20.1 C
Ranchi
Friday, March 29, 2024

BREAKING NEWS

Trending Tags:

सामाजिक बदलाव के संकेत

मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com यह तो तय है कि समय के साथ-साथ समाज में बदलाव होता है. लेकिन, कभी-कभी इस बदलाव की गति तेज हो जाती है. बदलाव के तेज होने के कई कारण हो सकते हैं. यह बदलाव राजनीतिक सत्ता परिवर्तन के कारण भी हो सकता है और आर्थिक व्यवस्था के […]

मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
यह तो तय है कि समय के साथ-साथ समाज में बदलाव होता है. लेकिन, कभी-कभी इस बदलाव की गति तेज हो जाती है. बदलाव के तेज होने के कई कारण हो सकते हैं. यह बदलाव राजनीतिक सत्ता परिवर्तन के कारण भी हो सकता है और आर्थिक व्यवस्था के परिवर्तन से भी हो सकता है. समाजिक परिवर्तन के चिंतकों का मानना है कि यदि बदलाव बहुत तीव्र हो, तो उसे क्रांतिकारी बदलाव कहा जाता है.
क्या बिहार का समाज भी बदल रहा है? बहुत से विश्लेषकों का मानना है कि बिहार का समाज सामंतवाद से पूंजीवाद के बदलाव के बीच कहीं फंस गया है. इसकी स्थिति प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक मैकियावली के समय के इटली जैसी है. जहां पुराने मूल्य टूटे नहीं हैं और नये मूल्य अभी बने नहीं है. इसलिए इस समाज में शक्ति का बड़ा महत्व है और शक्ति का मूल साधन संख्या बल है.
मूल्यों के परिवर्तन के बीच समाज का फंसना कोई नयी बात नहीं है. परिवर्तन का यह दौर हर समाज में आता है. अलग-अलग समय में पंजाब और बंगाल में भी ऐसा समय आया था. लेकिन, हिंदी प्रदेश में खासकर बिहार में यह समय थोड़ा लंबा चल गया है.
यहां की आर्थिक व्यवस्था भी उन उत्पादनों के साधन पर टिकी हुई है, जिस पर बहुत पहले टिकी होती थी. लाख प्रयासों के बावजूद इसमें कोई खास बदलाव नहीं आया है. इस बदलाव के लिए राजनीतिक क्रांति के पहले बिहार में एक समाजिक क्रांति की जरूरत है. जो कुछ बंगाल में अंग्रेजों के जमाने में हो पाया था, वह सब कुछ बिहार में होना बाकी रह गया.
पिछले कुछ वर्षों से ऐसा लग रहा है कि हिंदी प्रदेश में इस परिवर्तन की संभावनाएं बन रही हैं. इसके कई संकेत देखने को मिल रहे हैं. यह तो सच है कि बिहार के विश्वविद्यालयों की हालत खराब है. शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसने किसी भी विषय में अपना पीएचडी बिहार के किसी विश्वविद्यालय से किया हो और उसे देश के अन्य हिस्से में कहीं नौकरी मिल गयी हो. इसी तरह बहुत कम ऐसी खबरें मिलती हैं कि किसी विश्वविद्यालय में कोई महत्वपूर्ण सेमिनार आयोजित किया गया हो.
इसके कई कारण हो सकते हैं. मैं उन कारणों का जिक्र यहां नहीं कर रहा हूं. मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि यदि विश्वविद्यालयों को सामाजिक परिवर्तन का कारक माना जाये या वहां की गतिविधियों को परिवर्तन का संकेत माना जाये, तो शायद ही ऐसा कहना उचित होगा कि किसी सामाजिक परिवर्तन की संभावना है. सच तो यह कि इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि राज्य में विश्वविद्यालय और सचिवालय में फर्क करना अब मुश्किल होता जा रहा है.
लेकिन, यदि विश्वविद्यालयों से इतर होनेवाले बौद्धिक विमर्शों पर ध्यान दिया जाये, तो ऐसा लगता है कि समाज में पिछले कुछ वर्षों में बौद्धिक विमर्श में भारी विस्तार आया है.
इस अवलोकन की शुरुआत साहित्य लेखन से की जा सकती है, क्योंकि इस काम के लिए विश्वविद्यालय की डिग्री भी जरूरी नहीं है और यह माना जा सकता है कि लेखक समाज की नब्ज को बेहतर टटोल पाता है. पिछले दो-तीन वर्षों में राज्य के अलग-अलग हिस्सों में लेखकों से मिलने का अवसर मिला, उनके कार्यक्रमों में जाने का मौका मिला. इन बैठकों में उनकी संख्या मात्र को देखकर किसी ऐसे व्यक्ति को आश्चर्य हो सकता है, जो सोचता है कि बिहार का बौद्धिक वर्ग राज्य से बाहर रह रहा है.
इन सभाओं में जिन विषयों पर बहस हुई और फिर सभा में लेखकों और कवियों ने जिस मात्रा में अपनी पुस्तकों का लोकार्पण किया, या हम में से कुछ लोगों को उस पर टिप्पणी के लिए दिया, उसे देखकर यह कहना सही होगा कि बिहार में स्थानीय लेखन की बाढ़ सी आ गयी है.
इस प्रचुर मात्रा में साहित्य लेखन को सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत का संकेत मानना गलत नहीं होगा. अभी आलोचकों और प्रकाशकों का जो एलिट वर्ग है, उनमें इसके प्रति कोई खास सम्मान नहीं दिखता है. लेकिन, समाज की दिशा को समझने के लिए इन लेखकों की रचनाओं को समझना जरूरी है. यदि ये लेखक बड़े आलोचकों का ध्यान आकर्षित करने के बदले अपने लिए स्थानीय पाठक तैयार करने लगेंगे, तो यह रफ्तार तेज हो सकती है.
इसी तरह पिछले कुछ वर्षों में कई छोटे-छोटे गांवों और शहरों में स्थानीय महापुरुषों की जन्म-शताब्दी मनाने की शुरुआत भी देखी जा सकती है. एक गांव में चौदहवीं शताब्दी के विद्वान आयची मिश्र के सम्मान में सेमिनार हो रहा है, तो दूसरे गांव में मंडन मिश्र की रचनाओं पर बहस हो रही है.
कहीं मुंगेरी लाल को याद किया जा रहा है, तो कहीं राहुल सांकृत्यायन को. जब कोई समाज अपने महापुरुषों को याद करने लगे, तो यह समझना चाहिए कि उसमें परिवर्तन के लिए छटपटाहट हो रही है. इसी तरह बिहार में स्वतंत्रता आंदोलन के समय पुस्तकालयों की बहुतायत थी. हर गांव, हर शहर में पुस्तकालय खुले थे. उनमें से बहुत से अब बंद हो गये हैं, कुछ किसी तरह से चल भी रहे हैं. लेकिन हाल के दिनों में मुझे ऐसे कई लोग मिले जिन्हें यह लगता है कि राज्य में पुस्तकालय आंदोलन चलाया जा सकता है. लोगों में पुस्तकालय को लेकर उत्साह देखा जा सकता है.
परिवर्तन की चाहत के और भी कई संकेत आप को दिख सकते हैं. कई ऐसे युवा जिन्होंने बेहतरीन जगह से शिक्षा प्राप्त की है, अब बिहार में जाकर नये प्रयोग करना चाहते हैं. कई ऐसे लोग तो शहरों की सुविधाप्रद जिंदगी छोड़कर छोटे कस्बों में रहना तय कर लिया है. लोगों को एकत्रित कर रहे हैं और ऐसे प्रयोगों में उन्हें शामिल किया जा रहा है.
कोई मधेपुरा में किसानों के कोआॅपरेटिव के लिए काम कर रहा है, तो कोई अररिया में किसानों और मजदूरों का ट्रेनिंग सेंटर चला रहा है. हाल के दिनों में दिल्ली, सूरत, मुंबई जैसे शहरों में रहनेवाले बिहार के लोगों में भी राज्य से पुनः जुड़ने की, अपनी संस्कृति के प्रति सम्मान की नयी भावना देखी जा सकती है.
इन सबको यदि एक साथ जोड़कर देखा जाये, तो लगता है कि समाज में एक मंथन चल रहा है. इसका परिणाम किस तरह का होगा या कितना दूरगामी होगा यह तय करना तो अभी कठिन है, लेकिन इतना तो आसानी से कहा जा सकता है कि इसे परिवर्तन के संकेत के रूप में देखा जाना चाहिए. कोई मुझे कह रहा था कि मगध साम्राज्य के इतिहास को याद करने की मानसिकता समाज में जोर पकड़ रही है. जब समाज अपने स्वर्ण युग को याद करे, तो समझना चाहिए कि वह अपने वर्तमान से असंतुष्ट है और भविष्य की खोज में लगा है.
You May Like

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

अन्य खबरें