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नेपाल-भारत संबंधों के आयाम

आनंद स्वरूप वर्मा नेपाल राजनीति के विशेषज्ञ एक ऐसे समय में, जब सारी दुनिया में और खास तौर पर देश में धार्मिक कट्टरता, अंधराष्ट्रवाद और फासीवाद को बढ़ावा देनेवाली ताकतें उभार पर हैं, नेपाल के ताजा चुनाव में कम्युनिस्टों की इतने बड़े पैमाने पर जीत समूचे दक्षिण एशिया की जनतांत्रिक शक्तियों का हौसला बढ़ाती है. […]

आनंद स्वरूप वर्मा

नेपाल राजनीति के विशेषज्ञ

एक ऐसे समय में, जब सारी दुनिया में और खास तौर पर देश में धार्मिक कट्टरता, अंधराष्ट्रवाद और फासीवाद को बढ़ावा देनेवाली ताकतें उभार पर हैं, नेपाल के ताजा चुनाव में कम्युनिस्टों की इतने बड़े पैमाने पर जीत समूचे दक्षिण एशिया की जनतांत्रिक शक्तियों का हौसला बढ़ाती है.

साल 2015 में नया संविधान बनने के बाद वहां की प्रतिनिधि सभा और प्रदेश सभा के लिए हुआ यह पहला चुनाव था. 275 सीटों वाली प्रतिनिधि सभा में 165 सीटें प्रत्यक्ष चुनाव (फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट) के जरिये तथा 110 सीटें समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से तय होनी हैं. 165 सीटों के लिए हुए प्रत्यक्ष चुनाव में नेकपा-एमाले (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और नेकपा (माओइस्ट सेंटर) यानी माओवादियों को अब तक 116 सीटें हासिल हो चुकी हैं.

अब गिनी-चुनी सीटों की मतगणना बाकी है. एमाले को 80 और माओवादियों को 36 सीटों पर कामयाबी मिली है. दोनों ने क्रमश: 103 और 60 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे. इस चुनाव में नेपाली कांग्रेस के सबसे ज्यादा 153 उम्मीदवार मैदान में थे, लेकिन उसे महज 22 सीटों पर ही कामयाबी मिली. देश की सबसे पुरानी और भारत समर्थक समझी जानेवाली इस पार्टी की इतनी बुरी हालत पहले कभी नहीं हुई थी.

राजतंत्र और हिंदू राष्ट्र समर्थक राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी को केवल एक सीट मिली है. इसके अध्यक्ष और राजतंत्र के प्रबल समर्थक कमल थापा को मकवानपुर निर्वाचन क्षेत्र में एमाले के प्रत्याशी कृष्ण प्रसाद दहाल ने तकरीबन छह हजार मतों से पराजित किया. अब इन पार्टियों को समानुपातिक प्रतिनिधित्व के खाते से ही कुछ मिलने की उम्मीद है, जिसकी गिनती होने में एक हफ्ते का समय लग सकता है. देश के कुल सात प्रदेशों के चुनाव नतीजे भी कमोबेश ऐसे ही हैं. केवल 2 नंबर के प्रदेश में वामपंथियों की स्थिति कमजोर है- शेष छह प्रदेश में भी वामपंथियों की ही सरकार बनेगी.

राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा इस चुनाव के बाद नेपाल-भारत और नेपाल-चीन संबंधों को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगायी जा रही हैं. नेकपा (एमाले) के अध्यक्ष केपी ओली का प्रधानमंत्री बनना तय है.

कई दशकों से ओली भारत के प्रिय माने जाते रहे हैं, लेकिन 2015 में नया संविधान बनने के बाद से भारत और ओली के संबंधों में खटास आती गयी, जिसकी चरम परिणति जुलाई 2016 में तब हुई, जब नेपाली कांग्रेस और प्रचंड ने अपना समर्थन वापस ले लिया और ओली की नौ महीने पुरानी सरकार गिर गयी. इसके बाद नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर माओवादियों ने प्रचंड के प्रधानमंत्रित्व में सरकार बनायी. नेपाली जनता और ओली समर्थकों ने इसे भारत का षड्यंत्र माना. इसमें प्रचंड की छवि भी काफी खराब हुई. दरअसल, मोदी सरकार इस संविधान से नाराज थी, क्योंकि इस संविधान ने नेपाल को ‘हिंदू राष्ट्र’ की बजाय एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ राष्ट्र की हैसियत दे दी थी.

सितंबर 2015 में संविधान जारी होने से महज दो दिन पूर्व भारत सरकार के विदेश सचिव जयशंकर ने नेपाल जाकर प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं से मिलकर दबाव डालने की कोशिश की थी कि वे संविधान जारी करने का काम स्थगित कर दें. इसके लिए उन्होंने मधेस की समस्या को बहाना बनाया था, जबकि वजह कुछ और थी. इसका खुलासा कुछ दिनों बाद ही भाजपा नेता भगत सिंह कोश्यारी के एक इंटरव्यू से हुआ, जिसमें उन्होंने बताया था कि किस तरह खुद उन्होंने और सुषमा स्वराज ने प्रचंड से ‘अनुरोध’ किया था कि वे संविधान में से ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द निकाल दें, लेकिन प्रचंड ने उनके सुझाव पर ध्यान नहीं दिया.

यह आश्चर्य नहीं कि संविधान 20 सितंबर को जारी हुआ और 21 सितंबर की रात से ही नेपाल की नाकेबंदी कर दी गयी. नेपाली जनता ने इसे नाराजगी में उठाया गया भारत सरकार का कदम माना, जबकि भारत सरकार का कहना था कि संविधान से असंतुष्ट मधेसी जनता ने यह कदम उठाया है. उस समय केपी ओली प्रधानमंत्री थे और उन्होंने मोदी सरकार से राहत की अपील की, लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया और नेपाली जनता नाकेबंदी का दंश झेलती रही.

ओली ने अपने दूसरे पड़ोसी चीन से मदद की गुहार की और चीन के सहानुभूतिपूर्ण रवैये को देखते हुए भारत ने नाकाबंदी समाप्त तो कर दी, लेकिन तब तक भारत और नेपाल के संबंध काफी बिगड़ चुके थे- न केवल सरकारी स्तर पर, बल्कि आम जनता ने भी नाकाबंदी के दौरान हुई तकलीफों के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार माना. इस नाकाबंदी ने ओली को नेपाली राष्ट्रवाद का प्रतीक तो बना ही दिया, भारत से दूर कर दिया और चीन के करीब ला दिया. ऐसे में नेपाल सरकार का भारत के प्रति क्या रुख होगा, यह देखना होगा.

लेकिन, नेपाल का हर राजनेता यह मानता है कि चीन कभी भी भारत का विकल्प नहीं हो सकता है- केवल सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से ही नहीं, बल्कि भौगोलिक कारणों से भी. जाहिर है, ऐसी हालत में आनेवाले दिनों में ओली सरकार भी अकारण भारत की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहेगी और जैसा कि ओली ने कई बार कहा भी है कि उनकी सरकार अपने दोनों पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाये रखेगी. बेशक, भारत को रिमोट कंट्रोल से नेपाल की राजनीति को संचालित करने की अपनी पुरानी आदत अब छोड़नी होगी.

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