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Friday, March 29, 2024

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बुजुर्गों को बोझ न समझें

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in पिछले दिनों एक तस्वीर वायरल हुई, जिसमें एक वृद्ध महिला एक बच्ची से मिल कर रोती हुई दिखायी दे रही है. शायद आप तक भी पहुंची हो. यह तस्वीर किसी को भी भावुक कर सकती है. सोशल मीडिया पर चली इस तस्वीर को कोई पटना का बता […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
पिछले दिनों एक तस्वीर वायरल हुई, जिसमें एक वृद्ध महिला एक बच्ची से मिल कर रोती हुई दिखायी दे रही है. शायद आप तक भी पहुंची हो. यह तस्वीर किसी को भी भावुक कर सकती है. सोशल मीडिया पर चली इस तस्वीर को कोई पटना का बता रहा है, तो कोई कोलकाता का, तो कोई वृंदावन का.
वृद्धाश्रम में रोती दादी-पोती की तस्वीर हजारों बार शेयर की जा चुकी है. इस तस्वीर पर लोग भावुक टिप्पणियां कर रहे हैं. इस तस्वीर के साथ संदेश है कि स्कूल में पढ़ने वाली एक बच्ची जब वृद्धाश्रम पहुंची तो उसे वहां अपनी दादी मिल गयी. इसके बाद दादी, पोती एक दूसरे से लिपटकर रोने लगे. यह सही है कि तस्वीर दादी-पोती की है, लेकिन यह 11 साल पुरानी है और हाल में विश्व फोटोग्राफी दिवस पर बीबीसी की वेबसाइट ने इसे प्रभावशाली तस्वीरों के रूप में इस्तेमाल किया था. वहां से यह तस्वीर वायरल हो गयी. यह तस्वीर अहमदाबाद की है और इसके फोटोग्राफर हैं कल्पित बचेच.
इस तस्वीर से जुड़ी कहानी भी सही है. बच्चों को अहमदाबाद के एक वृद्धाश्रम ले जाया गया था. फोटोग्राफर के रूप में कल्पित भी वहां मौजूद थे. हाथों में प्ले कार्ड लिए बच्चे-बच्चियां एक तरफ बैठे थे और आश्रम की महिलाएं दूसरी तरफ थीं. कल्पित ने अनुरोध किया कि अगर बच्चे और महिलाएं एक साथ बैठेंगे, तो तस्वीर अच्छी बनेगी. लेकिन इसी दौरान एक बच्ची एक वृद्धा से मिलकर जोर-जोर से रोने लगी. वहां मौजूद लोग समझ नहीं पाये कि माजरा क्या है.
पता चला कि वे तो दादी-पोती हैं और बच्ची को पता ही नहीं था कि दादी वृद्धाश्रम में रह रही है. माता-पिता ने बच्ची से झूठ बोला था कि दादी उन्हें छोड़कर गांव चली गयी है. कल्पित ने यह भावुक कर देने वाली तस्वीर 12 सितंबर, 2007 को अहमदाबाद स्थित एक वृद्धाश्रम में ली थी. तस्वीर छपने के कुछ दिनों बाद खबर आयी कि उस महिला को उसका परिवार आश्रम से ले गया, लेकिन कुछ साल बाद यह महिला फिर वापस आश्रम आ गयी थी. यह ठीक है कि तस्वीर पुरानी है. लेकिन, इस तस्वीर ने भारत में वृद्धजनों की स्थिति के संदर्भ में गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है.
भारत की एक बड़ी आबादी बुजुर्ग हो रही है. बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं ने लोगों की उम्र बढ़ा दी है. लेकिन, सामाजिक हालात बदल रहे हैं और संयुक्त परिवार का ढांचा टूट चुका है.
ऐसे में बुजुर्गों की देखभाल एक बड़ी सामाजिक समस्या के रूप में सामने आ रही है. समस्या यह है कि मौजूदा दौर में बुजुर्गों के पास जीवन का विशद अनुभव है, लेकिन युवा पीढ़ी कुछ सीखना नहीं चाहती और न ही उनकी राय को महत्व देती है. समाज का बुजुर्गों के साथ रूखा व्यवहार और उन्हें बोझ की तरह माना जाना, यह समस्या का सबसे चिंताजनक पहलू है. ऐसा अनुमान है कि भारत में अभी 6 फीसदी आबादी 60 साल या उससे अधिक की है, लेकिन 2050 तक बुजुर्गों की यह संख्या बढ़ कर 20 फीसदी तक होने का अनुमान है.
हर वर्ष अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस एक अक्टूबर को मनाया जाता है, ताकि वृद्ध लोगों के प्रति सम्मान का भाव जगे. पश्चिमी देशों में वृद्धजनों के सामने अलग किस्म की चुनौती है.
उनके लिए पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था है, जिससे उनको आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पड़ता है. उनके सामने स्वास्थ्य के अलावा मुख्य समस्या एकाकीपन की है. वयस्क होने पर बच्चे अलग रहने लगते हैं और केवल विशेष अवसरों पर ही उनसे मिलने आते हैं. कभी-कभी परिवार को आपस में मिले वर्षों गुजर जाते हैं.
जब भी मौका मिलता है, मैं अपने इस अनुभव को साझा करता हूं. बीबीसी में नौकरी के दौरान मुझे लंदन में रहने का अवसर मिला. बीबीसी बेहद प्रतिष्ठित और उदार मीडिया संस्थान है.
उस दौरान पूरे परिवार को लंदन जाने के लिए आश्रित वीजा और हवाई यात्रा का टिकट मिला तो मैंने कहा कि कि मेरी मां मुझ पर निर्भर है और मैं अकेला बेटा हूं, उन्हें भी आश्रित वीजा और यात्रा का टिकट चाहिए. बीबीसी ने बताया कि पश्चिम के सभी देशों में परिवार की परिभाषा है- पति-पत्नी और 18 साल से कम उम्र के बच्चे.
मां-बाप और 18 साल से अधिक उम्र के बच्चे परिवार का हिस्सा नहीं माने जाते. अगर आप गौर करें तो पायेंगे कि भारत में भी अनेक संस्थान और यहां तक हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियां भी परिवार की इसी परिभाषा पर काम करने लगी हैं. सामाजिक व्यवस्था में आये इस बदलाव को हमने नोटिस नहीं किया है.
दरअसल, जब भारत के ग्लोबलाइज होने का दौर शुरू हुआ था, तो इसके असर के बारे में गंभीर विमर्श नहीं हुआ. अगर वैश्वीकरण के फायदे हैं, तो नुकसान भी हैं.
यह संभव नहीं है कि आप केवल विदेशी पूंजी की अनुमति दें और संस्कृति में कोई बदलाव न आये. कुछ समय पहले तक भारत में संयुक्त परिवार की व्यवस्था थी, जिसमें बुजुर्ग परिवार के अभिन्न हिस्सा थे और उनकी देखभाल हो जाती थी. यह खंडित हो गयी. नयी व्यवस्था में परिवार एकल हो गये- पति-पत्नी और बच्चे. यह पश्चिमी देशों का मॉडल है.
इसमें माता-पिता का कोई स्थान नहीं है. मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं कि जिनके बेटे-बेटी विदेश में हैं और आर्थिक रूप से बुजुर्ग आत्मनिर्भर हैं. लेकिन वे एकाकीपन के शिकार हैं, खासकर महानगरों में जब ऐसे बुजुर्ग गंभीर रूप से बीमार पड़ते हैं तो उनकी देखरेख की कोई व्यवस्था नहीं होती.
एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के बेटे-बेटी विदेश में हैं और उन्होंने एक बार बच्चों पर चर्चा के दौरान बहुत सहज ढंग से कहा कि उन्हें मालूम है कि जब भी उनका निधन होगा, उन्हें दो दिन फ्रीजर में रहना होगा, क्योंकि विदेश से बच्चों को आने में इतना वक्त लग जायेगा. यह नये भारत की कड़वी सच्चाई है.
नयी अर्थव्यवस्था और टेक्नोलॉजी के साथ भारत भी ग्लोबल हो रहा है. लेकिन समस्या यह है कि पश्चिम के देशों में बुजुर्गों की देखभाल के लिए ओल्ड एज होम जैसी व्यवस्था है, लेकिन भारत में ऐसी कोई ठोस व्यवस्था नहीं है.
पश्चिमी देशों की आबादी कम है, छोटे देश हैं, वहां ऐसी व्यवस्था करना आसान है. भारत जैसे बड़ी आबादी और बड़े भूभाग वाले देश में ऐसी व्यवस्था करना बेहद कठिन काम है. बुजुर्ग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हुए, तो समस्या जटिल हो जाती है. उम्र के इस पड़ाव पर स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ जाता है. संगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को तो पेंशन अथवा रिटायरमेंट के बाद की अन्य आर्थिक सुविधाएं मिल जाती हैं.
असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की स्थिति सबसे अधिक चिंताजनक है. हालांकि केंद्र और राज्य सरकारें वृद्धावस्था पेंशन देती हैं, लेकिन उसकी राशि इतनी कम है कि वह नाकाफी होती है. जैसाकि अनुमान है कि आगामी कुछ वर्षों में यह समस्या और व्यापक और गंभीर होती जायेगी. मुझे नहीं लगता कि इसका समाधान सरकारों के बस की बात है, इसमें सामाजिक संस्थाओं को जुटना होगा, तभी कोई रास्ता निकल पायेगा.
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