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राजनीति में विश्वास का महत्व है

मणींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू पिछले कुछ सप्ताह में मैं जहां भी गया, लोग मुझसे पूछते रहे कि 2019 में क्या होगा? इसके पहले शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि संसदीय चुनाव में दो साल से ज्यादा बाकी हो और लोग ऐसा पूछें. लोग ऐसा क्यों पूछते हैं? और क्या इसका कुछ जवाब […]

मणींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
पिछले कुछ सप्ताह में मैं जहां भी गया, लोग मुझसे पूछते रहे कि 2019 में क्या होगा? इसके पहले शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि संसदीय चुनाव में दो साल से ज्यादा बाकी हो और लोग ऐसा पूछें. लोग ऐसा क्यों पूछते हैं? और क्या इसका कुछ जवाब दिया जा सकता है? ऐसा पूछने का कारण तो शायद यह है कि बहुत दिनों के बाद भारत में कांग्रेस पार्टी के अलावा किसी एक दल को इतना बड़ा बहुमत मिला है. यह सच है कि नरेंद्र मोदी में जनता को आकर्षित करने का चुंबकीय गुण है. लेकिन, यह भी सच है कि भाजपा की इतनी बड़ी बहुमत के पीछे कांग्रेस की बिगड़ी छवि और नेतृत्व की कमजोरी का भी बड़ा हाथ था.
ऐसे में एक ऐसा व्यक्ति जो पहली बार विधानसभा में सदस्य बना और मुख्यमंत्री बन गया, पहली बार संसद सदस्य बना और प्रधानमंत्री बन गया, जाहिर तौर पर लोगों को आकर्षित कर सकता था. लोगों में यह उत्सुकता होना लाजमी है कि क्या यह व्यक्ति भारत में लंबे समय तक प्रधानमंत्री बना रहेगा?
इस उत्सुकता का एक कारण यह भी है कि वर्तमान नेतृत्व ने प्रचारतंत्र का भरपूर उपयोग किया और जो वादे किये गये, उनका फ्रेम दस से पंद्रह सालों का रखा. लोगों को यह लगना वाजिब है कि क्या इतने लंबे समय के लिए इनका सरकार में बने रहना संभव है? लेकिन इसका महत्वपूर्ण कारण शायद यह है कि इस नये नेतृत्व ने भारत के राजनीतिक स्वरूप में आमूल परिवर्तन करने का प्रयास किया है.
स्वतंत्रता के बाद पहली बार उन मूल्यों को, उन संरचनाओं को विस्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है, जिसके लिए भारत को विश्व में जाना जाता है. भारत के लोग सत्ता विस्थापन तो स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन क्या मूल्यों का विस्थापन भी स्वीकार करेंगे? इसी महत्वपूर्ण सवाल का जवाब लोग चाहते हैं. घोषित तौर पर संविधान में जिसकी आस्था न हो, गांधी में आस्था न हो, नेहरू को नकारा प्रधानमंत्री मानता हो, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद पर जिसका विश्वास न हो, क्या आम भारतीय जनमानस लंबे समय तक उसे अपना नेता मान सकता है?
साल 2014 के चुनाव में इन सब बातों को जानते हुए भी लोगों ने भाजपा को भारी बहुमत दिया. इससे एक बार यह लगने लगा था कि भारत का जनमानस बादल रहा है.
लेकिन, उस बहुमत को यदि ठीक से देखा जाये, तो लोगों ने इन बातों के लिए बहुमत नहीं दिया था. बल्कि, आर्थिक विकास के लुभावने वादों के लिए अपनी सहमति दी थी, जिन्हें बाद में जुमला कह दिया गया. आज हर व्यक्ति विकास चाहता है और उसमें अपनी हिस्सेदारी खोजता है. और उसे लगता है कि यह राज्य का दायित्व है कि वह विकास की उपलब्धियों को आम जनता तक पहुंचाये. अब मनरेगा जैसी योजनाओं से लोग संतुष्ट नहीं हैं. लेकिन, इसका मतलब है कि सुखों के वितरण के लिए वे और भी प्रभावकारी व्यवस्था चाहते हैं, न कि मनरेगा को हटाना चाहते हैं.
यहीं पर वर्तमान सरकार की भूल हो रही है. उसने जनतंत्र को चुनाव तक ही सीमित कर दिया है और चुनाव को केवल प्रबंधन तक. चुनाव को जीत लेने पर सत्ता वालों को लगता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य को भी निजी हाथों में देने का उन्हें समर्थन मिल गया है; उन्हें उनकी पूरी विचारधारा के लिए समर्थन मिल गया है.
शायद चुनाव को ही वे जनता का स्थायी ‘मूड ऑफ दि नेशन’ मान लेते हैं. पूंजीवादी में बाजार व्यवस्था के तर्ज पर जनतंत्र को व्यवस्थित करने का प्रयास किया जाता है. बाजार में बने रहने के लिए प्रचार तंत्र पर ज्यादा खर्च किया जाता है. आजकल ‘माइक्रो मैनेजमेंट’ की एक नयी तकनीक विकसित हुई है, जो जनतंत्र को ओवरटेक कर रही है. लेकिन, यह समझना जरूरी है कि चुनाव हमारे जनतंत्र का साधन है, साध्य नहीं. जनतंत्र का साध्य है संसाधनों के बंटवारे में बराबर की भागीदारी.
यह सब मैं इसलिए कह रहा हूं कि पिछले कुछ दिनों में जो संकेत मिल रहे हैं, उससे सत्तारूढ़ पार्टी को चिंतित होना चाहिए. कहीं जनसमर्थन की उसकी जमीन खिसक तो नहीं रही है, इस बात के संकेत को समझने का प्रयास करना चाहिए.
ऐसा लगता है कि चंडीगढ़ में भाजपा अध्यक्ष के बेटे के द्वारा किसी लड़की का पीछा किये जाने से लेकर, अहमद पटेल की जीत, जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय और राजस्थान के छात्र संघों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) की हार आदि कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जिसके दूरगामी परिणाम भी हो सकते हैं और उसके संकेत भी.
चंडीगढ़ की घटना में पहली बार खबरिया चैनलों ने खुलेआम सत्तारूढ़ दल को दोषी ठहराना शुरू किया. और न चाहते हुए भी हरियाणा के नेतृत्व को अपना विचार बदलना पड़ा. कुछ लोगों का विश्लेषण यह है कि शायद इन चैनलों के मालिकों और पत्रकारों के बीच इस सरकार को लेकर मतभेद बढ़ता जा रहा है. जबकि, कुछ लोगों का कहना है कि चैनलों पर सोशल मीडिया भारी पड़ रहा है और अपनी लोकप्रियता को बचाने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ रहा है.
अहमद पटेल के चुनाव में लोगों को यह साफ लगने लगा कि यह खेल बिना पैसा का तो नहीं चल सकता है. इसी तरह जेएनयू में तोप लगाने के मामले में सत्तारूढ़ दल की घोर आलोचना शुरू हुई थी.
क्या यह कहा जा सकता है कि विश्वविद्यालयों, छात्र और शिक्षक संघों में मिली हार इसी कड़ी में है? क्या भाजपा और इसके नेतृत्व की लोकप्रियता घटती जा रही है? इतना तो जरूर है कि भारत की राजनीतिक संस्कृति की नींव जिन महान लोगों ने रखी है, उसका व्यापक प्रभाव जनमानस पर है. वहीं जनता का अपना नैतिक मापदंड होता है.
वह सही और गलत को गौर से देखती और पहचानती रहती है. यहां राजनीतिक चालाकियां एकाध बार से ज्यादा चल सकती हैं. भले ही जनता कुछ बोलती नहीं है या यदि बोलती भी है, तो राजनेता उसे सुन नहीं पाते हैं.
इसलिए मौका आने पर जनता अपने नैतिक मानदंड का परिचय देने से नहीं चूकती है. तर्क में जीतना और दिल जीतना दो अलग-अलग बातें हैं. राजनीति में विश्वास का क्या महत्व है, इसका परिचय गांधीजी ने हमसे करवाया है. राजनेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की जनता की सामूहिक चेतना का निर्माण उस स्वतंत्रता संग्राम से हुआ है, जिसका गांधीजी भी हिस्सा हुआ करते थे.

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