36.9 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

”एकेडमिक फ्रीडम” का प्रश्न

मुक्तिबोध जन्मशती वर्ष में हमने 1962 में ही मुक्तिबोध द्वारा व्यक्त की गयी ‘एकेडमिक फ्रीडम’ की चिंता पर कम विचार किया है. अपनी पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ पर लगायी गयी पाबंदी को उन्होंने व्यापक रूप में देखा था- ‘आज यह आंदोलन मेरे विरुद्ध है, मेरी पुस्तक के विरुद्ध है. कल यह अन्य विद्वानों, विचारकों […]

मुक्तिबोध जन्मशती वर्ष में हमने 1962 में ही मुक्तिबोध द्वारा व्यक्त की गयी ‘एकेडमिक फ्रीडम’ की चिंता पर कम विचार किया है. अपनी पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ पर लगायी गयी पाबंदी को उन्होंने व्यापक रूप में देखा था- ‘आज यह आंदोलन मेरे विरुद्ध है, मेरी पुस्तक के विरुद्ध है. कल यह अन्य विद्वानों, विचारकों और लेखकों के विरुद्ध होगा.’ एकेडमिक फ्रीडम का प्रश्न आज भी बड़ा प्रश्न है. शैक्षणिक और अकादमिक स्वतंत्रता को बाधित कर समाज का विकास नहीं किया जा सकता. ‘उस पर गहरी चोट से अध्ययन तथा अभिव्यक्ति के स्वातंत्र्य को खतरा, वैज्ञानिक दृष्टि को खतरा है.’ ‘अंधेरे में’ कविता में उन्होंने ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने की बात कही थी. हिंदी कवियों, लेखकों, विद्वानों, विचारकों ने यह खतरा कम उठाया है.
अभी दलित चिंतक-विचारक कांचा इलैया की पुस्तक ‘पोस्ट हिंदू इंडिया’ पर प्रतिबंध लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया है. चीफ जस्टिस दीपक मिश्र की बेंच ने पुस्तक को प्रतिबंधित करने से इनकार किया है और यह कहा है कि विवादित होने के कारण ही किसी किताब को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता. संविधान में ‘अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार’ है और किसी भी कीमत पर इस अधिकार की रक्षा की जानी चाहिए. स्वतंत्र अभिव्यक्ति लोकतंत्र का आधार है, आधार पर प्रहार पूरे लोकतंत्र पर प्रहार है. समावेशी और जीवंत लोकतंत्र में कोई एक विचार दृष्टि नहीं रह सकती. आर्य वैश्य जाति पर लिखित कांचा इलैया की पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की जनहित याचिका आर्य वैश्य एसोसिएशन के नेता और वकील रामजने थुलू ने दायर की थी. इससे आगे बढ़कर भीड़ ने लेखक की कार पर हमला किया और तेदेपा के एक सांसद ने पुस्तक को सामाजिक विभाजन करनेवाली कहकर कांचा इलैया को ‘देशद्रोही’ घोषित कर फांसी देने की बात कही. ऐसी घटनाओं से भारत की छवि धूमिल होती है. संयुक्त राज्य अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य हेरोल्ड ट्रेंट फ्रैक्स ने अपनी संसद में इस घटना का उल्लेख कर पूरे विश्व में व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लगातार उल्लंघन की बात कही.
एक ध्रुवीय विश्व और नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहले की तुलना में कहीं अधिक संकट बढ़ा है. नागार्जुन ने बहुत पहले लिखा था- ‘सिकुड़ा-सिमटा हृदय तुम्हारा‍‍/आओ इस पर लोहा कर दूं.’ निराला और नागार्जुन का समय आज के समय से भिन्न था. निराला और नागार्जुन ने नेहरू पर जैसी कविताएं लिखी हैं, क्या आज वैसी कविताएं लिखी जा सकती हैं? गांधी ने बार-बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बल दिया है. 24 अगस्त, 1945 के ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा- व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्वराज का अधार है. विचारों की स्वतंत्रता और संगति की स्वतंत्रता को उन्होंने ‘मनुष्य के दो फेफड़े’ कहा है. किताबों पर पाबंदी लगाना, उन्हें जलाना पहले भी होता था, पर अब इनकी संख्या बढ़ रही है. एचजी वेल्स की पुस्तक ‘ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ दि वर्ल्ड’ (1922) के जमात-उल-मुसलमीन द्वारा 1938 में जलाये जाने का उल्लेख अभी रामचंद्र गुहा ने अपने एक लेख में किया है.
ब्रिटेन में आलोचना स्वीकार्य है. वहां ईसाई धर्म और ईसा मसीह की भी आलोचना की जाती है. अभिव्यक्ति पर वहां प्रतिबंध नहीं है. अमेरिका में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कायम है, पर वैश्विक स्तर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पहले जैसी नहीं है. फिलहाल एक उदाहरण पोर्टलैंड स्टेट यूनिवर्सिटी के राजनीति-विज्ञान के प्रोफेसर ब्रुस गिले के ‘थर्ड वर्ल्ड क्वाॅर्टरली’ में पिछले महीने प्रकाशित ‘दि केस फॉर कॉलोनियलिज्म’ का है. इस लेख में औपनिवेशिक शासन को लाभकारी और न्यायपूर्ण ठहराकर विकासशील देशों में पुन: उपनिवेश कायम करने की बात कही गयी है. पत्रिका के संपादक मंडल के 34 सदस्यों में से 15 ने त्यागपत्र दे दिया है. लेखक को धमकी भी मिली और कइयों ने इसे स्वतंत्र अभिव्यक्ति के खिलाफ माना है. लेख की गुणवत्ता का प्रश्न सही है, पर धमकी देना सही नहीं है. आलेख को कड़े और संतुलित एकेडमिक स्टैंडर्ड पर खरा न उतरने का आरोप सही है, पर प्रश्न उसी एकेडमिक स्वतंत्रता का है, जिस ओर मुक्तिबोध ने ध्यान दिलाया था. विचारों की काट और आलोचना केवल विचार से ही संभव है.
विचार का संहार किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है. वैचारिक बहुलता वैचारिक समृद्धि से जुड़ी है. वैचारिक तानाशाही सामाजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक प्रगति में सदैव बाधक रही है. एकेडमिक और वैचारिक स्वतंत्रता का सदैव आदर-सम्मान किया जाना चाहिए. भारत दुनिया का अकेला देश है, जहां एक साथ कई दर्शन, विचारधाराएं, परंपराएं मौजूद रही हैं. मुख्य प्रश्न यह है कि उन्मादी-अविवेकी पूंजी के दौर में विवेक, तर्क, बहस, संवाद का माहौल कैसे बना रहेगा? कैसे एकेडमिक संस्थाओं में यह सब जीवित रहेगा? शैक्षणिक स्वतंत्रता और वैचारिक स्वतंत्रता का संबंध सामाजिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता से भी है. एकेडमिक स्वतंत्रता पर खतरा समाज पर खतरा भी है.
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
ravibhushan1408@gmail.com

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें