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स्पष्ट नियमों की शरण लें

II पवन के वर्मा II लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com कर्नाटक में जो कुछ हुआ, उसने यह तो बिल्कुल साफ कर दिया है कि विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र द्वारा अपनी विश्वसनीयता बरकरार रखने के निमित्त कुछ सुनिश्चित तथा पारदर्शी नियम निर्मित करने ही चाहिए. आगे भी कई राज्यों में, और यहां तक कि […]

II पवन के वर्मा II
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
कर्नाटक में जो कुछ हुआ, उसने यह तो बिल्कुल साफ कर दिया है कि विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र द्वारा अपनी विश्वसनीयता बरकरार रखने के निमित्त कुछ सुनिश्चित तथा पारदर्शी नियम निर्मित करने ही चाहिए.
आगे भी कई राज्यों में, और यहां तक कि वर्ष 2019 के आगामी संसदीय चुनावों में भी किसी एक पार्टी द्वारा स्पष्ट बहुमत हासिल न कर पाने की संभावनाएं बलवती होती दिखती हैं. यदि ऐसा होता है, तो ऐसे अस्पष्ट और अनिश्चित दायरों की मौजूदगी खत्म की ही जानी चाहिए, जिनमें नैतिकता तथा कानूनी व्याख्याओं का फर्क सुविधानुसार खिसका दिया जाना संभावित हो. प्रत्येक राजनीतिक पार्टी को यह निश्चित रूप से पता होना चाहिए कि एक त्रिशंकु सदन की वास्तविकता सामने आने पर प्रक्रियाओं के नियम क्या होंगे और आगे के घटनाक्रम की सुनिश्चितता को किसी भी जोड़तोड़ से बदला नहीं जा सकेगा.
कर्नाटक की घटनाएं सुप्रीम कोर्ट के लिए पर्याप्त वजह मुहैया करती हैं कि वह इन नियमों को एक निश्चित आकार दे. अतीत में भी देश के इस सर्वोच्च न्यायालय ने मौके की नजाकत को बखूबी संभाला है. 1985 में एसआर बोम्मई के मामले में अपना दूरगामी फैसला सुनाते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत सिद्ध करने के स्थल को लेकर छायी अनिश्चितता को स्थायी विराम देते हुए यह स्पष्ट किया था कि इसे केवल सदन की फर्श पर ही अंजाम दिया जा सकता, न कि राजभवनों में या कहीं अन्यत्र.
इससे किसी सियासी पार्टी द्वारा बहुमत की दावेदारी को लेकर राज्यपालों अथवा यहां तक कि राष्ट्रपति की विषयगत संतुष्टि का दायरा समाप्त हो गया. इसी तरह, इसके पूर्व भी संसद ने संविधान की 10वीं अनुसूची में संशोधन कर दलबदल कर पाने को खासा कठिन कर धनबल से विधायकों को खरीदे जाने की संभावनाएं एक हद तक भोथरी कर दी थीं. वर्ष 2005 में रामेश्वर प्रसाद मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस संदर्भ में कुछ और सिद्धांत तय किये गये.
पर बाद के घटनाक्रम ने यह स्पष्ट कर दिया कि सिर्फ इतना ही पर्याप्त नहीं है. कानूनदां चाहे जितनी भी बहसें कर लें, इस संबंध में पूरी स्पष्टता का अभाव बना ही हुआ है कि एक त्रिशंकु सदन को लेकर कार्रवाइयों के किस क्रम को वैधानिकता हासिल है. क्या राज्यपाल को पहले अकेली सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने का न्योता देना है?
या उसे चुनावपूर्ण गठबंधन को प्राथमिकता देनी है? क्या उसे चुनाव बाद गठबंधन पर भी संजीदगी से विचार करना है? इनमें से प्रत्येक के पक्ष में मिसालें मौजूद हैं. जब भी उसके हितसाधन होते हों, कांग्रेस ने अकेली सबसे बड़ी पार्टी को तरजीह दिये जाने की वकालत की है.
ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि गोवा, त्रिपुरा तथा मेघालय के हालिया चुनावी नतीजों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में विजयी रही. तब भाजपा ने यह तर्क दिया था कि ऐसी स्थिति में राज्यपाल को चुनाव पश्चात गठबंधनों को प्राथमिकता देते हुए उन्हें सरकार बनाने का न्योता देना चाहिए. एक बार फिर कर्नाटक को लें, तो वहां ये दोनों प्रतिद्वंद्वी दल अब ठीक विपरीत विकल्पों की वकालत में लगे दिखे.
कुछ तथ्य तो स्पष्ट हैं. कर्नाटक के इन चुनावों में भाजपा ने 104 सीटें लेकर अच्छा प्रदर्शन तो किया, पर वह स्पष्ट बहुमत की सीमारेखा का स्पर्श न कर सकी. पार्टी को इस प्रश्न पर चिंतन करना चाहिए कि पांच वर्षों के कांग्रेस शासन से उपजे स्वाभाविक असंतोष के बावजूद वह क्यों स्पष्ट बहुमत से दूर ही रह गयी, जबकि इन चुनावों में जीतने के लिए उसने कुछ भी उठा न रखा और प्रधानमंत्री ने स्वयं 21 रैलियों द्वारा इसमें अपनी अथक ऊर्जा भी निवेशित की. दूसरी ओर पांच वर्षों के भाजपा शासन के बाद वर्ष 2013 में कांग्रेस ने आसानी से 122 सीटों पर कब्जा कर लिया था. इसके दो ही कारण हो सकते हैं.
या तो सिद्धारमैया शासन के खिलाफ असंतोष उतना गहरा नहीं था अथवा भाजपा के पक्ष में सकारात्मकता वैसी साफ नहीं थी. एक दूसरी स्थिति यह भी हो सकती है कि कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की कोशिशों ने इतना रंग तो दिखा ही दिया कि भाजपा अपनी उम्मीद के अनुरूप अच्छा न कर सके.
इन सबके मध्य, सार्वजनिक नैतिकता की भावना को तो निश्चित रूप से तिलांजलि दे दी गयी और भ्रष्टाचार की समस्त चिंता जातिगत समीकरणों की वेदी पर होम कर दी गयी. इसके अलावा और कोई वजह नहीं हो सकती कि क्यों भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर जेल जा चुके येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में चुना गया, जिनकी शक्ति शुचिता में नहीं, बल्कि लिंगायत समुदाय पर उनकी मजबूत पकड़ में निहित है. इसी तरह बेल्लारी बंधुओं को केवल चुनाव जीत पाने की उनकी क्षमता के कारण ही भाजपा द्वारा तरजीह दी गयी.
दुर्भाग्य से अब यह तथ्य लगभग स्वीकार्य-सा हो चुका है कि राज्यपाल के उच्च संवैधानिक पद का वस्तुपरक होना आवश्यक नहीं है. जनता यह भी स्वीकार कर चुकी है कि जब बात बहुमत जुटाने की हो, तो अकल्पनीय धनराशियों की पेशकश करके विधायकों की खरीद-फरोख्त अब सियासी पार्टियों के लिए एक पसंदीदा विकल्प बन चुकी है.
इसी तरह, विधायकों को रिश्वत के दुर्दम्य आकर्षण से बचाने को अब उन्हें झुंड बांधकर किसी सुरम्य ‘रिजॉर्ट’ की दुर्लंघ्य (जिसे लांघा न जा सके) किलेबंदी में सुरक्षित कर देना भी अब एक जानी-मानी परिपाटी में तब्दील हो चुका है. यह भी माना जा चुका है कि विधानसभाओं में पक्षधर अध्यक्षीय आसनों के द्वारा दलबदल कानून को चकमा देने की जरूरी तरकीबें भी आजमायी ही जायेंगी.
कुल मिलाकर, यह एक कटु सत्य सिद्ध हो चुका है कि हम एक घटिया किस्म के लोकतंत्र में तब्दील होते जा रहे हैं. मैं नहीं समझता कि सियासतदां कभी बदल भी सकेंगे. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप कर इस संबंध में सुस्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने ही चाहिए, ताकि हम एक अधिक नैतिक लोकतंत्र में परिवर्तित हो सकें.
और जब बारी इन नियमों के अनुपालन की आये, तो एक बार तब भी उसे सक्रियता के साथ हस्तक्षेप कर उनका प्रवर्तन सुनिश्चित करना ही चाहिए. नहीं तो हम ऐसे मौकों के गवाह बनते ही रहेंगे, जब सत्ता के सतत संधान में सन्नद्ध सियासी पार्टियां हर वैसी नजीर या कानून का सहारा लेती ही रहेंगी, जो उनके अपने हित साधते हों.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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