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हेलसिंकी शिखर वार्ता के मायने

पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार pushpeshpant@gmail.com आधुनिक राजनय में शिखर वार्ताओं को विशेष महत्व दिया जाता है. शीतयुद्ध के युग में जब विश्व परमाण्विक सर्वनाश की ओर तेजी से फिसलता जा रहा था, तब उसे वापस लौटाने का काम अमेरिकी राष्ट्रपति और सोवियत संघ की साम्यवादी पार्टी के महासचिव की शिखर वार्ता ने ही […]

पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
pushpeshpant@gmail.com
आधुनिक राजनय में शिखर वार्ताओं को विशेष महत्व दिया जाता है. शीतयुद्ध के युग में जब विश्व परमाण्विक सर्वनाश की ओर तेजी से फिसलता जा रहा था, तब उसे वापस लौटाने का काम अमेरिकी राष्ट्रपति और सोवियत संघ की साम्यवादी पार्टी के महासचिव की शिखर वार्ता ने ही किया था. तभी से यह धारणा सर्वमान्य है कि संकट निवारण के लिए किसी भी विस्फोटक स्थिति में तनाव कम करने के लिए चोटी के नेताओं की सीधी बातचीत निर्णायक भूमिका निभा सकती है.
जब निक्सन के कार्यकाल में चीन के साथ संबंधों के सामान्यीकरण का प्रयास किया जा रहा था, तब भी माओ और निक्सन की मुलाकात ने मार्ग की बाधाओं को हटाया था. बांग्लादेश मुक्ति अभियान के बाद इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टो की शिखर वार्ता ने भारत-पाक संबंधों में एक नयी शुरुआत की आशा जगायी थी.
बहरहाल, सभी का ध्यान हेलसिंकी में संपन्न हुई डोनाल्ड ट्रंप और ब्लादिमीर पुतिन की शिखर वार्ता पर केंद्रित है. इस मुलाकात को कितना ऐतिहासिक माना जाये और कितना दिखावटी और मात्र प्रतीकात्मक, इसका विश्लेषण करने के लिए इन दोनों नेताओं के व्यक्तित्व, कार्यशैली और अब तक के आचरण के अलावा अमेरिका और रूस के बुनियादी राष्ट्रहितों के टकराव और संयोग पर दृष्टिपात करना परमावश्यक है.
सबसे पहले बात करें डोनाल्ड ट्रंप की. उनके बारे में यह धारणा आम है कि वह न केवल आत्ममुग्ध, अहंकारी और बड़बोले हैं, बल्कि यह भी कि वह अंतरराष्ट्रीय मामलों की विशेष जानकारी से वंचित हैं.
उन्हें प्रशासनिक या राजनयिक अनुभव नहीं, वह हर विदेशी नेता के साथ अपनी किसी भी मुलाकात को समाचार पत्रों की सुर्खियों में और टीवी के पर्दे पर छाने का एक मौका समझते हैं. ट्रंप ने अपने सलाहकारों को तुनकमिजाजी से बर्खास्त किया है और अनेक अंतरराष्ट्रीय बैठकों में अपने परिवार के सदस्यों को प्रतिनिधि मंडल में शामिल किया है.
जब उन्होंने अपना पदभार ग्रहण ही किया था, तब उन्होंने इस बात का एलान किया था कि वह खुद एक ताकतवर नेता हैं और दूसरे किसी भी अपने जैसे ताकतवर नेता के साथ आसानी से सार्थक संवाद कर सकते हैं. उन्होंने यह भी कहा था कि वह पुतिन के साथ मजे में काम करने की बाबत आशावान हैं.
राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ एक उच्च स्तरीय समिति इस बात की जांच कर रही है कि उन्होंने अपने चुनावों में डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ दुष्प्रचार के लिए रूसी खुफिया एजेंसी की सहायता ली थी. जाहिर है यह काम पुतिन की रजामंदी के बगैर नहीं हो सकता था.
जांच अभी पूरी नहीं हुई, पर हेलसिंकी में ट्रंप ने पुतिन को अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में हस्तक्षेप के आरोपों से बरी करने का सर्टिफिकेट दे दिया है. निश्चय ही पुतिन के साथ दोस्ती इस घड़ी ट्रंप की मजबूरी है. ट्रंप के विरोधी उन पर लांछन लगा चुके हैं कि अब तक कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति किसी सोवियत नेता के अंगूठे के तले इस तरह दबा नहीं था.
बात ट्रंप के व्यक्तिगत स्वार्थ या कमजोरी की नहीं. ट्रंप ने एक-साथ कई मोर्चे खोले हैं, उन्होंने यूरोपीय समुदाय के कई प्रभावशाली सदस्य देशों पर यह आरोप लगाया है कि वह अपनी सामरिक सुरक्षा का खर्च तो अमेरिका के कंधे पर वर्षों से लादते रहे हैं और खुद अपनी धनराशि का बड़ा हिस्सा रूस से तेल-गैस की खरीद या अन्य आयात पर करते हैं. रूस इस प्रकार जो धन कमाता है, उसका उपयोग वह अमेरिका के विरुद्ध अपनी सामरिक शक्ति बढ़ाने के लिए ही करता है.
उन्होंने जर्मन चांसलर और फ्रांसीसी राष्ट्रपति को रूसियों का पिछलग्गू, बगलबच्चा बताने के लिए खासी अभद्र शब्दावली का प्रयोग किया है. हकीकत यह है कि इस घड़ी हर अंतरराष्ट्रीय रणभूमि में अमेरिका पर पुतिन हावी होते दिख रहे हैं.
मध्य-पूर्व में सीरियाई गृहयुद्ध में पुतिन न केवल ईरान और लेबनान के फौजी दस्तों के साथ लड़कर अपनी जबर्दस्त मौजूदगी दर्ज करा चुके हैं, वरन अमेरिका के पक्षधर सऊदी अरब के नये नेतृत्व को भी आकर्षित करने में सफल हुए हैं.
आज इस बात में शक की कोई गंुजाइश नहीं कि अब पश्चिम एशिया और अरब जगत की तेल राजनीति में रूस की उपस्थिति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. कुछ ही समय पहले अमेरिकी प्रशासन ने रूसी राजनयिकों को निष्कासित करने के साथ उस देश के खिलाफ कड़े आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा की थी. इनके जवाब में रूस ने भी ईंट का जवाब पत्थर से देने के अंदाज में अमेरिका के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये हैं.
इस माहौल में यह आशा नाजायज लगती है कि हेलसिंकी के शिखर वार्ता का कोई खास लाभ ट्रंप उठा सकेंगे.शिखर वार्ताओं के बारे में ट्रंप कुछ ज्यादा ही उतावलापन दिखाते हैं, ऐसा ही कुछ उत्तरी कोरिया के नेता के साथ सिंगापुर यात्रा के दौरान भी देखने को मिला. ट्रंप की तुलना में किम जोंग-उन कहीं अधिक मोहक और व्यावहारिक दिखलायी दिये. अब तक उनका राक्षसीकरण करनेवाले पश्चिमी मीडिया को भी उनका ‘मानवीय’ और मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखलाने को मजबूर होना पड़ा है.
पुतिन के लिए हेलसिंकी की वार्ता फायदे का ही सौदा हो सकती है. अपनी राजनयिक साख गंवाने का या छवि बिगड़ने का कोई संकट उन्हें नहीं.
वह राष्ट्रपति के रूप में चौथा कार्यकाल आरंभ कर चुके हैं और 21वीं सदी के करवट लेने के साथ से आज तक रूस को उन्होंने अपने सांचे में ढाला है. उनके लिए न तो घरेलू मीडिया कोई चुनौती पेश करता है और न ही उन्हें इसकी कोई चिंता है कि जनमत उनके फैसले का समर्थन करेगा या विरोध. वह भले ही तानाशाह हों, पर उन्हें अधिकांश रूसियों का समर्थन है.
नौजवान रूसियों को लगता है कि मिखाइल गौर्वाचोव के बाद से उनका देश जिस दिवालियेपन और अराजकता की खाई में गिर पड़ा था, उससे निकालने का काम और रूस के स्वाभिमान को लौटाने का काम पुतिन ने ही किया है. पश्चिम ने सोवियत संघ के सदस्य रह चुके जॉर्जिया और यूक्रेन जैसे गणराज्यों में ‘रंगीन’ जनतांत्रिक क्रांति लाने की जो साजिश रची थी, उसे पुतिन ने क्रीमिया में सैनिक हस्तक्षेप द्वारा नाकाम कर दिया. पुतिन बोलते कम हैं और अपने करिश्माई व्यक्तित्व को रहस्यमय बनाये रखते हैं.
न तो उनमें प्रशासनिक अनुभव का अभाव है और न ही राजनयिक जानकारी का. भारत के लिए ठंडे दिमाग से यह विचारने की जरूरत है कि इस शिखर वार्ता के बाद उसके अपने रिश्ते रूस, ईरान और अमेरिका के साथ-साथ चीन के साथ भी कैसे प्रभावित होंगे?

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