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आगे आएं उदारवादी बहुसंख्यक

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com मैं नहीं समझ पाता कि कोई हिंदू, मुस्लिम या अन्य धर्मावलंबी अयोध्या में राम मंदिर बनाने का विरोध क्यों करेगा. कोई नास्तिक भी यह स्वीकार करेगा कि विशुद्ध संख्या आधारित लोकतंत्र की दृष्टि से भी ऐसे करोड़ों हिंदू हैं, जो भगवान राम के जन्मस्थली में उनका एक […]

पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
मैं नहीं समझ पाता कि कोई हिंदू, मुस्लिम या अन्य धर्मावलंबी अयोध्या में राम मंदिर बनाने का विरोध क्यों करेगा. कोई नास्तिक भी यह स्वीकार करेगा कि विशुद्ध संख्या आधारित लोकतंत्र की दृष्टि से भी ऐसे करोड़ों हिंदू हैं, जो भगवान राम के जन्मस्थली में उनका एक मंदिर बनाकर उन्हें सम्मानित करना चाहते हैं.
ऐसे व्यक्ति, जो नास्तिक तो नहीं हैं, किंतु यह यकीन करते हैं कि एक मंदिर निर्माण पर व्यय होनेवाली धनराशि से कोई अस्पताल या स्कूल बनाना उसका बेहतर उपयोग हो सकता है, विवेकहीनता का ही परिचय दे रहे हैं. पहली बात तो यह कि यह कोई यह या वह का मामला नहीं है; हमें अस्पतालों-स्कूलों की जरूरत तो है, पर आस्थावानों को पूजास्थलों की भी जरूरत है.
भगवान राम असीम प्रेम तथा श्रद्धा के पात्र रहे हैं. वे मर्यादा की प्रतिमूर्ति हैं. चाहे वाल्मीकि रचित रामायण हो, कंबन रचित रामायण हो अथवा तुलसीकृत अत्यंत लोकप्रिय रामचरितमानस, वे केवल साहित्यिक प्रतिभा की उपज नहीं, बल्कि अत्यंत धार्मिक ग्रंथ हैं.
जब एक हिंदू की मृत्यु होती है, तो उसके शव को अग्निसंस्कार के लिए ले जाते हुए लोग ‘राम नाम सत्य है’ का उद्घोष किया करते हैं. महात्मा गांधी, जो स्वतंत्र भारत को ‘रामराज्य’ जैसा सत्यनिष्ठ बनाना चाहते थे, जब हत्यारे की गोलियों का शिकार बने, तो उनके मुख से निकलनेवाले अंतिम शब्द ‘हे राम’ ही थे.
सो, अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का कोई भी दीर्घकालीन विरोध नहीं हो सकता. सवाल सिर्फ यही किया जा सकता है कि इसे कैसे बनाया जाये, क्योंकि जिस स्थल पर इसे बनाया जाना है और जहां एक पूर्ववर्ती राम मंदिर विद्यमान था, वहां बाबर के वक्त बाबरी मस्जिद के नाम से एक मस्जिद बना दी गयी.
वर्ष 1992 में उस मस्जिद को नष्ट कर दिया गया, जो निंदनीय था, मगर उस भूमि की मिल्कियत का मामला अभी भी हिंदू एवं मुस्लिम समूहों के बीच विवादित है. वर्तमान में यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, जिस पर जनवरी में सुनवाई शुरू होनेवाली है.
साधारणतः सभी इस बात पर सहमत रहे हैं कि इस विवाद का निबटारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले से या सभी हितधारकों के बीच आपसी सहमति से होना चाहिए. यही इस बिंदु से आगे बढ़ने का सभ्य तरीका है और यह श्रीराम से संबद्ध मर्यादा के अनुरूप भी होगा. वैसे इस प्रश्न पर कि क्या आस्था का कोई मुद्दा किसी विधिक हस्तक्षेप से अंतिम रूप से सुलझाया जा सकता है, मेरे अपने संदेह हैं.
अदालत मिल्कियत का फैसला कर सकती है, हालांकि वह भी विरोधी साक्ष्यों की विपुलता की वजह से आसान नहीं होगा, जिसका अधिकांश किसी न्यायिक प्रकृति का नहीं है. पर यदि एक फैसला आ भी गया, जिसे इस अथवा उस पक्ष के विरुद्ध माना गया, तो क्या वह इस विवाद का अंतिम समाधान माना जा सकेगा?
ऐसे में समाधान का दूसरा विकल्प कहीं बेहतर है. इस कटु तथा भेदकारी प्रश्न को पीछे छोड़ने का एक आदर्श रास्ता संवाद ही है. परंतु इस हेतु दोनों पक्षों के लिए यह आवश्यक होगा कि वे अपने गैर-लचीले कट्टर तत्वों को नियंत्रण में रखते हुए कोई समझौतावादी रास्ता तलाश करें.
एक तरीका यह हो सकता है कि मुस्लिम किसी वैकल्पिक स्थल पर एक मस्जिद के निर्माण हेतु तैयार हो जाएं, जबकि हिंदू यह घोषित कर दें कि काशी, मथुरा या इसी तरह के अन्य विवाद समाप्त समझे जाएं. बाबर द्वारा निर्मित मस्जिद का इसके अलावा कोई विशिष्ट महत्व नहीं है कि यह मुस्लिमों द्वारा भारत पर आक्रमण के बाद बनाये गये अनेक मस्जिदों में एक है. चूंकि इस मस्जिद को वर्ष 1992 में निंदनीय तरीके से नष्ट कर डाला गया, सिर्फ इसलिए इसने अहमियत हासिल कर ली.
पर यह इतिहास का एक कलंक है, जिससे सबक सीखा जाना चाहिए कि ऐसी घटनाएं फिर कभी नहीं होने पाएं. अभी तो हमें वर्तमान की जरूरतों पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि जब तक यह विवाद अनसुलझा रहेगा, हिंदू तथा मुस्लिम दोनों पक्षों के अतिवादी तत्वों को खुराक मिलती रहेगी.
हिंदुओं के लिए राम के जन्मस्थल का अत्यंत विशिष्ट महत्व है, चाहे इसे ऐतिहासिक दृष्टि से साबित किया जा सकता हो अथवा नहीं. यदि मुस्लिम अयोध्या में ही किसी अन्य स्थल पर मस्जिद निर्माण के बदले इस स्थल पर मंदिर बनने देने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो यह एक शानदार भंगिमा होगी.
पर इसके लिए मुस्लिम उदारवादी मत को आगे आकर डटते हुए मुट्ठीभर मौलवियों तथा उलेमाओं के उस शिकंजे को तोड़ना होगा, जिसने अभी इस मामले पर उन्हें जकड़ रखा है. लाख टके का सवाल यह है कि क्या उदारवादी मुस्लिम आवाजें इस हकीकत के मद्देनजर इस पहलकदमी के लिए तैयार होंगी कि हिंदुओं एवं मुस्लिमों की बहुसंख्या अपने समुदायों के कट्टरवादियों को हाशिये पर डालते हुए इस विवाद को समाप्त कर, अपनी अमन-चैन भरी जिंदगियां जीने की इच्छुक है.
हालांकि मेरे परिचित मुस्लिमों की एक बड़ी तादाद ऐसे समाधान की संभावना के प्रति अपनी सहमति व्यक्त करती है, पर यह खेद का विषय है कि उनमें से बहुत कम इसे खुले रूप से उजागर करने को तैयार हैं.
यह सच है कि एक ऐसा समुदाय जो हिंदू अतिवादियों के भड़काऊ बयानों तथा डरावनी हरकतों से प्रायः घिरा हुआ महसूस करता है, भय की मानसिकता से ग्रस्त हो सकता है. पर यह सवाल तो अब भी प्रासंगिक है कि मुस्लिम उदारवादी कहां हैं? जावेद अख्तर, शबाना आजमी और शाहिद सिद्दीकी जैसे कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़कर, ऐसे अधिकतर लोगों ने चुप्पी साधी हुई है और उन रूढ़िवादी मुल्लाओं के लिए मैदान खाली रख छोड़ा है, जो कुछ टीवी चैनलों पर साभिप्राय नुमाया होते रहते हैं.
यही वक्त है कि जिन मुस्लिमों का इस विवाद को जारी रखने में कोई भी निहित स्वार्थ नहीं है, ज्यादा नमूदार हों और यदि संभव हो, तो संगठित हों. हिंदुओं के लिए भी यह सही समय है कि वे कट्टरवादी सीमांत समूहों का मजबूती से खंडन करते हुए, इस प्रक्रिया को सुगम बनाएं.
जब हिंदुओं तथा मुस्लिमों के बीच से विवेकवान लोग साथ आयेंगे, तभी हमें राम मंदिर के मुद्दे का समाधान मिल सकेगा. लगता है कि ऐसा करने की सर्वोत्तम राह यही है कि संवाद की प्रक्रिया उन लोगों से दूर ले जायी जाए, जिनकी प्रासंगिकता सिर्फ इसी में है कि यह विवाद अनसुलझा ही बना रहे.

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