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बच्चों के प्रति इतने निष्ठुर क्यों हैं

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक प्रभात खबर पिछले दिनों हरियाणा के गुरुग्राम में दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले सात साल के एक बच्चे की स्कूल में हुई हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया. एक मासूम की बड़ी निष्ठुरता के साथ स्कूल के बाथरूम में हत्या कर दी गयी थी. इस मामले में स्कूल बस के […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
पिछले दिनों हरियाणा के गुरुग्राम में दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले सात साल के एक बच्चे की स्कूल में हुई हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया. एक मासूम की बड़ी निष्ठुरता के साथ स्कूल के बाथरूम में हत्या कर दी गयी थी. इस मामले में स्कूल बस के कंडक्टर को गिरफ्तार किया गया है.
उसने जो बयान दिया है कि वह स्कूल के बाथरूम में बच्चे के साथ दुष्कर्म करना चाह रहा था. लेकिन बच्चा चिल्लाने लगा तो उसने अपनी जेब से चाकू निकाला और उसका गला रेत दिया. इस घटना से पूरा देश स्तब्ध है. लोगों में दुख और गुस्सा दोनों है.
इस मामले में सरकार और समाज की ओर से त्वरित प्रतिक्रिया सामने आयी है. सरकार की ओर से कहा गया है कि पुलिस सात दिन में चार्जशीट पेश कर देगी. स्कूल की सुरक्षा में लगी एजेंसी का लाइसेंस रद्द कर दिया गया है. स्थानीय बार एसोसिएशन ने घोषणा की है कि कोई भी वकील मासूम की हत्या करने वाले का केस नहीं लड़ेगा. लेकिन यह घटना सवाल खड़े करती है कि हम बच्चों के प्रति इतने पत्थर दिल क्यों होते जा रहे हैं.
नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के 2015 के आंकड़े हमें चिंतित करते हैं. इन पर गौर करें तो हम पायेंगे कि बच्चों के खिलाफ हिंसा के कुल 94,172 मामले दर्ज किये गये. इनमें से एक तिहाई मामलों में बच्चों को दुष्कर्म के लिए निशाना बनाया गया था. बाल विशेषज्ञों का मानना है कि यह संख्या और अधिक हो सकती है क्योंकि ऐसे अनेक मामले भय, पारिवारिक प्रतिष्ठा और जानकारी के अभाव में दर्ज ही नहीं होते हैं.
2015 के आंकड़ों के अनुसार महाराष्ट्र में सर्वाधिक 13,921, मध्य प्रदेश में 12,859 और उत्तर प्रदेश में 11,420 बाल अपराध के मामले दर्ज किये गये. कुछ साल पहले केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण विभाग ने एक अध्ययन कर पाया था कि बच्चों के खिलाफ यौन शोषण के मामले बढ़ रहे हैं और एक सबसे चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि अधिकांश मामलों में शोषण करने वाला परिचित व्यक्ति ही पाया गया. यह तथ्य भी सामने आया है कि यौन शोषण के लिए केवल बच्चियों को निशाना नहीं बनाया जाता बल्कि बालक भी बड़ी संख्या में निशाना बनाये जाते हैं. गुरुग्राम की घटना ने इस तथ्य को और उजागर किया है.
बाल कल्याण विभाग के अध्ययन से पता चला कि विभिन्न प्रकार के शोषण में पांच से 12 वर्ष तक की उम्र के छोटे बच्चे सबसे अधिक शिकार होते हैं. इनमें शारीरिक, यौन और भावनात्मक शोषण शामिल है. आमतौर पर माना जाता है कि बाल शोषण का मतलब होता है कि बच्चों के साथ शारीरिक दुर्व्यवहार और यौन शोषण. लेकिन बच्चे के किया गया हर ऐसा व्यवहार भावनात्मक शोषण के दायरे में आता है जिससे उसके ऊपर बुरा प्रभाव पड़ता हो अथवा जिससे बच्चा मानसिक रूप से भी प्रताड़ित महसूस करता हो. भारत में भावनात्मक शोषण को लेकर असंवेदनशीलता की स्थिति है और इसे सिरे से ही नकार दिया जाता है.
इसे समाज स्वीकार करना ही नहीं चाहता. पुरानी पीढ़ी के लोग अक्सर कहते मिल जायेंगे कि मारपीट ही बच्चों को सुधारने का एकमात्र तरीका है जबकि जमाना बदल गया है. भावनात्मक शोषण को बच्चियां खास तौर से महसूस करती हैं. उनकी पढ़ाई लिखाई से लेकर स्वास्थ्य तक की परिवार अनदेखी करते हैं और बालकों को प्रमुखता दी जाती है. महिला एवं बाल कल्याण विभाग के अध्ययन में पाया गया है कि उत्तर देने वाला हर दूसरा बच्चा भावनात्मक शोषण का शिकार है. बालक और बालिकाओं दोनों ने भावनात्मक शोषण का सामना करने की बात स्वीकार की है. अध्ययन के 83 प्रतिशत मामलों में बच्चों ने माता-पिता पर भावनात्मक शोषण का आरोप लगाया. एक और चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि 48.4 प्रतिशत लड़कियों ने कहा कि अगर वे लड़के होते तो अच्छा होता.
बच्चों का स्वास्थ्य एक अन्य गंभीर पहलू है. प्रगति के दावों के बावजूद भारत में बच्चों की स्थिति दयनीय बनी हुई है. भारत में हर साल अकेले कुपोषण से 10 लाख से ज्यादा बच्चों की मौत हो जाती है और विभिन्न कारणों से लगभग 10 करोड़ बच्चों स्कूल नहीं जा पाते हैं. ‘सेव द चिल्ड्रेन’ दुनिया भर के बच्चों की स्थिति पर एक सूची जारी करता है जहां बच्चे सबसे ज्यादा संकट में है.
भारत इस सूची में 116वें स्थान पर है. यह सूचकांक स्वास्थ्य, शिक्षा समेत आठ पैमानों के आधार पर तैयार किया जाता है. पिछले दिनों खबरें आयीं कि बच्चों को आक्सीजन की कमी से मौतें हो गयीं. ऐसी घटनाओं ने यह भी उजागर किया कि बच्चों को लेकर हमारा तंत्र कितना असंवदेनशील है. ऑक्सीजन कमी थी कि नहीं थी, यह मसला नेताओं की बयानबाजी में इतना उलझ गया कि सच्चाई क्या थी, कोई दावे से नहीं कह सकता. दुखद पहलू यह है कि ऐसे हादसों से हम कोई सबक लेने को तैयार नहीं लगते हैं.
यह बात मैंने पहले भी रेखांकित की है कि बच्चों से माता-पिता की संवादहीनता बढ़ी है. यह माता-पिता की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को अच्छे और बुरे स्पर्श का अंतर बचपन से ही बताएं.
लेकिन टेक्नोलॉजी ने संवादहीनता और बढ़ा दी है. मोबाइल और इंटरनेट ने उनका बचपन ही छीन लिया है. वे बच्चे से सीधे वयस्क बन जाते हैं. शारीरिक रूप से भले ही वे व्यस्क नहीं होते लेकिन मानसिक रूप से वे व्यस्क हो जाते हैं. उनकी बातचीत, आचार-व्यवहार में यह बात साफ झलकती है. इधर माता पिता की अपनी समस्याएं हैं. नौकरी और कारोबार की व्यस्तताएं हैं, उसका तनाव है. और जहां मां नौकरीपेशा है, वहां संवादहीनता की स्थिति और गंभीर है.
आप अपने आसपास गौर करें तो बच्चों को गुमसुम, परिवार से कटा-कटा सा पाएंगे. वे बात-बात पर चिढ़ने लगते हैं और स्कूल और घर दोनों में आक्रामक हो जाते हैं. कई बार ऐसे अप्रिय समाचार भी सुनने को मिलते हैं कि किसी बच्चे ने तनाव के कारण आत्महत्या कर ली. यह बेहद चिंताजनक स्थिति है और देश और समाज को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.

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