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सोशल मीडिया और चुनाव प्रचार

पवन दुग्गल साइबर लॉ एक्सपर्ट delhi@prabhatkhabar.in सोशल मीडिया के इस दौर में यह बात तो तय है कि आम लोगों की मानसिकता को प्रभावित करने में सोशल मीडिया बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है. इसलिए इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि आम चुनाव की घोषणा के बाद अब साेशल मीडिया पर […]

पवन दुग्गल

साइबर लॉ एक्सपर्ट

delhi@prabhatkhabar.in

सोशल मीडिया के इस दौर में यह बात तो तय है कि आम लोगों की मानसिकता को प्रभावित करने में सोशल मीडिया बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है. इसलिए इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि आम चुनाव की घोषणा के बाद अब साेशल मीडिया पर कुछ नियंत्रण लगाये जाने चाहिए. इंटरनेट का सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफॉर्म है, जिस पर नियंत्रण करने की बात करना तो आसान है, लेकिन कर पाना बहुत ही मुश्किल है. ऐसा इसलिए, क्योंकि अधिकतर सोशल मीडिया कंपनियां भारत से बाहर की हैं और उन पर अंकुश लगाने की सबसे बड़ी चुनौती अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर होनेवाले हनन की होगी.

हालांकि, मुख्य चुनाव आयुक्त ने चुनाव की तारीखों का ऐलान करते हुए यह कहा कि इस बार आचार संहिता के तहत सोशल मीडिया पर कड़ी नजर रखी जायेगी. इस बात से कुछ उम्मीद जगी है. हालांकि, चुनाव आयोग की तरफ से अभी कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं हुआ है.

पिछले दिनों एक खबर भी आयी थी कि रूसी हैकरों ने यह चेतावनी दी है कि वे चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश करेंगे. इस खबर को हलके में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि अमेरिका में हुए पिछले राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने में भी रूस की भूमिका को लेकर खबरें आ ही चुकी हैं.

इसलिए जरूरी है कि सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए चुनाव आयोग एक दिशा-निर्देश जारी करे कि चुनाव में पार्टियों को क्या-क्या कदम उठाने चाहिए. आचार संहिता के तहत पार्टियों के नेटवर्क पर या उनके सोशल मीडिया पेजों पर कैसी प्रचार सामग्री डाली जा रही है, इसकी निगरानी तो होनी चाहिए. समस्या यह है कि चुनाव आयोग ने इस संबंध में जो बातें कही हैं, उससे कोई बड़ा क्रांतिकारी परिणाम मिलने की उम्मीद नहीं है.

दरअसल, आयोग ने कहा है कि राजनीतिक पार्टियों को सोशल मीडिया पर अपने विज्ञापन की पहले जानकारी देनी होगी, फिर स्वीकृति मिलने पर ही वे उसको अपने पेज पर पोस्ट करेंगे. यह कदम तो ठीक है, लेकिन पार्टियां बहुत चालाक हैं और वे बिना पार्टी का नाम लिये ही कोई प्रॉक्सी एकाउंट खोल लेंगी और अपना प्रचार सामग्री पोस्ट कर देंगी. ऐसे में समूचे सोशल मीडिया के तंत्र के स्तर पर ही कोई तकनीकी रणनीति बनानी पड़ेगी, ताकि कोई भी व्यक्ति चुनाव को प्रभावित न कर सके और स्वच्छ चुनाव हो.

सोशल मीडिया के जरिये लगातार फैलाये जा रहे फेक न्यूज और हेट स्पीच पर नियंत्रण रखने की बात भी कही गयी है. मेरा मानना है कि यह सिर्फ चुनाव के दौरान ही नहीं होना चाहिए, बल्कि हमेशा के लिए ऐसा होना चाहिए, ताकि हमारा समाज हिंसक होने से बच सके.

ये ऐसे मसले हैं, जो चुनाव में ध्रुवीकरण करके चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं. फेक न्यूज और हेट स्पीच को लेकर भारत के पास अभी तक कोई सख्त कानून नहीं है, जो इस पर फौरन रोक लगा सके. मलेशिया जैसे देश में फेक न्यूज और हेट स्पीच को रोकने के लिए विशेष कानून है.

मैं यह बात अरसा पहले से कहता आ रहा हूं कि फेक न्यूज और हेट स्पीच की चुनौती को दूर करने के लिए भारत को एक सख्त कानून की आवश्यकता है. अगर यह चुनौती नहीं होती, तो आज इस पर नियंत्रण रखने के लिए अधिकारी रखने की बात नहीं की जाती. भारत का जो मौजूदा सूचना प्रौद्योगिकी कानून है, वह इस विषय पर चुप है.

दूसरी बात यह है कि इस चुनौती को परिभाषित करने की भी जरूरत है कि आखिर इस चुनौती के खतरे कहां-कहां और क्या-क्या हैं. यह तय करना होगा कि फेक न्यूज या हेट स्पीच में पकड़े गये लोगों पर इतने साल की सजा और इतना जुर्माना लगाया जाये. लोगों में इस घृणित कार्य को करने से पहले कानून का डर तो होना ही चाहिए.

लोगों को यही लगता है कि भारत में जो कुछ करना हो कर लो, कानूनन सजा तो होनी नहीं है. इस जगह पर मैं कानून की कमी मानता हूं. इसलिए सरकार को चाहिए कि चुनौती से भरे इस मसले को लेकर सख्त कानून ले आये, ताकि हम सत्य पर आधारित एक समृद्ध लोकतंत्र को विकसित कर सकें.

सोशल मीडिया पर कुछ पोस्ट करने के लिए तो कोई खर्च नहीं लगता, लेकिन उस पर विज्ञापन देने के लिए पैसे खर्च होते हैं, जिसे चुनावी खर्चे में जोड़ने की बात कही गयी है.

यह भी एक अच्छा कदम हो सकता है, लेकिन सवाल फिर वही है कि यह संभव कैसे होगा? यह पूरी तरह से संभव नहीं हो पायेगा, पार्टियां इससे बचने का अपना जुगाड़ निकाल ही लेंगी. थर्ड पार्टी एकाउंट के जरिये यह सब किया जा सकता है. इसके लिए हमें सोशल मीडिया कंपनियाें के साथ बातचीत करनी होगी कि वे इसका पूरा लेखा-जोखा दे सकें.

अगर पार्टियों की रैलियों आदि के जरिये चुनावी प्रचार को छोड़ दें, तो सोशल मीडिया के जरिये प्रचार की भी अब हिस्सेदारी है. ऐसे में सोशल मीडिया कितनों को प्रभावित करेगा, इसका ठोस आंकड़ा तो नहीं है, लेकिन सोशल मीडिया का लोगों के बीच विस्तार को देखते हुए मैं यह कह सकता हूं कि दस में छह लोगों को यह प्रभावित कर सकता है.

इसका सटीक उदाहरण है कि पुलवामा हमले के बाद पूरा भारत सोशल मीडिया पर पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए खड़ा हो गया, लेकिन सवाल दबे ही रह गये कि इस हादसे में जो चूक रही, वह क्या थी. किसी भी विषय पर जब पूरा देश सोशल मीडिया पर भावनाओं में बह सकता है, तो फिर चुनाव में क्यों नहीं बह सकता?

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