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अपने तरीके सुधारें दोनों पक्ष

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com राफेल सौदे में कुछ स्पष्टता की आवश्यकता जरूर महसूस होती है. इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय वायुसेना को आधुनिक लड़ाकू विमानों की बहुत जरूरत है और उन्हें हासिल करने जैसे हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा से संबद्ध अहम फैसले टालते जाने की यूपीए सरकार और उसमें भी उसके […]

पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
राफेल सौदे में कुछ स्पष्टता की आवश्यकता जरूर महसूस होती है. इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय वायुसेना को आधुनिक लड़ाकू विमानों की बहुत जरूरत है और उन्हें हासिल करने जैसे हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा से संबद्ध अहम फैसले टालते जाने की यूपीए सरकार और उसमें भी उसके रक्षा मंत्री एके एंटनी की प्रवृत्ति की वजह से इसमें बहुत देर हो गयी.
पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा दिसंबर, 2012 में जिस सौदे की बातचीत की गयी, उसमें कीमत तथा रणनीतिक जरूरतों के लिहाज से राफेल सबसे स्वीकार्य समझा गया था. इस सौदे के अंतर्गत 18 विमान तो फ्रांस से उड़कर ही आने थे, जबकि 118 विमानों का निर्माण हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) द्वारा भारत में ही किया जाना था. मार्च, 2014 में पक्के किये गये इस करार की कुल लागत 36 हजार करोड़ रुपये थी, जिसके अंतर्गत सार्वजनिक की गयी प्रति विमान की कीमत 526.1 करोड़ रुपये थी.
यह भी एक सच्चाई है कि अप्रैल 2015 के अपने फ्रांसीसी दौरे के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्ववर्ती करार को रद्द करते हुए यह घोषणा की कि कुल 1670 करोड़ रुपये प्रति विमान की लागत पर 36 विमान सीधे तैयार हालत में खरीदे जायेंगे.
यह नयी दर पहले वाले सौदे से मोटे तौर पर तीन गुना अधिक थी. दासौं एविएशन के वर्ष 2016 की वार्षिक रिपोर्ट में दर्ज होने की वजह से इस कीमत की जानकारी सार्वजनिक डोमेन में है. पुनरीक्षित सौदे के अंतर्गत भारतीय साझीदार के रूप में एचएएल को छोड़ दिया गया. फिर दासौं ने बहुत सारी भारतीय कंपनियों से साझीदारी के समझौते किये, जिनमें अनिल अंबानी का रिलायंस समूह सर्वप्रमुख था.
अब विपक्ष सरकार से यह पूछ रहा है कि नये सौदे में क्यों इसकी कीमत तीन गुनी अधिक हो गयी. विपक्ष यह भी जानना चाह रहा है कि क्यों एचएएल द्वारा निर्माण के विकल्प को छोड़ साझीदारों के रूप में कई अन्य कंपनियों के साथ रिलायंस समूह को चुना गया.
सरकार का उत्तर है कि यह एक अंतर-सरकारी करार था, जिसमें कोई भी बिचौलिया शामिल नहीं था; विमान में लगायी गयी अत्याधुनिक शस्त्र प्रणालियों तथा उपकरणों को देखते हुए उसकी कीमत वस्तुतः सस्ती है और दासौं द्वारा अपने साझीदारों के रूप में अन्य कई कंपनियों के साथ रिलायंस समूह के चयन में सरकार की कोई भूमिका नहीं थी.
इन दो बिल्कुल विपरीत नजरिये के मध्य एक पूर्ण युद्ध जैसे हालात बने हैं. विपक्ष की कोशिश है कि भ्रष्टाचार, पारस्परिक लाभ एवं रक्षा खरीद प्रक्रियाओं के उल्लंघन के आरोप लगाकर राफेल को वर्तमान सरकार का ‘बोफोर्स’ बना दिया जाये.
सच तो यह है कि विपक्ष के आरोपों में यदि सच्चाई हो, तो भी उनका प्रचार कर वह कोई बहुत अच्छा काम नहीं कर रहा. सामान्य जन के लिए विपक्ष का यह नजरिया स्वीकार्य नहीं हो सका है कि रक्षा सौदों में भारी गड़बड़ी हुई है. न तो यह कोई राष्ट्रीय मुद्दा बन सका है, न ही यह उस स्तर के निकट पहुंच सका है, जहां बोफोर्स को ले जाया गया था और न ही प्रधानमंत्री या उनकी सरकार की विश्वसनीयता पर उनका कोई असर पड़ता दिखता है.
सरकार भी अपना बचाव भलीभांति करती नजर नहीं आती. गोपनीयता के नियम का हवाला देकर इन विमानों की पुनरीक्षित कीमत उजागर न करने की उसकी शुरुआती कोशिश शायद ही विश्वसनीय थी, क्योंकि ज्यादातर जानकारियां तो पहले ही सार्वजनिक हो चुकी हैं
उसके द्वारा एक के बाद दूसरे विरोधाभासी बयानों से यह धारणा ही बलवती हुई कि कहीं कुछ है, जिसे वह छिपा रही है. पहले तो यह कहा गया कि इस मामले में सरकार की कोई भूमिका नहीं थी और यह पूरी तरह दासौं का निर्णय था.
फिर जब पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति ओलांद ने यह कह दिया कि एक साझीदार के रूप में अनिल अंबानी का चुनाव केवल भारतीय पक्ष के कहने पर ही किया गया था, तो रक्षा मंत्री ने वस्तुतः यह आरोप लगा दिया कि राहुल गांधी एवं ओलांद ने मिलकर भारत सरकार को बदनाम करने की साजिश की है. सच कहा जाये, तो एक मित्र देश के पूर्व राष्ट्राध्यक्ष पर ऐसे आरोप मढ़ देना हास्यास्पद ही है.
सरकार के लिए सबसे अच्छा रास्ता यह होगा कि वह पारदर्शिता का विकल्प चुने. यदि उसने कुछ भी गलत नहीं किया है, तो राष्ट्रीय सुरक्षा सरोकारों के मद्देनजर वह जिस सीमा तक जानकारी साझा कर सकती है, क्यों न वह उसे कर ही डाले?
जहां तक उचित हो, विमान की कीमत से संबद्ध सभी तथ्य सार्वजनिक जानकारी में लाये जाने चाहिए. राफेल की कीमत तीन गुना तक बढ़ने और किसी खास कॉरपोरेट घराने को साझीदार के रूप में चुने जाने को लेकर उपजे संदेह का विश्वसनीय तरीके से निराकरण किया जाना चाहिए और इस विषय पर किसी भी मंत्री द्वारा बोले जाने की बजाय केवल रक्षा मंत्री अथवा स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा बोला जाना चाहिए.
गोपनीयता की हर कोशिश से रक्षा घोटाले के आरोपों को बल मिलता है. यदि सरकार को अपनी निर्दोषिता का इतना ही भरोसा है, तो यह एक संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) द्वारा इसकी जांच को भी तैयार हो सकती है. इसे पहले भी जेपीसी गठित की जा चुकी है और खुद भाजपा ही इसकी सबसे अधिक मांग करती रही है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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