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अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org भारत के आर्थिक विकास की गति इस वर्ष भी चीन से आगे निकल विश्व में अव्वल आनेवाली है. मुद्रास्फीति को समायोजित करके भी हमारे जीडीपी की वास्तविक वृद्धि दर 7 प्रतिशत से ऊपर रहनेवाली है, जबकि इस पैमाने पर चीन 6.5 प्रतिशत से भी नीचे खिसक सकता है. […]

अजीत रानाडे

सीनियर फेलो,

तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

editor@thebillionpress.org

भारत के आर्थिक विकास की गति इस वर्ष भी चीन से आगे निकल विश्व में अव्वल आनेवाली है. मुद्रास्फीति को समायोजित करके भी हमारे जीडीपी की वास्तविक वृद्धि दर 7 प्रतिशत से ऊपर रहनेवाली है, जबकि इस पैमाने पर चीन 6.5 प्रतिशत से भी नीचे खिसक सकता है. आर्थिक विकास देश के नागरिकों के जीवन स्तर में वृद्धि का कारक होता है और यह वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य के अलावा बुनियादी ढांचे एवं यहां तक कि सुरक्षा तथा प्रदूषण नियंत्रण जैसी सामाजिक बुराइयों पर होनेवाले खर्च की भी माप करता है.

जीडीपी के साथ ही हमें लोगों के जीवन में आये वास्तविक सुधार को भी मापने की जरूरत होती है, जिन्हें मानव विकास सूचकों के आधार पर तौला जाता है. इनमें सर्वाधिक उपयोगी सूचक मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) है, जिसे भारतीय नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन तथा पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब-उल-हक ने वर्ष 1980 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के तत्वावधान में विकसित किया था.

एचडीआई के पूर्व इस कार्य के लिए ‘जीवन की भौतिक गुणवत्ता सूचकांक’ (पीक्यूएलआई) नामक सूचक का इस्तेमाल किया जाता था. पीक्यूएलआई पूरी तरह परिणामों पर गौर करते हुए आय तथा जीडीपी की पूर्ण उपेक्षा कर देता था. मगर एचडीआई प्रतिव्यक्ति जीडीपी, जीवन प्रत्याशा और साक्षरता के तीन सूचकों पर आधारित है तथा इसके नतीजे को 0 से 1 तक की संख्या के रूप में प्रदर्शित किया जाता है.

एचडीआई के पैमाने पर पहली वैश्विक रिपोर्ट 1990 में प्रकाशित हुई. इस सूचकांक के साथ एक उल्लेखनीय बात यह है कि इसके नतीजे को अत्यंत छोटे स्तर के लिए भी प्रदर्शित किया जा सकता है.

हम किसी एक देश, राज्य, शहर अथवा एक गांव का भी एचडीआई माप सकते हैं और इस पर सिर्फ एक लिंग अथवा किसी खास आयुवर्ग के प्रदर्शन की माप भी की जा सकती है. इसकी गणना पद्धति सरल एवं वस्तुपरक है तथा वह इसे कई अवधियों, देशों, क्षेत्रों अथवा उपसमूहों के बीच तुलना के योग्य भी बनाती है. वर्ष 2010 से यूएनडीपी एचडीआई को किसी देश की आंतरिक असमानता के लिए समायोजित करती रिपोर्ट प्रकाशित करता आ रहा है, जिसे आईएचडीआई कहते हैं.

अब इसे किसी देश की जीडीपी यानी उसके द्वारा उत्पादित आय तथा वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य से आगे बढ़कर इसका पैमाना भी माना जाता है कि उसके नागरिक कितने स्वस्थ हैं, उसके बच्चे कितने शिक्षित हैं.

इस वर्ष भारत का आईएचडीआई 0.64 यानी पिछले वर्ष से थोड़ा अधिक है, पर 189 देशों में हम श्रीलंका (76वां स्थान) से नीचे और बांग्लादेश (136वां स्थान) से कुछ ही ऊपर 130वें पायदान पर हैं. यह रिपोर्ट लगभग तीस वर्षों से प्रकाशित हो रही है और इस दौरान भारत के प्रदर्शन में तकरीबन 50 प्रतिशत का सुधार आया है.

हमारी जीवन प्रत्याशा में जहां 11 वर्षों की बढ़ोतरी हुई है, वहीं औसत विद्यालयी शिक्षा में प्रति बच्चा लगभग पांच वर्ष की वृद्धि दर्ज की गयी है. वर्ष 1990 की तुलना में हमारी प्रतिव्यक्ति आय, क्रयशक्ति की भिन्नता को शामिल करते हुए भी, मोटे तौर पर 300 प्रतिशत बढ़ी है.

इस तरह यह तो साफ है कि आय की दृष्टि से भारत का प्रदर्शन अच्छा है, पर पड़ोसी श्रीलंका से तुलना करें, तो हम इस बढ़ोतरी को स्वास्थ्य तथा साक्षरता के तदनुरूप लाभ में नहीं बदल सके हैं. यदि भारत के प्रदर्शन को असमानता के लिए समायोजित कर दें, तो यह 0.64 से गिरकर 0.47 पर आ जाता है, जिसका अर्थ यह है कि हमारे प्रदर्शन की बेहतरी हमारी आबादी के एक छोटे हिस्से तक सीमित रह गयी है. दूसरी ओर, श्रीलंका के प्रदर्शन में असमानता के लिए समायोजन के बाद भी सिर्फ 0.11 अंकों का फर्क पड़ता है.

पिछले ही सप्ताह विश्व बैंक ने भी अपनी पहली ‘मानव पूंजी सूचकांक’ (एचसीआई) रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसने 157 देशों की सूची में भारत को नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार से नीचे 115वां स्थान दिया. यह निश्चित ही चिंताजनक था और भारत सरकार ने इस रिपोर्ट के औचित्य, उपयोगिता तथा गणना विधि पर अपनी आपत्तियां जतायीं.

एक ओर जब हम विश्व बैंक द्वारा ही प्रकशित कारोबारी सुगमता रिपोर्ट में अपने प्रदर्शन के सुधार पर गौरवान्वित होते हैं, तो फिर उसी की एचसीआई रिपोर्ट में अपने निचले स्थान को लेकर आपत्ति करना एक विसंगति ही है. अंततः ये तुलनाएं अन्य देशों की बजाय हमारे खुद के ही प्रदर्शन से हुआ करती हैं. सो हमारे लिए यही श्रेयस्कर होगा कि हम अपनी व्यवस्था की खामियों पर गौर करें. इसमें कोई शक नहीं कि भारत ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में ठोस निवेश किया है.

लेकिन, अभी और काफी कुछ करने की जरूरत है. केवल आवंटन अथवा स्कूलों के अधिक भवनों और शौचालयों के लिए ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, सीखना, पढ़ पाना, गणित, व्यावसायिक शिक्षा आदि के क्षेत्र में भी विपुल सुधार लाने की आवश्यकता है, ताकि हमारे युवा भविष्य की जरूरतों के उपयुक्त बन सकें. और अंत में, आय, संपत्ति तथा एचडीआई में बढ़ती असमानता की अब और अधिक अनदेखी नहीं की जा सकती. ये दोनों रिपोर्टें हमसे अपनी प्राथमिकताएं दुरुस्त करने की मांग करती हैं.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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