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देश में महिला उद्यमिता की मुश्किलें

हैदराबाद में आयोजित वैश्विक उद्यमियों के तीन दिवसीय सम्मेलन का फोकस महिला उद्यमिता और वैश्विक आर्थिक विकास को बढ़ावा देने पर रहा. इस सम्मेलन को विशेष अतिथि के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेटी इवांका ट्रंप ने भी संबोधित किया, जो खुद एक उद्यमी हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष प्रतिनिधि के तौर पर […]

हैदराबाद में आयोजित वैश्विक उद्यमियों के तीन दिवसीय सम्मेलन का फोकस महिला उद्यमिता और वैश्विक आर्थिक विकास को बढ़ावा देने पर रहा. इस सम्मेलन को विशेष अतिथि के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेटी इवांका ट्रंप ने भी संबोधित किया, जो खुद एक उद्यमी हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष प्रतिनिधि के तौर पर वह यहां पहुंची थीं. सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि भारत में नौकरियों के मामले में स्त्री-पुरुष भेदभाव को आधा भी कम किया जाये, तो अगले तीन साल में भारतीय अर्थव्यवस्था को 150 अरब डाॅलर का फायदा हो सकता है. महिला उद्यमियों के लिए पूंजी, पहुंच और समान कानून की वकालत करते हुए इवांका ने कहा कि लैंगिक अंतर को पाटने से वैश्विक जीडीपी में दो प्रतिशत की बढ़ोतरी हो सकती है.
महिला उद्यमी यानी ऐसी महिला, जो अपने लिए और दूसरों के लिए भी रोजगार सृजित करे. व्यवसाय के क्षेत्र में छिटपुट ही सही, समस्याओं का प्रभावी समाधान पेश करने के बावजूद भारत में उनकी संख्या सीमित है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएसओ) का कहना है कि भारत के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में से महज 14 फीसदी महिलाआंे द्वारा संचालित हैं. महिलाओं द्वारा संचालित अधिकतर उद्यम छोटे स्तर के हैं और स्वयं वित्तपोषित हैं. निश्चित ही इसका अर्थ यही है कि अपने घर की चहारदीवारी को लांघने के लिए महिलाओं द्वारा ली गयी तमाम पहलकदमियांे के रास्ते में अभी तमाम बाधाएं बनी हुई हैं.

बांग्लादेश की स्थिति भारत के बिल्कुल विपरीत दिखती है, जहां की निर्यात केंद्रित गार्मेंट उद्योग ने ढेरों महिलाओं को श्रमशक्ति का हिस्सा बनाया है. ‘महिला व्यवसाय मिल्कियत’ के एक सूचकांक में बांग्लादेश 54 देशों में छठे स्थान पर है, जबकि भारत का स्थान सऊदी अरब, मिस्र, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों की कतार में निचले पायदान पर है. महिला उद्यमियों की कम संख्या तथा बड़े व्यवसायों में उनकी सीमित भागीदारी के चलते अब हमारी सरकारों तथा विकास संगठनों को उनके लिए प्रोत्साहन योजनाओं की जरूरत महसूस हो रही है. इसलिए कुछ समय पहले महिला बैंक, महिला पोस्ट आॅफिस, महिला हाट आदि के लिए यही तर्क दिये जा रहे थे कि इससे महिलाओं को अपना व्यवसाय खड़ा करने में मदद मिलेगी.

इसके लिए भारत में नीति एवं योजनाएं तो बनी हैं, लेकिन कुल मिलाकर वह निष्प्रभावी ही साबित हुई हैं. कई राज्यों में लघु उद्योग विकास निगम हैं, राष्ट्रीयकृत बैंक भी महिला उद्यमियों के लिए कुछ सुविधा मुहैया कराता है, विकास आयुक्त के कार्यालय में भी अलग से महिला कक्ष होता है, मगर अभी उत्साहजनक स्थिति नहीं है. केंद्र और राज्य सरकारों की इतने स्तरों की योजनाओं का असर आखिर जमीन पर प्रभावी क्यों नहीं हो रहा है, इसे समझा जाना चाहिए. सरकारी नीतियों में खामियाें के साथ हमारे समाज तथा पारिवारिक ताने-बाने को भी देखना होगा कि ये सारी चीजें महिला उद्यमियों के लिए कितना अनुकूल वातावरण तैयार कर पाती हैं.

उद्योगों के प्रोत्साहन के लिए सरकार द्वारा जो सहायता प्रदान की जाती है, उसके जारी आंकड़ों में भी महिला उद्यमिता की विषम स्थिति रेखांकित होती है. योरस्टोरी की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, साल 2016 में 670 स्टार्टअप को आर्थिक मदद दी गयी, इसमें सिर्फ 3 फीसदी महिलाओं के हैं. अगर उसका ब्रेकअप देखें, तो 83 फीसदी स्टार्टअप पुरुषों ने शुरू किये, 14 फीसदी स्टार्टअप स्त्री-पुरुषों ने मिलकर शुरू किये और बाकी 3 फीसदी खालिस महिलाओं ने शुरू किये. टेक्नोलॉजी और फाइनेंस के क्षेत्र में लैंगिक अंतर सबसे अधिक देखा गया है. कई बैंकों एवं फाइनेंस सेक्टर के कुछ शीर्ष पदों पर पहुंचने और अच्छा परिणाम देने के बावजूद निवेशकों का भरोसा महिलाओं पर नहीं बन रहा है. इसलिए भी उनका मनोबल नहीं बढ़ पा रहा है.
आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? समाज में स्त्री की उपेक्षित तथा कमजोर स्थिति और पुरुष प्रधान मानसिकता कई प्रकार की बाधाएं खड़ी करता है. परिवार में गृहकार्य का बोझ औरत पर ही होता है, गतिशीलता पर प्रतिबंध तथा बाहर का असुरक्षित वातावरण भी अघोषित प्रतिबंध लगाता है. अधिक लोगों से संपर्क का अवसर नहीं मिलता है, तो उद्योग चलाने के लिए नेटवर्क नहीं बन पाता है.
महिलाओं को अवसर प्रदान करने को लेकर पूर्वाग्रहों को हम कॉरपोरेट कंपनियों के शीर्षस्थ स्थानों पर भी देखते हैं. लगभग तीन साल पहले देश में बाजार नियामक संस्था ‘सेबी’ ने कंपनियांे को निर्देश दिया था कि सूचीबद्ध सभी कंपनियों को अपने निदेशकमंडल में कम-से-कम एक महिला निदेशक नियुक्त करना है. महिलाओं को बोर्ड में शामिल करने या बोर्ड को जेंडर के मामले में अधिक विविधतापूर्ण बनाने पर जोर देने के पीछे उसकी सोच थी कि ‘विविधता से निर्णय लेने के मामले में परिप्रेक्ष्य भी व्यापक होते हैं, और कंपनियां अपने स्टेकहोल्डर्स से बेहतर तालमेल बना सकती हैं.’ इसमें निर्धारित समय के भीतर निर्देश को नहीं माननेवालों में हजारों कंपनियां शामिल थीं. ‘सेबी’ अध्यक्ष को कड़े शब्दों में कहना पड़ा कि यह शर्मिंदगी की बात है कि लगभग 9 हजार कंपनियों को अपने बोर्ड आॅफ डायरेक्टर में शामिल करने के लिए कोई योग्य महिला नहीं मिल पा रही है.
अंजलि सिन्हा
सामाजिक कार्यकर्ता
anjali.sinha1@gmail.com

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