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खेती और गांव की बदहाली

डॉ अश्विनी महाजन एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू ashwanimahajan@rediffmail.com नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नबार्ड) ने अखिल भारतीय ग्रामीण समावेशी वित्तीय सर्वेक्षण, 2016-17 की रिपोर्ट में जो आंकड़े जारी किये हैं, इससे पता चलता है कि कृषि में संलग्न गृहस्थों की आमदनी में खेती और सहायक गतिविधियों जैसे पशुपालन इत्यादि से मात्र 43 प्रतिशत ही […]

डॉ अश्विनी महाजन

एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू

ashwanimahajan@rediffmail.com

नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नबार्ड) ने अखिल भारतीय ग्रामीण समावेशी वित्तीय सर्वेक्षण, 2016-17 की रिपोर्ट में जो आंकड़े जारी किये हैं, इससे पता चलता है कि कृषि में संलग्न गृहस्थों की आमदनी में खेती और सहायक गतिविधियों जैसे पशुपालन इत्यादि से मात्र 43 प्रतिशत ही आमदनी मिलती है, जबकि शेष 57 प्रतिशत आय नौकरी, मजदूरी, उद्यम इत्यादि से प्राप्त होती है.

ऐसे गृहस्थ जो कृषि में संलग्न नहीं है, उन्हें औसतन कुल आमदनी का 54.2 प्रतिशत मजदूरी से, 32 प्रतिशत सरकारी और निजी नौकरियों से और मात्र 11.7 प्रतिशत उद्यम से प्राप्त होता है. यदि कृषि और गैर-कृषि गृहस्थों को मिला दिया जाये, तो ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 23 प्रतिशत ही आमदनी कृषि से हो रही है और शेष 77 प्रतिशत मजदूरी, सरकारी-निजी नौकरियों और उद्यम से प्राप्त होता है.

ग्रामीण क्षेत्रों में भी कृषि से प्राप्त योगदान बहुत कम है, यानी ग्रामीण क्षेत्रों में आय की दृष्टि से खेती-बाड़ी हाशिये पर है. हालांकि, गैर-कृषि क्षेत्रों में आमदनियां बढ़ी हैं, लेकिन सिर्फ शहरों में. ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि उद्यमों से कुल आमदनी मात्र 8.4 प्रतिशत ही है. यानी गांवों में लोग थोड़ी-बहुत आय खेती से प्राप्त करते हैं, मजदूरी और सरकारी-निजी क्षेत्रों में नौकरी से ग्रामीण गृहस्थों को 67.1 प्रतिशत प्राप्त होता है.

हालांकि, किन्हीं दो स्रोतों से आंकड़ों की तुलना करना उचित नहीं जान पड़ता, फिर भी गांवों और शहरों की तुलना के लिए मात्र यही एक माध्यम बचता है, क्योंकि केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) गांवों और शहरों की आय के आंकड़े नियमित प्रकाशित नहीं करता.

नबार्ड के सर्वेक्षण 2016-17 के अनुसार भारत में कुल 21.17 करोड़ गृहस्थ (परिवार) हैं. ग्रामीण को इस प्रकार से परिभाषित किया है, जिसमें राजस्व की दृष्टि से गांव और उपशहरों, जिनकी संख्या 50 हजार से कम है, को शामिल किया गया है.

इन 21.17 करोड़ कुल गृहस्थों में 10.07 करोड़ यानी 48 प्रतिशत कृषि-गृहस्थ हैं, जिसमें वो गृहस्थ शामिल हैं, जिनके कम-से-कम एक सदस्य की कृषि से आमदनी सालाना 5,000 रुपये से ज्यादा है. शेष 11.10 करोड़ गृहस्थ यानी 52 प्रतिशत गैर-कृषि गृहस्थ हैं. नबार्ड सर्वेक्षण में ग्रामीण गृहस्थों की औसत आय 8,059 रुपये मासिक बतायी गयी है. यानी 2016-17 में ग्रामीण गृहस्थों (21.17 करोड़) की कुल आय 20.5 लाख करोड़ रुपये है. केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016-17 में कुल राष्ट्रीय आय 135 लाख करोड़ रुपये बतायी गयी.

यदि इसमें से ग्रामीण आय घटा दी जाये, तो वर्ष 2016-17 में शहरी क्षेत्र की कुल राष्ट्रीय आय 114.5 लाख करोड़ रुपये होगी. वर्ष 2016-17 में गांवों की प्रतिव्यक्ति आय 22,702 रुपये वार्षिक ही रही, जबकि शहरी प्रतिव्यक्ति आय 2,79,609 रुपये रही. इसका अभिप्राय यह है कि शहरी प्रतिव्यक्ति आय ग्रामीण प्रतिव्यक्ति आय से 12.3 गुना ज्यादा है.

कुछ वर्ष पहले तक शहरी प्रतिव्यक्ति आय ग्रामीण प्रतिव्यक्ति आय से 9 गुणा ज्यादा थी. 2016-17 तक आते-आते यह अंतर 12.3 गुणा तक पहुंच गया है. यह शहर और गांव के बीच बढ़ती खाई चिंता का विषय है और नीति-निर्माताओं के लिए एक चुनौती भी.

यह गांवों से शहरों की ओर पलायन का कारण भी है और गांवों में बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी का संकेत भी. हमें इसके कारण भी खोजने होंगे और उनका समाधान भी करना होगा. पूरे देश की जीडीपी में खेती और सहायक गतिविधियों का हिस्सा 1951 में 55.4 प्रतिशत था, जो 1991 आते-आते मात्र 25 प्रतिशत रह गया और 2016-17 में तो यह 17.4 प्रतिशत पहुंच गया.

जाहिर है खेती से होनेवाली किसान की आमदनी घटती गयी और 2016-17 का नबार्ड सर्वेक्षण बता रहा है कि गांवों में खेती से होनेवाली आमदनी गांवों के कुल आमदनी का भी मात्र 23 प्रतिशत ही रह गया. अब गांवों में रहनेवाले लोग गांवों में मजदूरी या शहरों में नौकरी कर के ज्यादा पैसा कमा रहे हैं. सरकार द्वारा शुरू की गयी परियोजनाओं और मनरेगा से गांवों में रहनेवालों को रोजगार मिल रहा है.

हालांकि, एक बड़ी मात्रा में खेती में भी मजदूरों के लिए रोजगार निर्माण होता है, लेकिन इन रोजगारों और गांवों में रहनेवाले लोग जो सरकारी या निजी नौकरियों में लगे हुए हैं, उनकी आमदनियों को जोड़ते हुए भी ग्रामीण क्षेत्रों की यह बदहाली बड़े नीतिगत बदलावों की ओर इंगित करती है.

गांवों में बसे उन 11.1 करोड़ परिवारों यानी 47.4 करोड़ लोगों की हालत को भी बेहतर बनाना होगा, जो किसान परिवारों से भी पिछड़े हुए हैं और जिनकी प्रतिव्यक्ति मासिक आय मात्र 7,269 रुपये ही है.

इनकी हालत को सुधारने के लिए गांवों में विभिन्न प्रकार के खाद्य प्रसंस्करण उद्योग शुरू कर, पशुपालन, मुर्गीपालन, मत्स्य पालन, मशरूम उत्पादन, बांस के उत्पादों का विकास और अन्यान्य प्रकार से गैर-कृषि कार्यों को बढ़ावा देने का प्रयास किया जा सकता है.

भूमिहीन लोगों के लिए भी सस्ते ऋण उपलब्ध कराना बेहतर नीति होगी. समझना होगा कि गांवों से लोगों को बाहर कर देश का विकास नहीं हो सकता. सभी को जो जहां हैं, जैसे हैं, के आधार पर रोजगार उपलब्ध कराना होगा.

सरकार द्वारा रोजगार गारंटी सबकी आमदनी बढ़ाने का साधन नहीं बन सकती. गांवों में उद्यमशीलता के विकास की जरूरत है. किसान खेती-किसानी के अलावा उद्यम चलायें और भूमिहीन लोग भी उद्यमशीलता में आगे बढ़ें, तभी गांवों की आमदनी बढ़ सकती है.

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