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हमेशा याद रहेंगे सोमनाथ बाबू

प्रसेनजीत बोस राजनीतिक टिप्पणीकार boseprasenjit@gmail.com लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी अब हमारे बीच नहीं हैं. भारतीय राजनीति के लिए यह एक बड़ी क्षति है. आम आदमी से लेकर राजनीतिक दलों के तमाम नेतागण उनके निधन से बहुत दुखी हैं. कॉमरेड सोमनाथ चटर्जी का पांच दशक लंबा राजनीतिक जीवन हम सभी के लिए एक विशिष्ट […]

प्रसेनजीत बोस

राजनीतिक टिप्पणीकार

boseprasenjit@gmail.com

लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी अब हमारे बीच नहीं हैं. भारतीय राजनीति के लिए यह एक बड़ी क्षति है. आम आदमी से लेकर राजनीतिक दलों के तमाम नेतागण उनके निधन से बहुत दुखी हैं. कॉमरेड सोमनाथ चटर्जी का पांच दशक लंबा राजनीतिक जीवन हम सभी के लिए एक विशिष्ट उदाहरण है.

आज से करीब 89 साल पहले एक राजनीतिक खानदान में ही सोमनाथ बाबू का जन्म असल के तेजपुर में हुआ था. उनके पिता मशहूर बैरिस्टर निर्मल चंद्र चटर्जी (एनसी चटर्जी) आजादी से पहले के दौर में हिंदू महासभा के संस्थापकों में से एक थे. साल 1948 में केंद्र की नेहरू सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी पर जब प्रतिबंध लगाया, तब विचारधारा के स्तर पर मतभेद होने के बावजूद एनसी चटर्जी ने कम्युनिस्ट नेताओं की रिहाई के लिए अपनी आवाज उठायी.

हिंदू महासभा के अखिल भारतीय अध्यक्ष होने के बावजूद गांधीजी की हत्या के बाद उनके विचार से उनकी हिंदू सांप्रदायिक राजनीति के प्रति संदेह पैदा हुआ. साल 1952 के चुनाव में वे हिंदू महासभा का उम्मीदवार बनकर लोकसभा का सांसद चुने गये. लेकिन, 1963 के उप चुनाव में एनसी चटर्जी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप बर्धमान से सांसद चुने गये और 1971 तक वे वहीं से सांसद चुने जाते रहे.

सोमनाथ चटर्जी ने अपने पिता के रास्ते पर चलते हुए इंग्लैंड से पढ़ाई करके बैरिस्टर बने. लेकिन, 1968 में उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन सीपीआइएम का सदस्य बनकर शुरू किया.

एनसी चटर्जी के निधन के बाद बर्धमान से ही 1971 के लोकसभा चुनाव में पहली बार सोमनाथ बाबू ने सीपीआइएम से चुनाव लड़ा और लोकसभा सांसद बने. यह इतिहास आज के पश्चिम बंगाल के राजनीति के परिप्रेक्ष्य में काफी प्रासंगिक है, क्योंकि एनसी चटर्जी से सोमनाथ चटर्जी तक का राजनीतिक उद्भव उस दौर में एक पीढ़ी के उद्भव को दर्शाता है.

पहले बंगाल का बंटवारा, पूर्वी बंगाल से आये हुए लाखों शरणार्थियों के जीने-मरने का संघर्ष, लाल झंडे के नेतृत्व में किसानों का भूमि आंदोलन, खाद्य आंदोलन- आजादी के बाद के दशकों में जो बंगाल की राजनीति में बड़े बदलाव का चरण था- सोमनाथ बाबू ने इतिहास की धारा को पहचानने में गलती नहीं की. सोमनाथ बाबू अपने पिता के राजनीतिक विरासत को त्यागकर खुद को जनांदोलन की तरफ मोड़ दिये और वामपंथ के साथ चल पड़े.

सोमनाथ बाबू का कम्युनिस्ट बनना सिर्फ चुनावी स्वार्थ नहीं था, बल्कि विचारधारा के स्तर पर वे जीवनभर सांप्रदायिक राजनीति के तीव्र विरोधी थे. मेरे अपने छात्र जीवन में जेएनयू में वामपंथी छात्र आंदोलन के साथ रहने के दौरान उनको आमंत्रित कर उनका भाषण सुनने का मुझे मौका मिला था. भारत और बंगाल की राजनीति में सांप्रदायिकता ही सबसे बड़ा खतरा है, यही बात वे नयी पीढ़ी को हमेशा समझाते थे

यह उपलब्धि उनकी अपनी व्यक्तिगत जीवन के अनुभव से ही मिली थी, यह चीज उनसे बातचीत में समझ में आती थी. हाल के समय में देश और बंगाल की राजनीति में सांप्रदायिक राजनीति के पुनरुत्थान ने उनको काफी दुखी किया था. आज जो लोग बंगाल में सांप्रदायिक विभाजन को वापस लाकर इतिहास की धारा को पीछे की ओर घुमाने की कोशिश कर रहे हैं, उनके खिलाफ विचारधारात्मक और राजनीतिक लड़ाई में सोमनाथ बाबू हमेशा ही प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे.

दस बार लोकसभा के सांसद रहे सोमनाथ बाबू भारत के संसदीय राजनीति में एक विश्वसनीय स्तंभ रहे. संसद में उनकी भूमिका एक तरफ मेहनतकश लोगों के प्रति संवेदनशीलता की रही, तो वहीं दूसरी तरफ अपनी पार्टी के दायरे के बाहर बाकी दलों के सांसदों के बीच वे पसंदीदा रहे.

साल 2004 के आम चुनाव के बाद जब लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव हुआ, तो उसमें सर्वसम्मति से उनका चुना जाना उनके बेमिसाल संसदीय जीवन को रेखांकित करता है.

सीपीआइएम और वाम दलों ने साल 2008 में जब यूपीए सरकार से समर्थन वापस लिया, तब सोमनाथ चटर्जी उस समर्थन वापसी के पक्ष में नहीं थे.

उनका मानना था कि विश्वास मत से पहले उन्हें लोकसभा के अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं देना चाहिए. इसके बाद जो मतभेद हुआ, उससे उनको पार्टी से अलग होना पड़ा. मैं जब सीपीआइएम का सदस्य था, तब भी सोमनाथ के इस सिद्धांत का व्यक्तिगत तौर पर मैं समर्थन नहीं करता था और आज भी नहीं करता हूं. कांग्रेस पार्टी के साथ वामपंथियों के संबंध के बारे में या पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण के सवाल पर सोमनाथ बाबू का सिद्धांत सीपीआइएम के बंगाल राज्य नेतृत्व के सिद्धांत से अभिन्न था.

सोमनाथ बाबू यह मानते थे कि राज्य नेतृत्व के तहत नहीं, पार्टी के केंद्रीय लाइन की वजह से ही पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का पतन हुआ. उनका यह मानना कई वामपंथियों को स्वीकार नहीं होगा, और पिछले कुछ सालों का राजनीतिक अनुभव भी उनके इस सिद्धांत के उलट रहा है. इस संबंध में मतभेद के बावजूद जीवनभर धर्मनिरपेक्षता के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान, एक वामपंथी नेता और बेहतरीन सांसद के रूप में हमेशा ही प्रगतिशील लोग सोमनाथ चटर्जी को याद रखेंगे.

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