर्ड (पंजाब कर्जदारी से राहत अधिनियम, 1934 के तहत) दशकों से अस्तित्व में है, लेकिन ऐसे संस्थान फंड और प्रतिभा की कमी के कारण किसी काम के नहीं रह गये हैं.
इसके मुकाबले केरल को देखें, जहां राज्य ऋण राहत आयोग संस्थागत और गैर-संस्थागत ऋण दोनों तरह के मामले देखता है. इसके पास किसी क्षेत्र को आपदा-प्रभावित क्षेत्र घोषित करने के साथ ही सभी के लिए ऋण वसूली पर एकतरफा रोक का आदेश जारी करने का भी अधिकार है.
राज्य सरकारों को केरल मॉडल से सीख लेनी चाहिए, जिसने भरपूर फंड के साथ ऐसा ऋण राहत आयोग बनाया है, जो पहले से काम के बोझ तले दबी और उदासीन सरकारी मशीनरी पर ऐसे कामों का बोझ डालने के बजाय फौरी राहत प्रक्रिया शुरू कर सकता है.
ग्रामीण दिवालियापन की पीड़ा रहित घोषणा के लिए एक व्यापक ऋण निबटान मॉडल कानून की जरूरत है. हमें किसानों को खुद को दिवालिया घोषित करने की अनुमति देने से कतई हिचकिचाना नहीं चाहिए- निजी तौर पर किसानों के लिए नयी शुरुआत होनी चाहिए.
माइक्रो-फाइनेंस में और सुधार जरूरी हैं. हमें स्व-सहायता समूहों को प्रोत्साहित करना चाहिए, जो बचत के लिए एक सुरक्षित मौका देते हैं.
जो छोटे बैंक की तरह काम करते हैं, सदस्यों को पैसे देते हैं. इनका सकारात्मक आर्थिक प्रभाव प्रमाणित है, खासतौर से बैंकिंग की आदत डालते हुए औसत शुद्ध आय और रोजगार जैसे मानकों पर. हालांकि, बैंक स्व-सहायता समूहों को बढ़ावा देने में फायदा पहचान पाने में नाकाम रहे हैं.
स्व-सहायता समूहों के जरिये गरीबों को उधार देने में कम लागत है, और यह गलत चयन व नैतिक संकट से मुक्त है. स्व-सहायता समूह और बैंकिंग क्षेत्र के बीच का रिश्ता महत्वपूर्ण है. अध्ययनों ने दिखाया है कि आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में फेडरेशन बनाकर काम करने से स्व-सहायता समूह वित्तीय रूप से फायदेमंद हो सकते हैं और अर्थव्यवस्था को आगे ले जा सकते हैं.
पायलट प्रोजेक्ट के जरिये नियमित व निर्बाध आधारभूत आय बढ़ाना और फिर धीरे-धीरे सावधानी से लागू किया जाना सीमांत किसानों के लिए फायदेमंद होगा.
सेवा, यूनिसेफ 2014 के अध्ययन का कहना है कि नियमित बुनियादी आय होने से सीमांत किसानों को संकट में कर्ज के दुश्चक्र में फंसने के बजाय प्रभावी रूप से निबटने में मदद मिलेगी. यह बाल मजदूरी को भी कम कर सकता है, और माता-पिता को अपने बच्चों को स्कूलों भेजने के लिए प्रोत्साहित भी. इस तरह गांवों में बदलाव आयेगा और लोगों की आय में नियमित बढ़ोतरी होगी.
भारत के वित्तीय विशेषज्ञों में किसानों को दी गयी किसी भी सरकारी मदद (अनुदान, भोजन का अधिकार, ऋण माफी) की पेशकश को खारिज करने की तीव्र इच्छा दिखती है, जबकि उद्योग को छूट देने पर उनका रुख नरमी भरा होता है. हमें अपने राष्ट्रीय बजट को कृषि की दिशा में मोड़ने की जरूरत है, कृषि क्षेत्र में मांग वाले उपकरणों का सुधार कार्यक्रम (मौजूदा सिंचाई पंप की जगह एनर्जी-सेवर मॉडल लाना) लागू करना होगा.
हमें दीर्घकालिक ग्रामीण ऋण नीति को बढ़ावा देना चाहिए, जिसमें सूखे और बाढ़ की घटनाओं के प्रति लचीलापन हो. सरकार द्वारा प्रस्तावित फसल बीमा, बाजार और मौसम की अनिश्चितता के खिलाफ बीमा करने की आदत को संस्थागत बनाने की दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है. नहीं तो सीमांत किसान कर्ज में पैदा होगा, दरिद्रता में जीयेगा और इसी तरह आपदाओं से मर जायेगा.

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