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जन्मशती पर नमन उन्हें है

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक नरेंद्र मोदी के बारे में एक अपुष्ट कहानी प्रचलित है कि प्रधानमंत्री पद हेतु स्वयं को तैयार करते वक्त उनके सामने अनुकरण के लिए दो नेताओं के उदाहरण थे. एक तो अपनी ही पार्टी के अटलजी थे, जबकि दूसरी उनकी विपक्षी पार्टी की इंदिराजी. मोदीजी ने बेहिचक इंदिराजी […]

पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
नरेंद्र मोदी के बारे में एक अपुष्ट कहानी प्रचलित है कि प्रधानमंत्री पद हेतु स्वयं को तैयार करते वक्त उनके सामने अनुकरण के लिए दो नेताओं के उदाहरण थे. एक तो अपनी ही पार्टी के अटलजी थे, जबकि दूसरी उनकी विपक्षी पार्टी की इंदिराजी. मोदीजी ने बेहिचक इंदिराजी का चुनाव किया, क्योंकि वे उनकी ही तरह निर्णायक, एकाधिकारवादी, दृढ़, निश्चयी, उद्देश्य केंद्रित, मजबूत तथा विरोधियों से निपटने में भावनाविहीन दिखना चाहते थे.
इंदिराजी की जन्मशती पर चिंतन करना दिलचस्प होगा कि क्यों भारत की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री का जनता के दिलो-दिमाग पर आज भी इतना ज्यादा असर बरकरार है. हालांकि, ‘आपातकाल’ द्वारा लोकतंत्र पर अपने सीधे हमले के लिए भी उन्हें याद किया जाता है.
पर यहां यह तथ्य भी विचारणीय है कि 1980 में वे अपनी शानदार वापसी में सफल रहीं और एकाधिकारवादी रवैये के उस संक्षिप्त दौर की बजाय आज राजनीतिक विचक्षणता की वजह से उनकी सराहना होती है. करिश्माई नेताओं का वजूद अंशतः किंवदंतियों तथा अंशतः इतिहास का विषय हो जाया करता है.
समय की धारा या तो उनकी खामियां मिटाती उनकी खूबियां उजागर करती चलती है अथवा वह कभी इसका विपरीत भी कर गुजरती है. लोगों के दिलों में इंदिराजी की जो शख्सीयत जिंदा है, वह एक ऐसी शालीन महिला की है, जिसने कभी हार नहीं मानी, जिसका हाथ हमेशा जनता की नब्ज पर रहा, जिसका सियासी समय-बोध विलक्षण था, जिसमें चातुर्य कूट-कूटकर भरा था, जो विरोधियों से निर्ममतापूर्वक निपटती थी, जिसमें असंदिग्ध सौंदर्य-बोध था, जो जरूरत पड़ने पर मजबूत फैसले ले सकती थी और जिसने एक शहीद की मौत पायी.
जो कुछ लोगों को आकृष्ट करता है, वह एक व्यक्ति के रूप में उनका रूपांतरण भी था. कहां तो उनके जीवन का बड़ा हिस्सा एक अस्थिर जीवन जीती असुरक्षित बच्ची से आगे अपने पिता के कद्दावर साये में बौनी बनी, फिरोज के साथ एक अप्रसन्नताजनक वैवाहिक जीवन में फंसी एक शर्मीली, अलग-थलग तथा खुद में सिमटी महिला-जिसे उसके विरोधियों ने ‘गूंगी गुड़िया’ तक कह डाला-और फिर भारतीय राजनीति के कपटपूर्ण जलाशय में एक मछली जैसी निरीह दिखती राजनेता का रहा. और जब उनका गौरव-काल आया, तो 1971 के युद्ध में पाकिस्तान का अंगभंग करती उनकी वह वीरांगना छवि, जिसे तब के ‘नेता प्रतिपक्ष’ अटलजी ने ‘दुर्गा’ के सटीक रूपक से नवाजा.
एक सियासतदां के रूप में उनकी वास्तविक परीक्षा आपातकाल उठाने के पश्चात 1977 के आम चुनावों के दौरान उनकी निर्णायक पराजय के वक्त हुई. यह उनके लिए एक ऐसा कठिन वक्त था, जब जोड़तोड़ से बनी जनता पार्टी की अक्षम रीति-नीति के ठीक विपरीत उनका राजनीतिक कौशल उजागर हुआ.
उन्हें अपमानित करने की प्रत्येक कार्रवाई पर उनका प्रत्युत्तर प्रत्युत्पन्नमति से भरा एवं सटीक रहा. तत्कालीन गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह ने जब उन्हें गिरफ्तार करने को पुलिस भेजी, तो उन्होंने तैयार होने में वक्त लिया और उसी दौरान पूरे मीडिया और पार्टी कार्यकर्ताओं तक इसकी सूचना पहुंचवा दी. जब जेल के लिए प्रस्थान करने का समय आया, तो उन्होंने बगैर हथकड़ी पहने जाने से इनकार कर दिया, जो उस पुलिस के पास थी ही नहीं. उन्होंने जेल में महज एक रात बितायी और दूसरे ही दिन उन्हें बिना शर्त रिहा कर दिया गया.
दिसंबर 1978 में उन्हें एक बार पुनः हिरासत में लिया गया. उस वक्त की एक घटना उनकी राजनीतिक कौशल का परिचय देती है. 23 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में चरण सिंह का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जा रहा था.
इंदिराजी ने जेल से ही एक वरीय कांग्रेस नेता को विस्तृत निर्देश दिया कि वे एक बड़ा पुष्पगुच्छ खरीदें, एक टैक्सी लें और रामलीला मैदान जाकर मंच तक पहुंचें. एक बार जब वे मंच पर पहुंच जायें, तो उन्हें यह सुनिश्चित करना था कि चौधरी साहब को इंदिराजी की ओर से वह पुष्पगुच्छ सार्वजनिक रूप से भेंट किया जाये. उस नेता ने वैसा ही किया और चरण सिंह ने स्वयं ही खुशी-खुशी यह घोषणा की कि इंदिराजी ने उन्हें फूल भेज जन्मदिन की बधाई दी है.
तीन ही दिनों बाद इंदिराजी जेल से बाहर थीं और अगले ही वर्ष चरण सिंह जनता पार्टी के अपने साथियों से विलग हो कांग्रेस के उस समर्थन से प्रधानमंत्री बन गये, जिसे कांग्रेस ने कुछ ही दिनों बाद वापस लेकर अगला आम चुनाव सुनिश्चित करा दिया. और फिर 1980 के उस चुनाव के नतीजतन इंदिराजी विशाल बहुमत से वापस सत्ता में पहुंच गयीं. हाथी पर सवार होकर बेलछी यात्रा की उनकी वह अमिट छवि भी उनकी सियासी सूझ की अनोखी मिसाल है, जब बिहार के इस गांव में नौ दलितों को जीवित जला दिया गया था.
जनता पार्टी का कोई भी वरिष्ठ नेता वहां नहीं पहुंचा, जबकि इंदिराजी ने विमान से पटना पहुंच, कार से सड़क यात्रा की. बेलछी से कुछ दूर पहले खराब सड़क की वजह से जब कार आगे नहीं बढ़ पायी, तो उन्होंने जीप पकड़ी. जीप के भी जवाब देने पर वे ट्रैक्टर पर सवार हुईं और जब आगे वह भी काम न दे सका, तो वे हाथी पर सवार होकर बेलछी के पीड़ितों तक पहुंच गयीं. अगले दिन उनकी वह तस्वीर समाचार पत्रों के मुखपृष्ठ पर थी.
हर महान नेता की अपने हिस्से की कमजोरियां और त्रुटियां होती ही हैं.इंदिराजी का किसी पर भी यकीन न था, उन्होंने अपने हाथों में सत्ता केंद्रित कर ली, लोकतांत्रिक संस्थानों की स्वयत्तता सिमटाने में उन्हें कोई हिचक न हुई, अपने छोटे बेटे संजय की मनमानियों के प्रति वे अति सहनशील बनी रहीं, हमेशा दोयम दर्जे के चापलूसों की पहुंच में रहीं और उन्होंने भिंडरावाला जैसे लोगों को लंबे वक्त तक बरदाश्त करने की घातक गलती भी की.
उनके कई बड़े उदात्त गुण भी थे, जिनके अंतर्गत एक सौंदर्यबोध संपन्न व्यक्ति के रूप में भारतीय कला एवं शिल्प के प्रति उनकी प्रतिबद्धता भी शामिल थी. इस अर्थ में उन्होंने अपने पिता के बौद्धिक परिष्कार की पूरी विरासत पायी थी. इसे जानने के लिए ‘टू अलोन, टू टुगेदर’ नामक पुस्तक पढ़नी चाहिए, जो इंदिराजी तथा उनके पिता के बीच पत्र व्यवहार का बड़ा संकलन है. इसमें नेहरू की विद्वत्ता नहीं (क्योंकि वह तो सर्वविदित है), बल्कि इंदिरा के लिखे बौद्धिक, पैने, जानकारीपूर्ण तथा सुविचारित उत्तर पाठकों को चमत्कृत कर जायेंगे.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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