27.2 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

मिले भूख से आजादी

मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आइएफपीआरआइ) ने विश्व का भूख सूचकांक प्रकाशित किया है. इस सूचकांक के अनुसार 119 देशों की लिस्ट में भारत 103 नंबर पर है और दक्षिणी कोरिया एवं बांग्लादेश से भी पीछे है. भारत की ऐसी बदहाली क्यों है? इससे बाहर निकलने का क्या […]

मनींद्र नाथ ठाकुर

एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आइएफपीआरआइ) ने विश्व का भूख सूचकांक प्रकाशित किया है. इस सूचकांक के अनुसार 119 देशों की लिस्ट में भारत 103 नंबर पर है और दक्षिणी कोरिया एवं बांग्लादेश से भी पीछे है. भारत की ऐसी बदहाली क्यों है? इससे बाहर निकलने का क्या उपाय हो सकता है? क्या इसके लिए समाज को भी जागरूक करना जरूरी नहीं है?
पहले इस सूचकांक को समझ लें. इस बनाने के लिए चार तरह की सूचनाओं को एक साथ एकत्रित किया गया है: अपर्याप्त भोजन आपूर्ति, बच्चों की मृत्यु दर और कुपोषण.
इस तरह की सूचनाओं को चार तरह के सूचक में बांटकर इस सूचकांक को बनाया जाता है: अपर्याप्त कैलोरी के कारण होनेवाले कुपोषण, पांच साल तक की उम्र के ऐसे बच्चों की संख्या जिनका कुपोषण के कारण उनकी ऊंचाई के अनुसार वजन कम है, बच्चों की संख्या जिनकी कुपोषण के कारण ऊंचाई उम्र के हिसाब से कम है और बच्चों की मृत्यु दर. इसलिए इस सूचकांक में नीचे होने का अर्थ है कि हमारा देश जिस बात को अपनी ताकत समझ रहा वहीं, इसकी स्थिति गंभीर बनी हुई है.
हम समझते हैं कि हमारे देश के बच्चों की संख्या आनेवाले समय में दूसरे देशों से आर्थिक रूप से सक्रिय जनसंख्या में हमें आगे ले जायेगी और यह हमारी बड़ी ताकत होगी. लेकिन यदि यह जनसंख्या बीमार और लाचार लोगों की हो जाये, तो यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी भी हो जायेगी. इस सूचकांक के आने से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि विकास के जो दावे हम बढ़-चढ़कर कर रहे हैं, उसमें सच्चाई केवल आंशिक है. इतने वर्षों तक जिस जीडीपी और प्रतिव्यक्ति आय को हम विकास का मानक मानते रहे हैं, उससे हमारे समाज के बारे में शायद ही कुछ पता चलता है.
अंतरराष्ट्रीय शक्ति बन पाने का हमारा सपना केवल सपना रह जायेगा, यदि हम इस समस्या का सही निदान नहीं निकाल सके. अच्छा तो यह हो कि राज्य सरकारें भी इस तरह का कोई सूचकांक बनायें, ताकि भारत के अंदर भी विषमताओं को ठीक से समझा जा सके.
इस रिपोर्ट के अनुसार भारत की स्थिति पहले से भी बदतर हो गयी है. हम कुछ और सीढ़ी लुढ़क गये हैं. आनेवाले समय में यदि कुछ नहीं किया गया, तो स्थिति और भी बदतर हो सकती है. क्या इसका यह अर्थ भी निकाला जाना चाहिए कि हमारा विकास समावेशी नहीं है? इस विकास का फल केवल ऊपर के हिस्सों में ही बंट जा रहा है?
क्या यह नहीं समझना चाहिए कि विकास का मॉडल जो नव उदारवादी आर्थिक नीतियों ने हमें दिया है, यह उसका ही दुष्परिणाम है? विकास के इस मॉडल में एक तरफ संपत्ति और दूसरी तरफ गरीबी जमा हो रही है. नव उदारवादी आर्थिक चिंतन में विकास का मापदंड कुछ ऐसा बना है कि समावेशी विकास को उसमें कोई महत्व नहीं मिल पाता है.
मजदूरों से संबंधित कानून, हर सुविधा को बाजार के द्वारा संचालित करने की जिद और उत्पादन के अनौपचारिक क्षेत्रों का विकास आदि कुछ ऐसी नीतियां हैं कि इसमें लोगों की सामाजिक सुरक्षा खतरे में रहती है. यदि यह हालत सामान्य लोगों की है, तो गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की स्थिति क्या हो सकती है? इस सूचकांक में भारत की यह हालत इस बात का द्योतक भी है कि यहां की आर्थिक स्थिति जैसी है, उसमें लोक कल्याणकारी राज्य के अलावा कोई सुरक्षा यथेष्ट नहीं है.
नव उदारवादी नीतियों ने भारतीय राज्य के लोक कल्याणकारी स्वरूप को जो झटका दिया है, यह उसी का परिणाम है. यह बात सरकारों को समझ लेना होगा कि राष्ट्र का हित संविधान के उन नीति-निर्धारक नीतियों का पालन करने में ही है, जिसने भारतीय समाज को वर्षों तक पूंजीवादी वर्चस्व से बचाये रखा. सच तो यह है कि अब नीति-निर्धारक नीतियों को प्रमुखता देने का समय आ गया है.
भारत को इस समस्या से निजात पाने के लिए कई आयामों पर एक साथ काम करने की जरूरत है. सबसे पहले तो भूख से आजादी का जिम्मा सरकारों को लेना होगा और शहर-शहर और गांव-गांव में ‘अम्मा-रसोई’ जैसी व्यवस्था करनी होगी, जिसमें संतुलित आहार हर बच्चे को न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध हो सके.
हो सकता है इस काम में कुछ खर्च भी आये, इसके लिए सरकारों को तैयार होना चाहिए कि अन्य अपव्यव्य को कम करके इस काम को किया जाये. इसके साथ ही जितनी भी स्वयंसेवी संस्थाएं भारत में काम करती हैं, उन्हें यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि अपने कार्यक्षेत्र में इसकी व्यवस्था जनसहयोग से करें. इसका एक अच्छा उदाहरण पलामू में काम करनेवाले एक स्वयंसेवी संस्था ‘चक्रिय विकास योजना’ ने प्रस्तुत किया था.
इस संस्था के निदेशक ने इस प्रयोग के तहत दूध और फल का भरपूर उत्पादन किया था और यह घोषणा की थी कि इसे बेचा नहीं जायेगा, बल्कि बच्चों और बुजुर्गों में बांटा जायेगा. भोपाल के एक स्वयंसेवी संस्था ने भी केवल पांच रुपये में भरपेट संतुलित आहार देने का काम शुरू किया है. हालांकि, इस एक प्लेट की लागत तो बीस से पच्चीस रुपये तक है.
बाकी पैसे समाज के सहयोग से उपलब्ध हो रहा है. तमाम धार्मिक संस्थाओं से अनुरोध किया जाना चाहिए कि नियमित रूप से बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था उनके द्वारा की जाये. इस सबके लिए यदि राज्य को कुछ कानून भी बनाने की जरूरत पड़े, तो बनाना चाहिए. इसके अलावा, शादी – व्याह में जो खाने की बर्बादी हो रही है, उसे भी रोकने की जरूरत है. उस खर्चे में कटौती कर इस काम के लिए धन उपलब्ध कराने की जरूरत है.
यह काम कठिन तो है, लेकिन मुश्किल नहीं है. इसे राष्ट्रीय आपदा की तरह देखा जाना चाहिए और समाज को इसमें सहयोग करना अपना नैतिक दायित्व समझना चाहिए. शायद अब भी कोई राष्ट्रीय नेतृत्व इतना प्रभावकारी हो, जिसके आह्वान पर लोग अपने खाने से एक मुट्ठी अनाज जरूरतमंद बच्चों के लिए जमा कर सकें और अपने मानवीय नैतिक दायित्व का पालन कर सकें.
मुझे मालूम है कि इन बातों को सुनकर कोई भी कह सकता है कि भारत में तो ऐसी अनेक समस्याएं हैं, आखिर किस-किस के लिए क्या-क्या किया जा सकता है.
लेकिन, मैं इस बात को स्पष्ट करना चाहता हूं कि भारत की और कोई भी समस्या इतनी गंभीर और अनैतिक नहीं है. यहां तो उन बच्चों की जिंदगी का सवाल है, जिन्हें इस ‘धनी देश’ में भोजन नसीब नहीं है, और जो जीवनभर विकलांगता में जीने के लिए बाध्य हैं. हमें इसका नैतिक दायित्व तो लेना ही होगा.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें