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Thursday, March 28, 2024

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महानंदा पर तटबंध से तबाही

मणींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू हाल में प्रसिद्ध विद्वान अयाची मिश्र के गांव सरिसबपाही में मुख्यमंत्री के साथ मंच साझा करने का मौका मिला, तो नजदीक से उनको सुना. उनका कहना था कि ‘हमें प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए; प्रकृति हमें इसकी सजा देती है.’ अपने शोध के सिलसिले में कटिहार के […]

मणींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
हाल में प्रसिद्ध विद्वान अयाची मिश्र के गांव सरिसबपाही में मुख्यमंत्री के साथ मंच साझा करने का मौका मिला, तो नजदीक से उनको सुना. उनका कहना था कि ‘हमें प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए; प्रकृति हमें इसकी सजा देती है.’ अपने शोध के सिलसिले में कटिहार के कदवा प्रखंड में महानंदा तटबंध के अंदर कुछ गांवों में घूमते हुए बाढ़ से प्रताड़ित लोगों से मिलने का मौका मिला. उनकी बदहाली और हताशा देखकर रोना आ गया. प्रकृति के इसी आक्रोश का मंजर मुझे नजर आया.
वहां के लोगों का मनना है कि उनके दुर्भाग्य का प्रतीक है महानंदा पर बना तटबंध. इसके बनने के पहले इस इलाके के लोगों ने बाढ़ के साथ अपना तारतम्य स्थापित कर लिया था. हर साल बाढ़ का आना तय था.
धान का एक खास किस्म यहां खूब होता था. बाढ़ में मछली आ जाती थी और लोग भात-मछली के भोजन से संतुष्ट रहते थे. बाढ़ से जलाशय भर जाते थे, जमीन के नीचे जल स्तर रीचार्ज हो जाता था. नयी मिट्टी खेत की उर्वरा शक्ति बनाये रखती थी. फिर यह तटबंध बना और दुर्भाग्य का दौर शुरू हुआ. पहले पानी आता था, दो तीन दिनों में निकल जाता था.
लगता था प्रकृति ने सिंचाई का प्रबंध कर रखा हो. अब पानी आने पर टिक जाने लगा और फसल को बर्बाद करने लगा. धान की कितनी ही किस्में गायब हो गयीं. खेतों की प्रकृति बदल गयी. जीवट लोग फिर भी डटे रहे. अपने तरीकों को बदलने लगे. अगहनी के बदले गरमा धान होने लगा. और फिर बाढ़ के नये स्वरूप को नियति मान लिया.
लेकिन, 1987 में बाढ़ का स्वरूप और बदल गया. सब कुछ डूब गया. लोगों के सब्र का बांध टूट गया और लोगों ने मानव निर्मित इस बांध को तोड़ दिया. लेकिन, सरकार ने तटबंध को फिर बांध बना डाला. अब तो खेती मुश्किल होने लगी.
लोगों ने आंदोलन शुरू किया. हाइकोर्ट गये, लेकिन सब बेकार. बांध को ऊंचा बनाया गया, उसे और मजबूत किया गया. लोग परेशान, खेती-बारी खत्म. फिर भी लोगों ने हार नहीं मानी. अब धान-गेहूं को छोड़कर मक्के की खेती शुरू कर दी. एक समय में बिहार सरकार ने गर्व से कहना शुरू किया कि कटिहार के इस क्षेत्र में प्रति हेक्टेयर अमेरिका के बराबर मक्के की उपज होती है.
बीच में कुछ वर्षों के लिए बांध नहीं बनाया गया और इलाका खुशहाल हो गया. लेकिन, फिर बांध को और मजबूत बनाया गया. हर बार बाढ़ आती रही और हर बार लोग जमा होकर बांध काटते रहे. हर बार करोड़ों की लागत से फिर बांध को बना दिया जाता है. यह खेल लगातार चल रहा है.
इस बार की बाढ़ ने लोगों के लिए जीवन का संकट पैदा कर दिया था. अब तक जिन घरों में लोग महफूज महसूस करते थे, उसमें भी पांच फीट से ज्यादा पानी था. सब कुछ बर्बाद हो गया. पिछली बार बांध काटने के आरोप में कठिन पुलिसिया कार्रवाई के कारण लोगों को बांध पर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.
लेकिन, पानी इतना ज्यादा था कि बांध छह जगहों से टूट गया. सुनने में यह भी आया कि इस बार बांध को सरकारी अधिकारियों ने इसलिए कटवा दिया कि कहीं सरकारी कार्यालयों के सामने ही कटाव न हो जाये. यह भी सुना कि किसी सरकारी अधिकारी की पत्नी को बाढ़ के डर से एंजाइटी अटैक होने लगा था.
तटबंध का कट जाना आश्चर्य की बात नहीं है. उसका फिर से बनाया जाना अविश्वसनीय है. खासकर तब, जब हमें मालूम है कि उसके नहीं टूटने से बांध के अंदर लोग मर सकते हैं और टूट जाने से पास के कई गांव नक्शे से गायब हो सकते हैं. लोगों के खेत बर्बाद हो जा रहे हैं. किसी को यह समझ में नहीं आता है कि इस बांध की उपयोगिता क्या है. न तो बांध के इस पार के लोग सुरक्षित हैं, न ही उस पार के लोग. फिर भी नये सिरे से और मजबूत तटबंध बनाने की तैयारी शुरू हो गयी है.
सरकार को इसे बनाने के पहले कम-से-कम इससे प्रभावित लोगों को इतना तो जरूर बता देना चाहिए कि इससे किस तरह का राष्ट्रहित हो रहा ही. यदि किसी क्षेत्र के लोगों से जीने का अधिकार ही छीन लिया जा रहा हो, तो उन्हें इतना तो अधिकार होना ही चाहिए कि यह मालूम हो कि उनके इस त्याग से किसका हित हो रहा है. पहले तो एक तरफ बाढ़ और दूसरी तरफ सूखा होता है फिर यदि पानी ज्यादा हो, तो दोनों तरफ मौत का तांडव.
महानंदा के तटबंध पर शोध करनेवाले दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डाॅक्टर पंकज झा का मानना है कि इसके बने रहने के पीछे लोकहित तो कतई नहीं है. शायद यह ठीक ही हो कि कई बार तटबंध को बनाने और उसको दुरुस्त रखने के निर्णय के पीछे ठेकेदारी व्यवस्था का ज्यादा हाथ होता है. जनहित और तकनीकी का इससे कुछ लेना-देना नहीं होता है. और इस बार भी साठ करोड़ रुपये के बजट के प्रस्ताव पर ठेकेदारों के समूह ने काम शुरू कर दिया है. यदि इतने रुपये से इस इलाके के नदी-नाले को ठीक कर किया जाये, तो न केवल बाढ़ के पानी का सदुपयोग हो सकेगा, बल्कि यहां के लोगों का सौभाग्य फिर से लौट आयेगा. यहां धान, मछली, सरसों, मक्का सब कुछ हो सकता है, खुशहाली लौट सकती है. इस क्षेत्र का बिहार की आमदनी को बढ़ाने में बड़ा सहयोग हो सकता है. गुलाबबाग की फलती-फूलती अनाज मंडी इस बात का प्रमाण है.
लेकिन, सवाल है कि जनता की आवाज सरकार तक पहुंचे कैसे? प्रकृति से छेड़-छाड़ के इस गंभीर परिणाम से माननीय मुख्यमंत्री को कैसे अवगत कराया जाये. यहां की गरीब जनता को तो न्यायालय जाने की सलाह देना भी मुश्किल ही लगता है और लेकिन शायद यह उम्मीद करना ठीक है कि माननीय न्यायालय स्वयं इसका संज्ञान लें. कम-से-कम सूचना के अधिकार के तहत यहां के लोगों को इतना तो जरूर बता दें कि यह तटबंध क्यों बनाया गया है और इसके रख-रखाव पर इतना खर्च क्यों किया जाता है.
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