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कांग्रेस की गठबंधन-परीक्षा

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com कांग्रेस ने यह मानकर ठीक ही किया कि 2019 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी को वह अकेले दम पर नहीं हरा सकती. इसके लिए विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करना जरूरी है. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने के बाद हुई पहली कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक […]

नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
कांग्रेस ने यह मानकर ठीक ही किया कि 2019 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी को वह अकेले दम पर नहीं हरा सकती. इसके लिए विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करना जरूरी है. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने के बाद हुई पहली कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक का यह स्वर बहुत महत्वपूर्ण कहा जाना चाहिए. निर्वाचित सांसदों के हिसाब से सबसे बड़ी पार्टी बनने पर गठबंधन के नेता के रूप में राहुल को पेश करना सिर्फ औपचारिकता है.
आज अत्यंत सीमित सांसद संख्या के बावजूद कांग्रेस अखिल भारतीय उपस्थिति वाली पार्टी है. कई राज्यों में वह भाजपा से सीधे मुकाबले वाला दल है. क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर वह भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय गठबंधन बना और चला सकती है. साल 2004 से लेकर 2014 तक यूपीए उसी के कारण चला. कांग्रेस आगे भी ऐसा कर सकती है.
यह सिर्फ संभावना है. राहुल गांधी के लिए पहली चुनौती यहीं से शुरू होती है. परस्पर विरोधी हितों और महत्वाकांक्षी क्षेत्रीय दलों के नेताओं को एक मंच पर लाना आसान नहीं है. कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस से टकराव है. कई दलों का भाजपा से कांग्रेस सरीखा तीखा विरोध नहीं है. भाजपा विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन बनाने के लिए राहुल को वहां सहयोग की कीमत अपनी जमीन छोड़कर चुकानी पड़ेगी. वे किस-किस के लिए कितनी जगह खाली करेंगे? फिर स्वयं कांग्रेस के लिए कितना स्थान बचा रहेगा, जबकि इस समय उसे अपने पुनरुत्थान के लिए खुद भी संघर्ष करना है.
अब जबकि सोनिया गांधी नेपथ्य में हैं, अत्यंत महत्वाकांक्षी चंद क्षेत्रीय नेता क्या राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकारने को सहज तैयार हो जायेंगे? कांग्रेस कार्य समिति के फैसले पर देवगौड़ा की सहमति को छोड़कर सभी क्षेत्रीय नेता मौन हैं. ममता बनर्जी ने पहले ही भाजपा विरोधी ‘फेडरल फ्रंट’ की तैयारी का एलान कर दिया है. संभावना है कि इसमें वे कांग्रेस को भी शामिल करेंगी, लेकिन अपनी पहल की बागडोर राहुल को क्यों थमा देंगी? तेलंगाना के चंद्रशेखर राव की तरह चंद्रबाबू नायडू राष्ट्रीय भूमिका में आने के संकेत दिये हैं. नवीन पटनायक भाजपा और कांग्रेस से बराबर दूरी बनाये रखने की रणनीति पर चल रहे हैं.
बिहार में राजद के छोटे भागीदार के रूप में उनकी दोस्ती चल जायेगी, लेकिन उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश उन्हें कितनी जगह देंगे? सपा-बसपा दोनों मिलकर भाजपा को हराने की स्थिति में हैं, तो वे कांग्रेस को शामिल करेंगे भी या नहीं? करेंगे तो दूसरे राज्यों में उसकी कितनी बड़ी कीमत मांगेंगे? यानी क्षत्रपों के अलग-अलग राजनीतिक स्वार्थ हैं. कांग्रेस के साथ कोई रियायत वे नहीं करनेवाले. राहुल की परीक्षा यह है कि उन्हें कांग्रेस को खड़ा करना है और गठबंधन भी बनाना है. यह डगर सचमुच फिसलन भरी है.
पिछले एक साल में राहुल ने अपने को नरेंद्र मोदी से सीधे मुकाबले के लिए तैयार किया है. गुजरात चुनाव से लेकर हाल के अविश्वास प्रस्ताव तक वे क्रमश: रणनीति बदलते एवं आक्रामक होते आये हैं. इसमें भाजपा से ज्यादा क्षेत्रीय दलों के लिए स्पष्ट संदेश है कि 2019 में भाजपा को रोकना है, तो कांग्रेस ही उस मोर्चे की धुरी बन सकती है और राहुल उसके स्वाभाविक नेता हैं. सवाल है कि क्षेत्रीय दल इस संदेश को कितना ग्रहण कर रहे हैं?
भाजपा इस खतरे को अच्छी तरह पहचानती है. इसलिए नरेंद्र मोदी लगातार न केवल कांग्रेस पर हमलावर हैं, बल्कि क्षेत्रीय दलों को सावधान करते रहते हैं कि कांग्रेस अपने सहयोगी दलों को छलती रही है और आगे भी ऐसा करेगी. वह क्यों चाहेगी कि कांग्रेस के नेतृत्व में उसके विरुद्ध कोई गठबंधन बने. गठबंधन की राहुल की राह बहुत कुछ निर्भर करेगी वर्षांत में होनेवाले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव नतीजों पर. अगर कांग्रेस वहां भाजपा से सत्ता छीन पाती है, तो उसके लिए 2019 की राह ही नहीं, क्षेत्रीय दलों का नेतृत्व पाना भी आसान हो जायेगा.
मोदी के विरुद्ध राहुल की दूसरी बड़ी तैयारी चुनावी मुद्दे चुनने में दिख रही है. यह महत्वपूर्ण होगा कि मोदी सरकार के खिलाफ वे क्या-क्या मुद्दे लेकर जनता के बीच जाते हैं. साल 2014 की तुलना में लोकप्रियता कम होने के बाद भी मोदी चुनाव जिताऊ नेता बने हुए हैं. जनता का एक बड़ा वर्ग उनसे निराश नहीं हुआ है. जो विफलताएं हैं भी, उन पर आक्रामक हिंदुत्व का भाजपा-संघ का एजेंडा हलका नशा-सा तारी है. इसलिए गुजरात चुनाव के समय राहुल गांधी ने उदार हिंदुत्व का जो चोला पहना था, वह उतारा नहीं है. बल्कि, उन्होंने इधर लगातार यह दिखाने की कोशिश की है कि कांग्रेस को भी हिंदुत्व से प्रेम है, किंतु किसी के प्रति नफरत भरा नहीं.
अविश्वास प्रस्ताव पर अपने धारदार भाषण में जब वे मोदी को धन्यवाद देते हैं कि ‘आपने मुझे हिंदू होने का मतलब समझाया, आपने मुझे कांग्रेस होने का मतलब समझाया’, तब वे जनता को सायाश यही संदेश दे रहे थे. इसी के बाद वे जगह-जगह नफरत में मारे जा रहे लोगों की चर्चा करते हैं, सबसे मुहब्बत करने और स्वयं नरेंद्र मोदी से भी नफरत न करने की बात कहते हुए उनके गले लग जाते हैं.
इसमें चाहे जितनी नाटकीयता देखी जाये, चाहे जितना वितंडा खड़ा किया जाये, असल में यह मोदी के खिलाफ एक राष्ट्रीय विमर्श चुनने का राहुल का योजनाबद्ध प्रयास था. इसमें उग्र हिंदुत्व और नफरत की राजनीति के मुकाबले बहुलतावादी भारतीय संस्कृति का मुद्दा जनता के सामने रखने का प्रयास दिखायी देता है. वह कितना प्रभावी होगा, यह अलग बात है.
राहुल को कांग्रेस की बागडोर ऐसे समय मिली है, जब पार्टी विपक्ष में और सबसे कमजोर हालत में है, जबकि मुकाबले में ताकतवर नेता तथा सत्तारूढ़ दल है. यह विपरीत स्थितियां उनकी राजनीति और नेतृत्व कौशल के लिए बड़ा अवसर भी बन सकती हैं. कांग्रेस में दूसरे नंबर की हैसियत से वे एक दशक से ज्यादा गुजार ही चुके हैं. अब परीक्षा का समय है. उनके लिए अच्छी बात यह है कि कांग्रेस की जड़ें अखिल भारतीय और गहरी हैं.
भाजपा देशभर में चाहे जितनी छायी दिख रही हो, उसकी अखिल भारतीयता अपेक्षाकृत नयी है. अनुकूल हवा-पानी पाते ही कांग्रेसी जड़ों को पनपने में देर नहीं लगेगी. यह अनुकूलता भाजपा के अपने अंतर्विरोधों से, क्षेत्रीय दलों से गठबंधन की रणनीति से और राहुल की अब तक की कांग्रेस-दीक्षा से संभव हो सकती है. कांग्रेस को लगभग खत्म कर चुकने का दावा करने के बावजूद भाजपा का कांग्रेस-भय इसी कारण बना हुआ है.

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