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भारतीय और ‘हिंदू’ संस्कृति

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com पिछले दस विश्व हिंदी सम्मेलनों (नागपुर- 10-12 जनवरी 1975, मॉरीशस- 28-30 अगस्त 1976, नयी दिल्ली- 28-30 अक्तूबर 1983, मॉरीशस- 2-4 दिसंबर 1993, त्रिनिदाद एंड टोबैगो- 4-8 अप्रैल 1996, लंदन- 14-18 सितंबर 1999, सूरीनाम- 6-9 जून 2003, न्यूयॉर्क- 13-15 जुलाई 2007, जोहांसबर्ग- 22-24 सितंबर 2012, भोपाल- 10-12 सितंबर 2015) के मुख्य विषय […]

रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
ravibhushan1408@gmail.com
पिछले दस विश्व हिंदी सम्मेलनों (नागपुर- 10-12 जनवरी 1975, मॉरीशस- 28-30 अगस्त 1976, नयी दिल्ली- 28-30 अक्तूबर 1983, मॉरीशस- 2-4 दिसंबर 1993, त्रिनिदाद एंड टोबैगो- 4-8 अप्रैल 1996, लंदन- 14-18 सितंबर 1999, सूरीनाम- 6-9 जून 2003, न्यूयॉर्क- 13-15 जुलाई 2007, जोहांसबर्ग- 22-24 सितंबर 2012, भोपाल- 10-12 सितंबर 2015) के मुख्य विषय में इस वर्ष के विश्व हिंदी सम्मेलन (18-20 अगस्त, मॉरीशस) की तरह कभी ‘संस्कृति’ प्रमुख नहीं रही थी.
पहली बार ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन का मुख्य विषय था- ‘हिंदी विश्व और भारतीय संस्कृति’. पहले के सम्मेलन साहित्य और उसकी विधाओं पर केंद्रित होते थे. भोपाल में आयोजित दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन भाषा पर केंद्रित था. ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अपने भाषण में एक साथ हिंदी भाषा को बचाने, बढ़ाने और उसकी शुद्धता कायम रखने की बात कही. ‘हमारे आठों सत्र संस्कृति के निमित्त हैं.’
संस्कृति ‘जीवन का ढंग’ है और ‘जीवन के नानाविध रूपों का समुदाय’ है. वासुदेव शरण अग्रवाल ने ‘संस्कृति’ को ‘मनुष्य के भूत, वर्तमान और भावी जीवन का सर्वांगपूर्ण प्रकार’ कहा है. संस्कृति के अंतर्गत हमारा पूरा जीवन आता है. धर्म, दर्शन, कला, साहित्य सभी उसके अंग हैं.
एक संस्कृति विशेष से परिचय और उससे जुड़ाव के बाद भी समय-समय पर अन्य संस्कृतियों से भी हमारा परिचय और संबंध स्थापित होता रहता है. भारतीय संस्कृति विभिन्न संस्कृतियों का मिश्रण है. हिंदी संस्कृति उस तरह भारती संस्कृति का पर्याय नहीं है, जिस तरह ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ का और ‘हिंदू राष्ट्र’ ‘भारतीय राष्ट्र’ का. राजनीति ‘पथ की साधना’ है और ‘संस्कृति’ को ‘पथ का साध्य’ कहा गया है.
इस वर्ष के विश्व हिंदी सम्मेलन का मुख्य अतिथि न कोई भाषाविद् था, न संस्कृति-चिंतक-विचारक. दो राज्यों के राज्यपाल मुख्य अतिथि थे- गोवा की मृदुला सिन्हा और पश्चिम बंगाल के केसरीनाथ त्रिपाठी. पहले सत्र ‘भाषा और संस्कृति के अंतर्संबंध’ की अध्यक्षता भी हिंदी के किसी प्रमुख भाषाविद्, चिंतक-विचारक और संस्कृति ज्ञाता, चिंतक ने नहीं की थी, अध्यक्ष थीं- मृदुला सिन्हा.
सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन समर्थ भाषा में ही संभव है. भाषा हमारी ‘समस्त चिंतन-प्रक्रिया का आधार’ है और वह हमारी ‘स्मृति का संचित कोष’ भी है. इस वर्ष विश्व हिंदी सम्मेलन का प्रतीक-चिह्न ‘मोर’ के साथ ‘डोडो’ था.
ये दोनों भारत और मॉरीशस के राष्ट्रीय पक्षी हैं. डोडो लुप्त होती हुई हिंदी का प्रतीक है, जिसे मोर बचायेगा. प्रश्न यह है कि हिंदी को बचाने, संवारने और समृद्ध करने की जिम्मेदारी किसकी है? क्या विश्व हिंदी सम्मेलन में उपस्थित सभी वक्तागण और प्रतिभागी हिंदी प्रेमी और हिंदी सेवी थे? क्या सभी सम्मानित व्यक्तियों ने सचमुच हिंदी भाषा, साहित्य और भारतीय संस्कृति की सेवा की है?
सोशल मीडिया, फेसबुक आदि पर जारी चित्रों और दृश्यों का ‘हिंदी विश्व और भारतीय संस्कृति’ से कैसा संबंध है? विषय से, चर्चाओं से, बहसों से संबंध कितने वक्ताओं, विद्वानों, विशेषज्ञों और प्रतिभागियों का था? ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में आमंत्रित-अनामंत्रित सबकी नाम-सूची सामने आने पर यह पता चलेगा कि सचमुच वहां हिंदी प्रेमियों, सेवियों, भाषाविदों और संस्कृति-विशेषज्ञों की संख्या कितनी थी? एक विशेष राजनीतिक विचारधारा से जुड़े लोगों की संख्या भी कितनी थी?
जिसका ‘तन-मन, जीवन और रग-रग’ हिंदी हो, क्या उसकी संस्कृति एक धर्म विशेष की नहीं होगी? ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ का जाप करनेवालों को यह मालूम होगा कि अथर्ववेदीय ‘पृथ्वी सूक्ति’ में तीन प्रकार के ‘राष्ट्र’- निकृष्ट, मध्यम और उत्तम का उल्लेख है. वे भारत को किस प्रकार का ‘राष्ट्र’ बनाना चाहते हैं? भारत की विशेषता उसकी विविधता है. भाषा, धर्म, नृत्य, कला, दर्शन, आचार-विचार, व्रत-त्योहार, वेश-भूषा, खान-पान कुछ भी एक नहीं है. यही भारत का सौंदर्य है.
सही अर्थों में यही ‘भारतीयता’ है. सुषमा स्वराज को ‘हिंदी की शुद्धता’ की चिंता है, जो सही है. अभी प्रभु जोशी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम लिखे अपने ‘खुला खत’ में उनके ‘मन की बात’ की अशुद्ध हिंदी की ओर उनका ध्यान दिलाया है. खत में लिखा है- ‘‘आप अपने समूचे सोच और दृष्टि में मूलत: एक राजनीतिक व्यक्ति हैं. नतीजतन आपके लिए ‘भाषा’ प्रमुख नहीं है. केवल ‘संप्रेषण’ की आत्मा अंतिम अभीष्ट है. ‘मन की बात’ की भाषा ‘हिंदी’ न होकर ‘हिंग्लिश’ है, जिसमें साठ-सत्तर प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के होते हैं.’’
प्रसिद्ध ब्रिटिश भाषाविद् डेविड क्रिस्टल (‘लैंग्वेज डेथ’ पुस्तक के लेखक) ने ‘हिंग्लिश’ को ‘अंग्रेजी से उत्पन्न भाषा’ और ‘अंग्रेजी की एक नयी बोली’ कहा है. और ‘संस्कृति’? ‘भारतीय संस्कृति’ को ‘हिंदू संस्कृति’ समझना-समझाना ‘संस्कृति’ की मिथ्या समझ है. हिंदी सत्ता की नहीं, सत्ता के प्रतिपक्ष की भाषा है.
‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ के पुराने नारे को आज प्रस्तुत करने से राष्ट्र और उसकी जनता का नुकसान होगा. जो घोषित रूप से हिंदू धर्म का प्रचारक और प्रवक्ता है, क्या इसकी संस्कृति सही अर्थों में भारतीय संस्कृति होगी? भारत में एक साथ कई धर्मों की सह-उपस्थिति है, इसलिए ‘संस्कृति’ पर विचार करते समय हमें सावधान रहना चाहिए.

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