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Thursday, March 28, 2024

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सुप्रीम कोर्ट में अभूतपूर्व हलचल

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर किसी भी लोकतांत्रिक देश में जब भी कोई संकट की घड़ी आती है, तो उस दौरान उसके प्रशासनिक प्रतिष्ठानों की एक तरह से परीक्षा होती है. लोकतंत्र का भविष्य इससे तय होता है कि ये प्रतिष्ठान कितने गंभीर झटकों को आत्मसात कर सकते हैं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण हैं अदालतें […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
किसी भी लोकतांत्रिक देश में जब भी कोई संकट की घड़ी आती है, तो उस दौरान उसके प्रशासनिक प्रतिष्ठानों की एक तरह से परीक्षा होती है. लोकतंत्र का भविष्य इससे तय होता है कि ये प्रतिष्ठान कितने गंभीर झटकों को आत्मसात कर सकते हैं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण हैं अदालतें और उसमें भी सर्वोपरि है सुप्रीम कोर्ट. समय-समय पर अन्य सत्ता प्रतिष्ठानों पर भले ही सवाल उठते रहे हों, लेकिन न्यायपालिका पर हमारा भरोसा कभी नहीं डगमगाया है.
इसकी वजह भी हैं. अदालतों ने अनेक ऐतिहासिक फैसले दिये हैं और लोकतंत्र की गरिमा को कायम रखा है. इसकी लंबी चौड़ी फेहरिस्त है, लेकिन हाल के कुछ अदालती फैसलों का जिक्र करना प्रासंगिक होगा.
हाल में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने बहुमत के निर्णय से मुस्लिम समाज में एक बार में तीन बार तलाक देने की प्रथा को निरस्त कर दिया. मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने इस प्रथा पर छह महीने की रोक लगाने की सिफारिश करते हुए सरकार से कहा कि वह इस संबंध में कानून बनाये.
एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिये जाने के लिए दायर दो साल पुरानी याचिका पर सुनवाई को तैयार हो गयी है. सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने निजता पर फैसले में जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस नरीमन और जस्टिस कौल ने संविधान के अनुच्छेद 21 में दिये गये जीवन के अधिकार के तहत समलैंगिकता समेत अनेक अधिकारों की चर्चा की थी.
सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य फैसले में कहा था कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है और यह संविधान के अनुच्छेद 21 (जीने के अधिकार) के तहत आता है. अदालत ने 1954 में 8 जजों की संवैधानिक पीठ के फैसले को पलट दिया. इस बारे में दो फैसले थे, जिनमें निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना गया था. केंद्र सरकार ने भी अदालत में कहा था कि निजता मौलिक अधिकार नहीं है. अदालती फैसलों की ये तो कुछ मिसाल भर हैं.
पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम ने इसकी विश्वसनीयता पर असर डाला है. आजाद भारत के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. सुप्रीम कोर्ट के चार जज परंपरा तोड़ते हुए अपनी बात रखने के लिए सार्वजनिक रूप से सामने आये. ये चार जज हैं- जस्टिस जे चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ. उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि सुप्रीम कोर्ट में पारदर्शिता लाने की अपनी कोशिशों के तहत वे यह कदम उठा रहे हैं. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में हालात सही नहीं है. जजों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की प्रशासनिक कार्यशैली पर सवाल उठाये और एक चिट्ठी जारी की जिसमें मुख्य न्यायाधीश की कार्यप्रणाली पर गंभीर आरोप लगाये गये हैं.
प्रेस कॉन्फ्रेंस में सुप्रीम कोर्ट के नंबर दो की हैसियत वाले जस्टिस जे चेलमेश्वर ने कहा कि वे चारों इस बात पर सहमत हैं कि इस संस्थान को बचाया नहीं गया, तो इस देश में लोकतंत्र जीवित नहीं रह पायेगा. चूंकि हमारे सभी प्रयास नाकामयाब हो गये, यहां तक कि हम चारों जाकर चीफ जस्टिस से भी मिले, उनसे आग्रह किया, लेकिन हम अपनी बात पर उन्हें सहमत नहीं करा सके. इसके बाद हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचा कि हम देश को मौजूदा परिस्थितियों के बारे में बतायें. उन्होंने कहा कि वे नहीं चाहते कि 20 साल बाद इस देश का कोई शख्स यह कहे कि चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ ने अपना जमीर बेच दिया था.
चिट्ठी से इसका आभास होता है कि जजों के गुस्से की मुख्य वजह रोस्टर है. चिट्ठी की भाषा वकील और जज बेहतर समझ सकते हैं. इसमें उन्होंने मुख्य रूप से जजों की बेंच की नियुक्ति का मुद्दा ही उठाया है.
मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर की बात करते हुए भी जजों ने बेंच की नियुक्ति पर ही बात की है. इसका केंद्र बिंदु ये है कि मुख्य न्यायाधीश जजों के रोस्टर का मास्टर होता है, जिसकी जिम्मेदारी है कि तर्कसंगत सिद्धांत के आधार पर किसी बेंच को केस सौंपे जाये. अगर यह धारणा बन जाये कि मुख्य न्यायाधीश जजों को अपने हिसाब से कोई भी केस दे सकते हैं, तो यह चिंताजनक बात है. सुप्रीम कोर्ट में जितने भी जज हैं, सब बराबर हैं.
लेकिन राष्ट्रीय महत्व के जो मामले होते हैं, उन पर सुनवाई की जिम्मेदारी जजों की वरिष्ठता को ध्यान में रख कर सौंपी जाती है. यह पूछने पर कि क्या आप मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग चलाना चाहते हैं, जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि यह देश को तय करना है. ये बयान हालात की गंभीरता को बयां करते हैं.
मीडिया इस मुद्दे पर टूट पड़ा है. बहसें हो रहीं हैं. सोशल मीडिया में कीचड़ उछाल का दौर शुरू हो गया है. चिंता की बात यह है कि मूल मुद्दा पीछे छूट गया है. हालांकि अभी तक राजनीतिक दलों ने इस पर संयमित रुख अपनाया है और सीमित बयानबाजी ही हुई है.
लेकिन जैसा कि होता आया है कि पक्ष और विपक्ष लाभ हानि का गणित बैठा रहा होता है. केंद्र ने पूरे मसले को न्यायपालिका का अंदरूनी मामला बताकर दखल देने से इनकार किया है. लेकिन प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्र ने शनिवार को मुख्य न्यायाधीश से मुलाकात की कोशिश की. हालांकि यह मुलाकात नहीं हो पायी. खबरों के अनुसार नृपेंद्र मिश्र करीब 5 मिनट तक मुख्य न्यायाधीश के आवास के बाहर खड़े रहे, लेकिन मुलाकात नहीं हो सकी.
एक और खबर आयी कि सीपीआई नेता डी राजा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद जस्टिस चेलमेश्वर से मुलाकात की. चिंता की बात यही है कि यह मसला कहीं राजनीतिक रंग न पकड़ ले. इस विवादके शांत हो जाने तक राजनीतिज्ञों और न्यायाधीशों को संयम बरतना चाहिए और आपसी मुलाकात से बचना चाहिए.
मसले की गंभीरता को देखते हुए कई स्तरों परइसे सुलझाने की कोशिशें चल रही हैं. ऐसी भी खबरें आयी हैं कि मुख्य न्यायाधीश चारों न्यायाधीशों से मुलाकात कर मामले को सुलझा लेंगे. यह सबसे बुद्धिमत्तापूर्ण हल होगा. बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन मिश्रा ने कहा है कि उनका सात सदस्यों का प्रतिनिधिमंडल सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों से मिलेगा. आधे जजों ने सहमति दे दी है और जल्द ही बाकियों से भी सहमति ले ली जायेगी.
दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी आपात बैठक में विवाद को जल्द सुलझाने की मांग की. इस विवाद से सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा पर आंच आयी है. सवाल उठ खड़े हुए हैं, और ये सवाल भी अपने ही लोगों ने उठाये हैं. यह अभूतपूर्व परिस्थिति है. सुप्रीम कोर्ट को ही इस समस्या को जल्द सुलझाने की जरूरत है ताकि आम लोगों का यकीन डगमगाये नहीं. यह मामला जितना जल्दी सुलझे, उतना देश के हित में होगा.
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