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राहुल गांधी में नया क्या है?

कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक चाह तो सभी रहे थे- पार्टी भी अौर लोग भी कि कांग्रेस को अपना यह अाखिरी हथियार भी अाजमा ही लेना चाहिए. तो उसने अाजमा लिया अौर राहुल गांधी कांग्रेस के नये अध्यक्ष बन गये. कोई पूछे कि राहुल में नया क्या है, तो जवाब अासान नहीं है, क्योंकि वे पिछले […]

कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
चाह तो सभी रहे थे- पार्टी भी अौर लोग भी कि कांग्रेस को अपना यह अाखिरी हथियार भी अाजमा ही लेना चाहिए. तो उसने अाजमा लिया अौर राहुल गांधी कांग्रेस के नये अध्यक्ष बन गये. कोई पूछे कि राहुल में नया क्या है, तो जवाब अासान नहीं है, क्योंकि वे पिछले वर्षों से देश की राजनीति में ताक-झांक भी करते रहे हैं, अौर सीधे उतर कर दो-दो हाथ भी करते रहे हैं.
उन्हें अपने पिता की तरह पार्टी की गद्दी प्लेट पर रखकर नहीं मिली है, अौर न दादी की तरह विधि के विधान की तरह; अौर न परनाना की तरह ऐसे मिली कि जैसे वे इसके लिए ही पैदा हुए थे. राहुल बहुत कुछ अनिक्षापूर्वक मां की मदद में अाये, कई बार गिरते-लुढ़कते राजनीति में अपनी जमीन तैयार की, अाधी-अधूरी ही सही, अपनी एक सोच भी देश के सामने रखी; फिर चुनावों की कमान संभाली अौर उसकी रणनीतियां तैयार कीं, हारे भी अौर पिटे भी. नरेंद्र मोदी मार्का लफ्फाजी अौर भाजपा मार्का अवसरवादिता के सामने कहीं से भी टिक न पाने के बावजूद वे टिके रहे.
बहुत सतही तरीके से सही, लेकिन देश के किसी भी दूसरे राजनीतिक नेता से अधिक वे किसानों अादि के सवालों लेकर संघर्ष करते हुए एक तरह की ताकत का प्रतीक बनते गये. गुजरात के चुनाव परिणामचाहे जो भी हों, राहुल देश की एक मान्य राजनीतिक अावाज बन चुके हैं. कांग्रेसी पहचानें कि यही राहुल गांधी का नयापन है.
राहुल ने वर्षों तक कांग्रेस के एक सिपाही की तरह देश के कोने-कोने में चप्पलें घिसी हैं, जबकि उन्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं थी. वे जब भी चाहते, कांग्रेस अध्यक्ष बन जाते! वंशवाद का अारोप अाज भी लग रहा है, तब भी लगता, लेकिन ऐसे अारोपों की कांग्रेसियों को कब फिक्र रही है! राहुल ने इतना संयम तो रखा कि पार्टी अौर सरकार दोनों पर विराजमान हो सकने के तमाम अवसरों को छोड़ा अौर अपनी पहचान व ताकत खुद ही बनायी.
उनकी मां ने भी ऐसा ही किया था. एक मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री बनने की जैसी जल्दीबाजी दिखायी अौर जैसी क्रूरता से उसे अंजाम दिया, अौर भारतीय राजनीति में चाटुकारिता का जैसा नया अध्याय जोड़ दिया, उसके सामने राहुल गांधी को रखें, तो हमें राहत महसूस होती है. किसने कहा कि भारतीय राजनीति के शीर्ष पर बैठने के लिए निजी ईमानदारी अौर भोलापन काफी है? ऐसे एक व्यक्ति के दिये जख्म अभी ताजा ही हैं.
राहुल गांधी ने ऐसे वक्त में कांग्रेस की कमान संभाली है, जब पार्टी रेगिस्तान में खड़ी है. यह रेगिस्तान में इसलिए खड़ी है, क्योंकि इसके पास संगठन जैसी कोई चीज बची नहीं है, इसके खाते में जिला स्तर के नेता भी नहीं रह गये हैं.
जो कुछ हैं वे सब छत्रप हैं, जिनकी हवाबाजी बहुत है, लेकिन हवा पर असर या पकड़ नहीं है. इसका शीर्ष नेतृत्व उनका है, जिनका राजनीतिक जीवन समाप्त हो चुका है. राजनीति को जो सत्ता में अाने-जाने का खेल समझते हैं अौर एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक ही जिनकी सारी दौड़ रहती है, उनके लिए किसी रणनीति के तहत काम करना अौर पार्टी की जड़ें सींचना संभव नहीं है.
राज्यों से कांग्रेस के हर जनाधार वाले नेता की जड़ काटना अौर मनमानी कलमें रोपना अौर इस तरह खुद को बड़ा अौर हरा रखना इंदिरा गांधी की राजनीतिक शैली थी. उन्होंने कांग्रेस की जड़ें खोदकर अपनी जड़ रोपी थी. यह राजमहल की वह राजनीति थी, जिसे देखते हुए राजीव गांधी बड़े हुए थे अौर यह मान बैठे थे कि राजनीति का मतलब बस इतना ही होता है. राजीव के बाद की कांग्रेस का कोई चरित्र नहीं रहा. वह इस या उस समीकरण से सत्ता में अानेवाली दरबारियों की वह पार्टी बन गयी, जिसे सोनिया गांधी ने संभाल रखा था.
सोनियाजी के लिए इससे अधिक कुछ करना संभव भी नहीं था, अौर जो संभव था वह उन्होंने बखूबी किया. मनमोहन सिंह का दोनों कार्यकाल जितना उनका नहीं था, उससे कहीं ज्यादा सोनिया का था. इसलिए जैसे दैत्याकार घोटाले उस दौर में हुए, उसकी जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकती हैं. राहुल भी बच नहीं सकते हैं, क्योंकि वे मां के साथ तब भी कांग्रेस के संचालकों में एक थे, अौर मां-बेटे दोनों में से किसी ने भी इस बारे में मनमोहन सिंह से सफाई मांगी हो या मनमोहन सिंह की मदद की हो कि वे ऐसे घोटालेबाजों को मंत्रिमंडल से निकालें अौर जेल भेजें, ऐसा उदाहरण हो, तो हमें पता नहीं है.
इन सबसे राहुल गांधी की जो तस्वीर उभरती है, वह बहुत अाशा तो नहीं जगाती है, लेकिन एक बड़ी बात यह है कि राहुल गांधी यहीं अाकर खत्म नहीं हुए. कांग्रेस के नेता-कार्यकर्ता की भूमिका में पार्टी को लोगों से जोड़ने की कोशिश में वे बराबर हाथ-पांव मारते रहे. पार्टी के भीतर चुनाव अादि की प्रक्रिया में सुधार से लेकर नागरिक जीवन में पार्टी की भूमिका के बारे में उनकी कोशिशें दूसरों से अलग भी रहीं हैं अौर अागे की भी. अब एक सजग, गतिमान राहुल को हम देख पा रहे हैं. लेकिन कांग्रेस को संभालते हुए भारतीय राजनीति में अपनी निश्चित जगह बनाने की दिशा में अभी उन्हें बहुत चलना है. वे चल सकते हैं, ऐसा भरोसा बन रहा है.
देश में भी अौर पार्टी में भी ऐसे लोग होंगे, जो मान रहे होंगे कि राहुल की अध्यक्षता की सफलता की एक ही कसौटी होगी कि वे कांग्रेस को सत्ता में कैसे लाते हैं. मैं तो कहूंगा कि राहुल इस कसौटी को स्वीकार न करें, न जेहन में रखें. कांग्रेस को सत्ता में वापस लाना न कोई लक्ष्य होना चाहिए अौर न उसकी रणनीति बननी चाहिए. राहुल की पहली कसौटी यह होगी कि क्या वे देश में ऐसा भरोसा पैदा कर सकते हैं कि कांग्रेस सत्ता के लायक है! कांग्रेस के क्षत्रपों को हिलाये बगैर यह संभव नहीं है. कांग्रेस नये लोगों की स्वाभाविक पसंद बने, यहां तक पार्टी को खींच लाना राहुल की प्राथमिकता होनी चाहिए. इसे समझने के लिए राहुल कांग्रेस का इतिहास टटोल सकते हैं.
क्या सत्ता अौर चुनाव के अलावा पार्टी की समाज में कोई भूमिका होती ही नहीं है? पर्यावरण संरक्षण, पेड़ों को बचाने व नये पेड़ लगाने का अभियान, पानी बचाअो तथा तालाबों का जीर्णोद्धार करना, खेती-किसानी की मदद की टोलियां गठित करना अौर उनके लिए मंडियों का जाल बिछाना, जातीय दमन व शोषण के खिलाफ संगठित प्रयास करना, पुलिस की अक्षमता के खिलाफ अावाज उठाना, महिलाअों की सुरक्षा के सवालों पर हमेशा उनके साथ तत्पर रहना अादि-अादि कितने ही गैर-राजनीतिक काम हैं, जिनसे राजनीति को नया चेहरा दिया जा सकता है. क्या राहुल कांग्रेस को इनकी तरफ मोड़ सकेंगे?

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