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गुजरात चुनाव का सार संदर्भ

देवेश कुमार प्रदेश उपाध्यक्ष, बिहार भाजपा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और हाल में संपन्न नगर निकाय चुनावों में हार के बाद कांग्रेस अब गुजरात विधानसभा चुनाव में सब कुछ दांव पर लगा चुकी है. शायद यही कारण है कि जिस कांग्रेस ने अपने युवराज को पार्टी अध्यक्ष बनाने के लिए बेहतर मौके की तलाश में […]

देवेश कुमार

प्रदेश उपाध्यक्ष, बिहार भाजपा

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और हाल में संपन्न नगर निकाय चुनावों में हार के बाद कांग्रेस अब गुजरात विधानसभा चुनाव में सब कुछ दांव पर लगा चुकी है. शायद यही कारण है कि जिस कांग्रेस ने अपने युवराज को पार्टी अध्यक्ष बनाने के लिए बेहतर मौके की तलाश में लगभग दो दशक का वक्त गुजार दिया, उसने गुजरात विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद अपने नेता को अचानक पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया.

कांग्रेस की इस रणनीति के व्यापक नहीं तो कई मायने जरूर हैं. पहला, गुजरात में संगठन की बदहाल स्थिति के बावजूद कांग्रेस यह प्रतीत कराना चाह रही है कि उसकी स्थिति बेहतर है. दूसरा, देशभर के चुनावों में लगातार पस्त हो रही कांग्रेस के लिए गुजरात सांप्रदायिक तुष्टीकरण की राजनीति के लिए सबसे मुफीद जगह है और राहुल के चेहरे के साथ इसका इस्तेमाल कर भविष्य के लिए पार्टी में जान फूंकने की कोशिश की जा रही है. तीसरा, कांग्रेस के लिए बिना सवाल खड़े किये राहुल गांधी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का बेहतर मौका शायद नहीं मिले, जो गुजरात विधानसभा चुनाव में प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर संभव है.

कांग्रेस के भीतर से उठ रही तमाम सवालों और दबी हुई जुबानों के बीच सोनिया गांधी के स्वास्थ्य कारणों से पार्टी के भविष्य को लेकर चिंतित वफादार समूह ने गुजरात चुनावों के बीच में ही राहुल गांधी को उत्तराधिकारी घोषित कर उसके राजनीतिक भविष्य को ही दांव पर लगा दिया है. इसका मतलब तो यही होना चाहिए कि गुजरात चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद राहुल के राजनीतिक भविष्य पर ही सवाल खड़ा हो जायेगा और कांग्रेस के भीतर ही नये नेतृत्व की मांग उठेगी.

गुजरात चुनाव में पार्टी की फजीहत होती देख कांग्रेस ने मणिशंकर अय्यर के बयान पर उन्हें निलंबित कर क्राइसिस मैनेजमेंट करने की कोशिश की है, लेकिन क्या राहुल गांधी अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के विगत दिनों दिये गये बयानों पर भी माफी मांगेंगे. भाजपा के खिलाफ राजनीति करते हुए कांग्रेस का नैतिक, वैचारिक व सामाजिक पक्ष भी तिरोहित होता हुआ नजर आता है. इसलिए जिस बुनियाद पर कांग्रेस गुजरात में दम ठोंक रही है, उसकी भी समीक्षा हो जानी चाहिए.

कांग्रेस ने गुजरात के चुनाव में ओबीसी नेता अल्पेश ठाकुर और पाटीदार नेता हार्दिक पटेल को एक खेमे में खड़ा कर दोनों को ही ठगने का काम किया है. अगर कांग्रेस ओबीसी की हितैषी है, तो राहुल कुछ सवालों का जवाब दें.

गुजरात की सामाजिक पृष्ठभूमि में ओबीसी और पाटीदारों के हित को कांग्रेस एक साथ साधने की बात किस मुंह से कर रही है, जबकि दोनों के सामाजिक-आर्थिक हित का सवाल एक दूसरे की प्रतिरोधी है? क्या कांग्रेस दलित-ओबीसी के लिए आरक्षित कोटे के बाहर पाटीदार समाज को आरक्षण देना चाहती है, तो इसके लिए क्या संवैधानिक व्यवस्था है, उसका हवाला दे? क्या कांग्रेस ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षित कोटे से हिस्सा काटकर पाटीदार समाज को देना चाहती है, क्योंकि ओबीसी के भीतर अलग से मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने की बात कांग्रेस कालांतर में कर चुकी है (जो कांग्रेस का गुप्त एजेंडा भी है)? कांग्रेस बताये कि जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर आज तक कांग्रेसी नेताओं ने ओबीसी हितों के लिए खास क्या किया?

और किस नीति के तहत कांग्रेस ने पिछड़ा वर्ग आयोग को अब तक संवैधानिक दर्जा नहीं दिया था? अब जब केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार है, तो पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संकल्पित हैं. यह कितनी हास्यास्पद बात है कि देश में संवैधानिक नियमों के तहत जो पिछड़ा वर्ग आयोग बना, उसे आज तक संवैधानिक दर्जा नहीं प्राप्त है. जिस कांग्रेस ने आजादी के बाद से अब तक ओबीसी जमात के नेताओं को वोटबैंक के लिए बंधुआ बनाकर रखा और उनके हितों की अनदेखी करते रहे, वही नेता गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान पिछड़ा वर्ग का हितैषी बनने की कोशिश कर रहे हैं.

सीताराम केसरीजी राष्ट्रीय स्तर पर संगठन चुनाव में जीतकर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बननेवाले पहले ओबीसी थे, जिनको कार्यकाल रहते गांधी परिवारपरस्त कांग्रेसियों ने अपमानित कर पद से हटाकर उन्हें राज्यसभा सीट से भी वंचित कर दिया था.

कम ही लोगों को याद होगा कि केसरीजी का अपना दिल्ली में कोई घर नहीं था और राज्यसभा सीट से वंचित होने के बाद आवास खाली करने की स्थिति में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनके ‘7- एबी, पुराना किला रोड’ स्थित आवास को बतौर स्वतंत्रता सेनानी आजीवन एलॉट कर दिया था. आजीवन कांग्रेसी रहे केसरीजी का दुखद अपमान सोनिया-राहुल की पीढ़ी की बात है, तो नेहरू के काल में बाबा साहब अांबेडकर का अपमान दो पीढ़ी पूर्व के कांग्रेस की बात है.

यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए कि कांग्रेस को बाबा साहब अांबेडकर और सीताराम केसरी की आह लगी हुई है, जिसका बदला देश के दलित-ओबीसी समाज के लोग कांग्रेस से ले रहे हैं. गुजरात के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की लाख कोशिशों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी अपनी बढ़त बनाने में सफल है. इससे स्पष्ट है कि गुजरात की जनता निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर नहीं जाना चाहती है.

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