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भारतीय मीडिया और लोकतंत्र@70

छापाखाने के आविष्कारक गुटनबर्ग से फेसबुक के आविष्कारक जुकरबर्ग तक आते-आते वैश्विक मीडिया आमूलचूल बदल गया है, जिसका भारतीय मीडिया भी अब एक अविभाज्य हिस्सा है. सिर्फ तकनीकी ही नहीं, खबरों के संकलन, उनको पेश करने के तरीके और खबरों का स्वरूप हर कहीं छापा, दृश्य-श्रव्य और नेट पर आज से सात दशक पहले के […]

छापाखाने के आविष्कारक गुटनबर्ग से फेसबुक के आविष्कारक जुकरबर्ग तक आते-आते वैश्विक मीडिया आमूलचूल बदल गया है, जिसका भारतीय मीडिया भी अब एक अविभाज्य हिस्सा है. सिर्फ तकनीकी ही नहीं, खबरों के संकलन, उनको पेश करने के तरीके और खबरों का स्वरूप हर कहीं छापा, दृश्य-श्रव्य और नेट पर आज से सात दशक पहले के मीडिया से बिल्कुल अलग दिखता है.

यह सही है कि भारत में अब भी नये किस्म के मीडिया ने पुराने प्रिंट मीडिया का वैसा बैंड नहीं बजाया है, जैसा उन्नत पश्चिमी देशों में, लेकिन अखबारों के सिकुड़ते पाठकीय जनाधार और घटती विज्ञापनी आय के कारण अंग्रेजी मीडिया बाजार में मंदी और छंटनियों की पदचाप सुनायी पड़ने लगी है, पर हिंदी वाले बताशे बांटना न शुरू करें. आनेवाले दशक में जैसे-जैसे ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी बढ़ेगी और छोटे शहरों और देहात के पाठक-दर्शकों को त्वरित भाषाई अनुवाद की सुविधा वाले सस्ते स्मार्ट फोन और लैपटॉप मिलने लगेंगे, वैसे-वैसे भाषाई अखबारों और टीवी पर भाषाई न्यूज देखनेवालों की तादाद कम होती जायेगी और आज का जमाना भाषाई मीडिया की नयी पीढ़ी के ग्राहकों के लिए एक बीते वक्त की याद बनकर रह जायेगा.

उन्नत डिजिटल तकनीक के साथ ही भारतीय मीडिया में मालिकी तथा संपादकी का पुराना रूप भी बदल रहा है. आज कई पुराने साखवाले लोकल या क्षेत्रीय अखबार या तो बंद हो रहे हैं या किसी बड़े अखबार समूह द्वारा खरीदकर उसका हिस्सा बन गये हैं. टीवी के लिए खबर या मनोरंजन के कार्यक्रमों के निर्माण और वितरण के नाना प्लेटफॉर्मों-संगठनों के बड़े उद्योग उपक्रमों का भाग बन जाने से कार्यक्रमों के स्वरूप, गुणवत्ता और उपलब्धि तीनों पर गहरा असर पड़ रहा है. आज देश के कुछ गिने-चुने बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों ने जो सीमेंट से लेकर क्रिकेट, ऑटो, टेक्सटाइल और केमिकल्स से लेकर निर्माण और तेल-दाल के उद्योग जगत तक में बड़ी उपस्थिति रखते हैं. वे कई-कई प्रिंट माध्यम, टीवी तथा रेडियो चैनलों के साथ केबल तथा हवाई बैंड विड्थ को एक साथ धारण कर बेहद विराट मल्टी मीडिया साम्राज्य बना लिये हैं. इसने छोटे खिलाड़ियों की मीडिया में मौजूदगी बहुत कठिन बना दी है.

सूचना संसार में आज तक पाठकों-दर्शकों के हितों-सरोकारों का खयाल रखते रहे संपादक और उसकी टीम कहीं आड़े न आएं, इसलिए उनके समांतर मीडिया संस्थानों में शेयरधारकों के निवेशकीय हितों के संरक्षक के बतौर एक विपणन विशेषज्ञ सीइओ और उसकी टीम का निगरानी दस्ता कायम है. पाठकों-दर्शकों, श्रोताओं का अनुभव भी इसका गवाह है कि खबरों में अक्सर तथ्यों की बहुलता और प्रामाणिकता से कहीं अधिक जोर उद्योग विशेष या दल विशेष के हितों को उभारने पर रहता है.

आज 40 से कम उम्र का मीडिया ग्राहक बहुसंख्य पाठक-दर्शक है. वह कहीं भी रहता हो, अब पेशे और पैसे को लेकर अपने पूर्ववर्तियों से कहीं अधिक आक्रामक और अपनी सोच तथा सरोकारों को लेकर पक्का शहरी जीव है. वह सोशल मीडिया में उपस्थिति दर्ज करवा के खुद को आधा पत्रकार भी मानने लगा है. ऐसे युवा को संपादकीय लेख और लंबे ब्योरे उबाते हैं. उसे खबरों का वह उत्तेजक चटपटा गुलदस्ता पसंद है, जहां लगातार ब्रेकिंग न्यूज की उत्तेजना मिले और जिसमें बॉलीवुड, क्रिकेट, गुजरात चुनाव, मिस वर्ल्ड की नवीनतम पोशाक सब पर सचित्र सामग्री उपलब्ध हो. जहां वह कभी-कभी सिटिजन जर्नलिस्ट बनकर भागीदारी भी कर सके.

इंटरनेट की आज दो शक्लें हैं. एक भव्य, उजली और ज्ञान से भरपूर, दूसरी स्याह और खुराफाती. हम सब सर्च इंजनों और विविध ई-पोर्टलों के ज्ञान और उनके लिंक्स से जुड़कर दिमाग को दुनियाभर से आ रही सूचनाओं और विचारों के प्रवाह से तुरंत जोड़कर समृद्ध होते रहते हैं. लेकिन, इसी सुविधा ने साइबर स्पेस में बैठे पेशेवर हैकरों के लिए सूचनाओं, जानकारियों और ग्राहकों की पहचान व पसंद के तमाम बिकाऊ ब्योरों व जानकारियों में सेंध लगाने के कई चोर दरवाजे भी खोल दिये हैं. अमेरिकी सरकार, पनामा या स्विस बैंकों के गुप्त राज लीक होने से साफ हो गया है कि अभी साइबर अपराधों को रोकने और इनको वाजिब दंड देने में मौजूदा साइबर कानून नाकाम हैं.

आज एकल ही नहीं, सरकारों, सरकारी खुफिया प्रकोष्ठों तथा कॉरपोरेट जगत से भी इनको मोटे ग्राहक मिलने लगे हैं. ये ग्राहक शत्रु सरकारों और बाहरी देशों के अपने पसंदीदा नेता को चुनाव जितवाने और नापसंदों को हरवाने के लिए बड़ी फीस देकर ऐन चुनाव के समय उनके शर्मनाक राज-मामले उजागर करने का काम तक इन अनैतिक साइबर खुफिया दस्तों को सौंप रहे हैं.

एक समय था, जब इंटरनेट की एक जैसी सेवाएं हर देश में जनता को मुफ्त मिलती थीं. इसका लाभ यह था कि इससे साइबर स्पेस में एक लोकतांत्रिक समता का माहौल बना और गरीब व विकासशील देशों के साक्षर नागरिकों के लिए ज्ञान और सूचना के कई रास्ते खुले. आज अमेरिका गंभीरता से नेट के बड़े खिलाड़ियों की मांग पर इसके प्रयोग पर फीस लगाने की तरफ बढ़ रहा है. ऐसा हुआ तो साइबर ज्ञान में एक नया वर्णाश्रमी सिस्टम बनने का भय है, जिसके तहत अमीर लोग नव-ब्राह्मणत्व पाकर ज्ञान के उच्चतम रूपों को ग्रहण करते रहेंगे, और कुछ कम अमीर देशों के लोग बमुश्किल उसका जरूरी अंश देख सकेंगे.

यह सब देख-सुनकर हाल में वर्ल्ड वाइड वेब के आविष्कारक टिम बर्नर ली ने कहा है कि अब उनको भी इस अनमोल आविष्कार के भविष्य पर नेट की सर्वसुलभता (नेट न्यूट्रलिटी) को मिल रही चुनौतियों, फेक न्यूज की बढ़त और नेट की मदद से आतंकी विचारधाराओं के हिंसक ध्रुवीकरण के कारण गहरे बादल घिरते दिख रहे हैं. वे लिखते हैं, ‘मैं अभी तक आशावादी तो हूं, पर इस समय मुझे लगने लगा है कि मैं एक पर्वत की चोटी पर खड़ा अपने चेहरे पर किसी भयावह तूफान के थपेड़े झेलता हुआ किसी तरह एक जंगला पकड़कर खुद को बचा रहा हूं.’ अब समय है कि जो लोग भी लोकतंत्र में सही सूचनाओं के खुलापन और मीडिया में लोकतांत्रिकता के पक्षधर हैं, वे आनेवाले समय के तूफानों को झेलने और वैचारिकता में सचाई को बचाये रखने के तरीकों पर समवेत विचार शुरू कर दें.

मृणाल पांडे

वरिष्ठ पत्रकार

mrinal.pande@gmail.com

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