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समाज को साहित्य की जरूरत

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in हाल में टाटा स्टील ने प्रभात खबर के सहयोग से रांची में साहित्य उत्सव का आयोजन किया. अब लगभग सभी बड़े शहरों में इस तरह के आयोजन हो रहे हैं. दरअसल, लोगों की साहित्य के प्रति दिलचस्पी कम होती जा रही है. साहित्य उत्सव के माध्यम से […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
हाल में टाटा स्टील ने प्रभात खबर के सहयोग से रांची में साहित्य उत्सव का आयोजन किया. अब लगभग सभी बड़े शहरों में इस तरह के आयोजन हो रहे हैं. दरअसल, लोगों की साहित्य के प्रति दिलचस्पी कम होती जा रही है.
साहित्य उत्सव के माध्यम से कोशिश रहती है कि साहित्यकारों को एक स्थायी मंच मिल सके और साहित्य को लेकर कुछ हलचल बढ़ सके. पुरानी कहावत है कि किताबें ही आदमी की सच्ची दोस्त होती हैं, लेकिन अब दोस्ती के रिश्ते में कमी आयी है.
इसको देखते हुए कई बड़े शहरों में पुस्तक मेले और साहित्य उत्सव आयोजित किये जाते हैं, ताकि लोगों की पठन-पाठन के प्रति दिलचस्पी बनायी रखी जा सके, लेकिन ये प्रयास भी बहुत कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं. हम भी चाहते हैं कि साहित्य उत्सव के माध्यम से पढ़ने-लिखने को बढ़ावा मिले. ऐसे उत्सवों की जरूरत इसलिए भी है कि समाज की ओर से कोई पहल नहीं हो रही है.
मैंने पाया कि इन उत्सवों का फलक बड़ा है. यह लोगों को साहित्य और समाज से जुड़ने का अवसर देता है. अगर गौर करें, तो इन साहित्य-उत्सवों में युवा वर्ग बड़ी संख्या में आ रहा है. साथ ही ये उत्सव युवा लेखकों को एक मंच भी प्रदान कर रहे हैं. हमें मान लेना चाहिए कि समाज, तकनीक और सोच ने अभिव्यक्ति का आयाम बदल दिया है.
दूसरी ओर कोई भी स्थापित लेखक संघ युवा लेखकों की परवाह नहीं कर रहा है. सत्य व्यास, दिव्य प्रकाश दुबे, नीलोत्पल मृणाल, नवीन चौधरी, हुसैन हैदरी और पंकज दुबे जैसी नयी पौध ने अपने दमखम पर अपनी जगह बनायी है. भले ही आप चेतन भगत और अमीश त्रिपाठी की आलोचना करें, लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि उन्होंने पाठकों का नया संसार सृजित किया है.
यह सर्वविदित है कि साहित्य में जीवन-दर्शन निहित होता है और यह सृजन का महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसमें समाज प्रतिबिंबित होता है और उसकी दिशा व दशा पर साहित्य का गहरा प्रभाव होता है. साहित्य की समाज में छोटी, मगर महत्वपूर्ण भूमिका है. इसे पढ़े-लिखे अथवा प्रबुद्ध लोगों की दुनिया भी कह सकते हैं. आजादी की लड़ाई हो या जन आंदोलन, सब में साहित्य और किताबों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. साहित्य की विभिन्न विधाओं ने समाज का मार्गदर्शन किया है और समाज के यथार्थ को प्रस्तुत किया है.
मौजूदा दौर में साहित्य को कई मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ रहा है. पहला भाषा के मोर्चे पर और दूसरा विचार के मोर्चे पर. टेक्नोलाॅजी के विस्तार ने किताबों के सामने गंभीर चुनौती पेश की है. यह सही है कि किताबें जीवित हैं और उसने तकनीक के साथ एक रिश्ता कायम कर लिया है, लेकिन अब समय आ गया है कि हम आत्मचिंतन करें कि इस रिश्ते को कैसे मजबूत करें.
यह सच है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट जैसी नयी टेक्नोलाॅजी ने हमारे जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह साहित्य पर भी गहरा प्रभाव डाला है, किंतु यह प्रभाव दोतरफा है. यह सही है कि इसने साहित्य का कई मायने में उपकार किया है. इसने साहित्य को सर्वसुलभ बनाया है और ग्रामीण अंचल के लेखकों-कवियों को भी वैश्विक स्तर का मंच उपलब्ध कराया है.
उन्हें बड़ी आसानी से अपना पाठक तलाशे और उनकी टिप्पणियों को सीधा ग्रहण कर अपनी रचनाओं को तराशने का इसने अवसर प्रदान किया है. युवा साहित्यकार इसके जरिये अपने पाठकों से सीधा संवाद स्थापित कर पा रहे हैं. इसने युवा, अनजान और नये साहित्यकारों को उभरने के लिए पुराने मीडिया के वर्चस्व से उबारा है और रातोंरात अपनी प्रतिभा सिद्ध करने का मौका दिया है.
अगर गौर करें, तो हम पायेंगे कि हमारे युवा साहित्यकार, जिन्हें लेकर हम आज पूरी गंभीरता से चर्चा करने को तैयार हैं, सोशल मीडिया पर पूरी शिद्दत से सक्रिय हैं और उनकी इस सक्रियता की बदौलत हम उनकी ओर आकर्षित भी हैं, लेकिन नयी टेक्नोलॉजी ने साहित्य का नुकसान भी बहुत अधिक किया है.
इसने कागज पर छपे शब्दों से साहित्य के सभी क्षेत्र, वर्ग और आयु के पाठकों को बेशक दूर किया है. जो लोग अब भी साहित्य पढ़ने में रुचि रखते हैं, वे भी कागज पर छपी पुस्तक खरीदने की बजाय इंटरनेट के प्रति आकर्षित हैं. किंडल, ई-पत्रिकाओं और ब्लाॅग्स का प्रसार इसका सबूत है.
कई प्रतिष्ठित शोध और सर्वेक्षण की रिपोर्ट्स भी यही कहती हैं कि भविष्य ई-बुक्स, ऑनलाइन रीडरशिप और वर्चुअल लाइब्रेरी का होगा. लोग ई-बुक्स खरीदेंगे और ऑनलाइन पढ़ेंगे. लिहाजा, गूगल भी किताबों को डिजिलाइस करने की बड़ी योजना पर काम कर रहा है. इन सबका एक बड़ा नुकसान यह है कि नयी पीढ़ी को पुस्तकों से जोड़ने की गंभीर चुनौती पैदा हो गयी है.
दूसरी बात कि जीवन, शिक्षण, सृजन, विमर्श और साधना के लिए जो अनिवार्य उपनिषदीय (समीप उपवेशन यानी एक-दूसरे के समीप बैठने की) परंपरा थी, वह खत्म हो रही है. इससे सामाजिक सरोकार के अपने स्रोत से ही साहित्य के कट जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है. जानकारी की नयी तकनीक के इस्तेमाल के नाम पर व्हाट्सएप और फेसबुक ने लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और वह भी उस उम्र के बच्चों को भी, जिनमें दादी-नानी की कहानियों, गीतों, कहावतों और मुहाबरों से साहित्य के बीज बोये जाते थे, साहित्य का संस्कार गढ़ा जाता था.
व्हाट्सएप और फेसबुक ने उन्हें पैसिव बना दिया है. संभावनाओं के बावजूद हर उम्र का एक बहुत बड़ा वर्ग पढ़ने-रचने से दूर हो गया है. ऐसे लोगों के पास वक्त तो है, मगर उसका सृजनात्मक उपयोग करने की चिंता, गंभीरता लुप्त हो गयी है. ऐसे में यह विचार करना ही होगा कि हम नयी टेक्नोलॉजी के साथ साहित्य के रिश्तों को कौन-सा आयाम देना चाहते हैं, दे सकते है.
एक और गंभीर बात है. मुझे लगता है कि अपनी भाषा को लेकर जो गर्व का भाव होना चाहिए, उसकी हम हिंदी भाषियों में बहुत कमी नजर आती है.
हमें अंग्रेजी बोलने, पढ़ने-लिखने और अंग्रेजियत दिखाने में अपना बड़प्पन नजर आता है. अगर आसपास नजर दौड़ाएं, तो हम पायेंगे कि हमारे नेता, लेखक और बुद्धिजीवी हिंदी की दुहाई तो देते बहुत नजर आते हैं, लेकिन जब अपने बच्चों की पढ़ाई की बात आती है, तो वह अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों को ही चुनते हैं. वर्षों पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी भाषा और संस्कृति के विषय में कहा था, जो आज भी सच है.
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल
लब्बोलुआब यह कि अंग्रेजी पढ़िए जरूर, लेकिन अपनी मातृ भाषा की अनदेखी मत करिए.

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