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Friday, March 29, 2024

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जनसंख्या नियंत्रण की चुनौती

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने संबोधन में देश की बढ़ती जनसंख्या पर चिंता जाहिर की. उन्होंने कहा कि तेजी से बढ़ती जनसंख्या पर हमें विचार करना होगा. सीमित परिवार से न केवल हम अपना, बल्कि देश का भी भला करेंगे. प्रधानमंत्री […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने संबोधन में देश की बढ़ती जनसंख्या पर चिंता जाहिर की. उन्होंने कहा कि तेजी से बढ़ती जनसंख्या पर हमें विचार करना होगा. सीमित परिवार से न केवल हम अपना, बल्कि देश का भी भला करेंगे. प्रधानमंत्री ने कहा कि जो छोटे परिवार की अहमियत समझ रहे हैं और लोगों को समझा रहे हैं, उन्हें सम्मानित करने की जरूरत है. छोटा परिवार रखने वाले देशभक्त की तरह हैं. प्रधानमंत्री ने कहा कि बच्चे को लाते वक्त हम नहीं सोचते कि उसे कैसा जीवन देंगे, उसकी शिक्षा का क्या इंतजाम करेंगे, उसके पोषण का सामर्थ्य हमारे पास है भी या नहीं.
किसी भी बच्चे के आने से पहले यह अवश्य सोचें कि हम उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार हैं कि नहीं. इसमें कोई शक नहीं है कि देश में बढ़ती जनसंख्या एक बड़ी चुनौती है. देश के विकास की राह में यह सबसे बड़ी बाधा है. जिस तेजी से हमारे देश की जनसंख्या बढ़ रही है, उतनी तेजी से संसाधनों का विकास संभव नहीं है.
आजादी के बाद देश में पहली जनगणना 1951 में हुई थी और उस समय देश की आबादी थी 36 करोड़. इसके बाद हुई जनगणना में देश की जनसंख्या में लगातार वृद्ध हुई है. 1961 की जनगणना में देश की आबादी लगभग 44 करोड़ हो गयी. 1971 में यह बढ़ कर 55 करोड़ हो गयी. 1981 की जनगणना में पता चला कि देश की आबादी 68 करोड़ है.
1991 की जनगणना में यह आबादी बढ़ कर 85 करोड़ हो गयी. 2001 में देश की आबादी 100 करोड़ पार कर गयी. 2011 की जनगणना में देश की जनसंख्या बढ़ कर 121 करोड़ हो गयी. अभी माना जा रहा है कि देश की आबादी लगभग 135 करोड़ है. बढ़ती आबादी का असर बहुआयामी है. इसका देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ता है.
इससे खाद्यान्न संकट व बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न होती है. इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए रोजगार के अवसर उत्पन्न करना नामुमकिन है. इससे अनेक सामाजिक समस्याएं पैदा हुई हैं. भूमि पर बोझ बढ़ा है, जिसने पारिवारिक संघर्ष को जन्म दिया है. जनसंख्या के पक्ष में एक तर्क दिया जाता है कि इसने हमें दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार बना दिया है, जिससे हर विदेशी कंपनी भारत में आना व यहां निवेश करना चाहती है.
इतिहास के पन्ने पलटे तो हम पायेंगे कि इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए व्यापक पैमाने पर जबरन नसबंदी करने की कोशिश की थी. पुष्ट आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन अनुमान है कि इस दौरान लगभग 60 से 65 लाख लोगों की नसबंदी कर दी गयी थी.
देशभर में जबरन नसबंदी हुई. नतीजा यह निकला कि इंदिरा गांधी की सरकार चली गयी, लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान यह हुआ कि नेता जनसंख्या नियंत्रण के नाम से ही भय खाने लगे और उन्होंने इसका जिक्र ही बंद कर दिया. लंबे समय तक देश के विमर्श से जनसंख्या नियंत्रण गायब रहा.
अरसे बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने लाल किले से घोषणा कर जनसंख्या नियंत्रण को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में लाया है. इसमें कोई शक नहीं है कि जनसंख्या पर नियंत्रित रखना लोगों की जिम्मेदारी है. जागरूकता फैलाने में केंद्र और राज्य सरकारें इसमें पहल कर सकती हैं, लेकिन एक सीमा के आगे इस संवेदनशील विषय पर सरकार की भूमिका सीमित हो जाती है.
लोग स्वयं ही एक या दो बच्चे ही पैदा करें, तो बेहतर होगा. लोगों में यह भाव पैदा हो कि छोटा परिवार रखना भी एक तरह की देशभक्ति है. जनसंख्या का सीधा संबंध शिक्षा से भी है. अधिकांश शिक्षित परिवारों में आप बच्चों की संख्या सीमित ही पायेंगे, लेकिन शिक्षा के अभाव में जितने हाथ, उतनी अधिक कमाई जैसा तर्क चल पड़ता है और अशिक्षित माता-पिता अधिक बच्चे पैदा करने लगते हैं. हमें इस ओर भी ध्यान देना होगा.
कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र ने जनसंख्या को लेकर एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें बताया गया था कि दुनिया की 7.7 अरब हो गयी है जबकि 2018 में यह 7.6 अरब थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि 2010 से 2019 के बीच भारत की जनसंख्या चीन की तुलना में दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है. भारत की जनसंख्या 1.2 फीसदी औसत वार्षिक दर से बढ़ कर 136 करोड़ हो गयी है.
दूसरी ओर चीन की आबादी हर साल 0.5 फीसदी दर से बढ़ कर 142 करोड़ हुई, जबकि जनसंख्या वृद्धि की वैश्विक औसत दर 1.1 फीसदी है. रिपोर्ट के अनुसार भारत की 27 प्रतिशत आबादी 10-24 वर्ष की और 67 प्रतिशत आबादी 15-64 आयु वर्ग की है. देश के छह प्रतिशत लोग 65 वर्ष और उससे अधिक आयु के हैं.
रिपोर्ट में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार की बात स्वीकार की गयी है. कहा गया है कि 1994 में देश में मातृ मृत्यु दर प्रति एक लाख बच्चों के जन्म में 488 मौत से घट कर 2015 में 174 तक आ गयी है, पर प्रगति के दावों के बावजूद बच्चों की स्थिति दयनीय है. भारत में हर साल अकेले कुपोषण से 10 लाख से ज्यादा बच्चों की मौत होती है. अन्य कारणों से लगभग 10 करोड़ बच्चे स्कूल पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते हैं.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि चार राज्यों- यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल में आबादी का घनत्व सबसे ज्यादा है. एक और अहम आंकड़ा है कि दो हिंदी भाषी राज्यों- बिहार और उप्र में 30.4 करोड़ से ज्यादा लोग बसते हैं यानी देश की एक चौथाई आबादी केवल दो राज्यों में है.
यह तथ्य चौंकाता तो नहीं है, पर हालात की गंभीरता की ओर जरूर इशारा करता है. यह सही है कि बड़ी जनसंख्या राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकती है, पर इससे उत्पन्न होने वाली समस्याएं अत्यंत गंभीर हैं. यूपी और बिहार जैसे बड़ी आबादी वाले राज्यों में हम अभी बुनियादी समस्याओं को हल नहीं कर पाये हैं. अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धि के बावजूद बिहार, उप्र और झारखंड प्रति व्यक्ति आय के मामले में पिछड़े हुए हैं. हम अब भी शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पानी की समस्या से जूझ रहे हैं.
बिहार के अधिकांश लोग कृषि से जीवन यापन करते हैं, पर एक बड़ा इलाका साल दर साल बाढ़ में डूबता आया है. कोसी और सीमांचल के इलाके की बाढ़ से आज भी हमें मुक्ति नहीं मिल पायी है. गंभीर बात यह भी है कि समाज में भी इसको लेकर कोई विमर्श भी नहीं है. हम सब देख रहे हैं कि हमारी जनसंख्या दिनोंदिन बढ़ रही है, तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधन लगातार घटते जा रहे हैं. यदि इसी तरह से जनसंख्या बढ़ती रही, तो रोजगार की समस्या और गंभीर होती चली जायेगी.
बढ़ती जनसंख्या को नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराने की चुनौती पर कोई चर्चा नहीं हो रही है. जनसंख्या के लिहाज से इन राज्यों के विकास का खाका कैसा हो, यह भी हमारे सामने नहीं है. ये तथ्य किसी भी देश और समाज के लिए बेहद चिंताजनक हैं.
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