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विद्यापति का सामाजिक सरोकार

सविता खान असिस्टेंट प्रोफेसर, डीयू आधुनिकता की व्याख्या, परिभाषा और संकल्पना कहीं से धर्मांधता और स्खलित सामाजिक जीवन की कामना पर आधारित नहीं थी, जहां धर्म, मानवीयता के आड़े आकर मनुष्य को रैशनल होने से बाधित कर दे. आधुनिक होने का व्यापक अर्थ मानव मुक्ति में देखा गया था, वही मुक्ति और मानव के मान […]

सविता खान
असिस्टेंट प्रोफेसर, डीयू
आधुनिकता की व्याख्या, परिभाषा और संकल्पना कहीं से धर्मांधता और स्खलित सामाजिक जीवन की कामना पर आधारित नहीं थी, जहां धर्म, मानवीयता के आड़े आकर मनुष्य को रैशनल होने से बाधित कर दे. आधुनिक होने का व्यापक अर्थ मानव मुक्ति में देखा गया था, वही मुक्ति और मानव के मान की संकल्पना 15वीं सदी में मैथिल दार्शनिक विद्यापति स्थापित करते हैं, और 18वीं सदी में पश्चिमी दार्शनिक हीगेल करते हैं. विद्यापति को महज कवि कोकिल बना उनके दार्शनिक, सामाजिक संदर्भ को अनदेखा किया गया है. विडंबना है कि हिंदी साहित्य संसार ने मैथिली पदावलियों के जरिये उन्हें अपना क्लेम तो कर लिया, पर फारसी के विद्वान खुसरो के साथ उन्हें महज ‘फुटकल रचना’ करनेवाले की संज्ञा भर दी.
आज जब हम धर्म और सामाजिक सरोकारों के द्वंद्व से जूझ रहे हैं, तब क्या हमारे पूर्ववर्ती समाज से कुछ लिखित या मौखिक परंपरा की विरासत है, जिसका फलक सर्वकालिक हो, शाश्वत हो? ऐसे में विद्यापति की पदावलियाें, जो कि संस्कृत में ना होकर देसिल बयना मैथिली में लिखी गयीं, का आशय हमें समझना होगा कि क्यों एक संस्कृत विद्वान ने अभिजातीय भाषा संस्कृत को छोड़ एक देसी, लोक भाषा को अपनी पदावलियों का माध्यम बनाया?
इन पदावलियों का उद्देश्य जनसामान्य के बीच आनंद अनुभूति के संचार का था, आम जन के कामानुभूति को वृहद, विषद रूप देकर पुरुषार्थ के परम लक्ष्य निर्वाण या मानव मुक्ति का था. यह उनका सामाजिक सरोकार ही था, जो कामानुभूति को अभिजात्य का अनुभव मात्र नहीं मानकर एक गाइडबुक रच रहा था, जो जनसामान्य की भाषा में, उनके एक अंतरंग संसार का निर्माण कर रही थी. उनके सामाजिक अस्तित्व की भूमि तैयार कर रही थी, मातृभाषा को गरिमा प्रदान कर रही थी.
उनकी पदावलियों के नायक और नायिका गैर-वैदिक परंपरा से निकले राधा-कृष्ण हैं, अभी तक के आदर्श परंपरा से भिन्न स्खलित स्त्री, ग्वालिन राधा और जन नायक कृष्ण जिन्हें हम मिथिला के शैव, वैष्णव और शाक्त परंपरा में पहले और बाद में भी कभी इतनी सामाजिक स्वीकृति देते नहीं सामने आते हैं, वही आम जन से व्यापक और अभिन्न कनेक्ट स्थापित करते गोप-ग्वालिन नायक/नायिका राजकवि विद्यापति के वृहद सामाजिक सरोकार की ही उपज माने जा सकते हैं.
समाज के आम जन को संक्रमण के काल में उनकी लोकभाषा, मातृभाषा, नायक-बिंब के जरिये एक संबल प्रदान कर रहा था, ऐसा सामाजिक-भाषाई संदर्भ हमें सामुदायिक सिद्धांत व्याख्या में बिरले ही मिलता है, तभी तो चैतन्य उनके पदों में परमानंद की अवस्था को प्राप्त करते थे, टैगोर उनसे प्रेरित हो छद्म नाम से ब्रजबुली में भानुसिंह रचनावली रच रहे थे. हालांकि, कुछ विद्वान इसे संक्रमण और संस्कृत के अवसान का काल नहीं मानते, क्योंकि मिथिला में अनेकों साहित्यिक और दर्शन (नबन्याय) संबंधी नये ग्रंथ लिखे जा रहे थे.
विद्यापति की ही एक अन्य रचना, पुरुषपरीक्षा, जो जेंडर विषयक/संबंधी भारतीय परंपरा में लिखी गयी पहली और आखिरी पुस्तक मानी जा सकती है.
इसका अनुवाद ग्रियर्सन ने टेस्ट ऑफ मैन, 1826 में किया, जिसे एक नीति नियामक ग्रंथ माना गया, जो पुरुषार्थ के लिए गुणों को अनिवार्य मान धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के संदर्भ में पुरुष की अवधारणा कायम कर रहा था, चरित्र निर्माण कर रहा था, जिसमें गुण महज शारीरिक भर नहीं थे. इसके धर्म संबंधी अवधारणाओं की तरफ जब हम देखते-समझते हैं, तो विद्यापति का धर्म महज निजी और शुद्ध निजी व्यापार (प्राइवेट अफेयर) है, पब्लिक/सार्वजनिक उद्घोष की उसमें तनिक भी गुंजाइश नहीं है. साथ ही, मोक्ष भी सामाजिक दायित्वों से प्रस्थान नहीं हैं, बल्कि व्यक्ति को मोक्ष सामाजिक सरोकारों के जरिये ही हासिल हो, ऐसी प्रस्तावना है.
पुरुषपरीक्षा शुद्ध रूप से एक लोकचर्या आधारित उपयोगितावादी सिद्धांत की अवधारणा सामने लाता है, जिसे बाद में पश्चिम के विचारक जेम्स मिल भी सामने लाते हैं. पुरुषपरीक्षा का पुरुष एक ऐसी लैंगिक अवधारणा है, जो अपने सेक्युलर स्वरूप में धर्म को निजी रखती है, शौर्य के गुणों को लेकर एक नीतिनियामक समाज का सरोकार रखती है. विद्यापति ही एक अन्य रचना कीर्तिलता में लिखे महज तीन शब्द ‘जीवन मान सौं (लाइफ विथ डिग्निटी)’ जब जीवन कैसा हो की इतनी समीचीन और अस्मितापरक व्याख्या करते हैं, तो आश्चर्य होता है कि नये संदर्भों के सामाजिक आंदोलनों का भान और रूपरेखा हमें कितनी सरलता से महज तीन शब्दों में मिल जाता है. कैसे आम जन की चिंता एक संस्कृत विद्वान को देसिल बयना तक ले आती है और कैसे मोक्ष और पुरुषार्थ अपने विषद रूप में जनसामान्य को प्राप्य बनाया जा सकता है.
क्या यही सामाजिक सरोकार और धर्म की सेक्युलर व्याख्या, बिना वर्ण/जाति के पुरुष की अवधारणा हमें किसी और दार्शनिक, साहित्य या राज्य निर्देश में नीति पाठ बनाकर निर्देशित कर पा रहीं हैं या यह नीति हीन, धर्महीन, लोकहीन समाजिक सरोकारों का दौर है, जिसमें हम धर्मांधता के द्वंद्व में फंस गये हैं? ऐसे में क्या विद्यापति का दर्शन हमें एक ऐसी दृष्टि दे सकता है, जहां निजी और सार्वजनिक की मिटती दूरी का खामियाजा समाज को नहीं उठाना पड़े!

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