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खुद की अदालत में मीडिया

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com हमारे साहित्य या मीडिया में खुद अपने भीतरी जीवन की सच्चाई जिक्री तौर से ज्यादा, फिक्री तौर से कम आती है. मसलन दर्शक-पाठक भली तरह जान चुके हैं कि मीडिया के भीतर कैसी मानवीय व्यवस्थाएं हैं, खबरें कैसे जमा या ब्रेक होती हैं. पत्रकारों के बीच […]

मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mrinal.pande@gmail.com
हमारे साहित्य या मीडिया में खुद अपने भीतरी जीवन की सच्चाई जिक्री तौर से ज्यादा, फिक्री तौर से कम आती है. मसलन दर्शक-पाठक भली तरह जान चुके हैं कि मीडिया के भीतर कैसी मानवीय व्यवस्थाएं हैं, खबरें कैसे जमा या ब्रेक होती हैं.
पत्रकारों के बीच एक्सक्लूसिव खबर देने के लिए कैसी तगड़ी स्पर्धा होती है. लेकिन, पिछले दो दशकों में उपन्यासों, कहानियों या मीडिया पर लिखे जानेवाले काॅलमों में भाषा और कथ्य के बदलाव की आहटें कम ही दिखती हैं. पिछले साल भी टीवी चैनलों-अखबारों में लोकप्रिय मीडियाकरों द्वारा दल विशेष के नेता विशेष के रासो शैली के कसीदे पढ़ने और साहित्य क्षेत्र में मीडिया कर्मियों के जीवन की आश्चर्यजनक रूप से कस्बाती, लेकिन भावुक किस्म की प्रेम-गाथाएं खूब छायी रहीं.
राजनीति और प्रेम, छोटे शहर से बड़े शहर तक आने के सफर जैसे विषयों पर अनेक मीडियाकरों की किताबें काफी धूम-धड़ाके से विमोचित की गयीं. काफी बिकीं, ऑनलाइन पढ़ी गयीं और साहित्योत्सवों में बहसियायी भी गयीं. फिर भी मीडिया को गंभीरता से लेनेवालों के लिए बड़े महत्व की कई बातें अनकही ही रह गयीं.
मीडिया की मालिकी अब गिने-चुने चार-पांच औद्योगिक घरानों के हाथों में सिमट कर रह गयी है. लोकल चैनल, लोकल अखबार या क्षेत्रीय भाषाएं-बोलियां मुख्यधारा मीडिया से बाहर हो रही हैं. उनकी जगह एक सपाट किस्म की भाषा ने ले ली है, जो खबरें भड़काऊ तरह से बेचती है.
उपभोक्ता को वह तटस्थ ईमानदार सूचना और खबरों के सबूत या स्रोत नहीं देती. खबर की तह तक जाने का दर्शक-पाठकों का धीरज डिजिटल मीडिया ने खत्म कर दिया है. आज औसत शहरी खबर उपभोक्ता एक चलंत भीड़ का हिस्सा है. यह भीड़ तकिये की टेक लेकर मनोयोग से अखबार या किताबें नहीं पढ़ती. अमूमन मोबाइल पर खबरों के अंश देख कर और किताबों के रिव्यू पढ़ कर ही जानकार बन जाता है.
यह अब कहना ही होगा कि अपने करोड़ों पाठकों-दर्शकों की पीठ पीछे मीडिया मालिकान और राजनीतिक नेतृत्व के हित स्वार्थों के बीच पिछले पांच सालों में एक अजीब गठजोड़ बन गया है. इस गठजोड़ की मूल चिंताएं मुनाफाकमाई और राजनीतिक प्रचार से जुडी हुई हैं.
इन दोनों जरूरतों ने अभिव्यक्ति की दुनिया से कथ्य और नैतिकता के तकाजों ही नहीं, अभिव्यक्ति की आजादी, आलोचना और जनसंवाद की परिभाषा को भी डिजिटल तकनीकों की मार्फत सिरे से बदल दिया है. मीडिया और साहित्य का ज्ञानात्मक संवेदना और नैतिक अनुभूति देने का काम अब दीगर हो गया है.
इससे मीडिया का सामाजिक तौर से एक बहुत महत्वपूर्ण काम छूट गया है. नया मीडिया और साहित्यिक उत्पाद अब अधिक स्मार्ट तरीके से जनता को सामाजिकता से काट कर उसे अपने ही हित-स्वार्थों के संदर्भ में सोचने को बाध्य करने लगे हैं.
यह सच है कि संपादकों, रिपोर्टरों या लेखकों (जिनमें नयी फिल्मों के पटकथा लेखक भी शुमार हैं) का हमेशा एक वर्ग रहा है, जिसने पुराने कथ्य या फॉर्म को नाकाफी माना और उनमें तमाम तरह के नये प्रयोग किये हैं.
ऐसा भी नहीं कि इन लोगों द्वारा पुरअसर साहित्य या रपटें नहीं रची गयीं, लेकिन कहीं-न-कहीं अधिकतर मीडिया और साहित्यकारों द्वारा हमको सोचने पर मजबूर करने की बजाय राहत महसूस कराना और यथास्थिति से समझौता कराने को प्रेरित करना खतरनाक है. ईमानदारी से सोचें, तो हाल के दिनों में राजनीति या इतिहास पर जो फिल्में बनी भी हैं, उनमें से पद्मावत या मणिकर्णिका या उरी या एन एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर, ने अंतत: हमें समकालीन भारतीय स्थिति पर क्या कुछ भी नया विचार या दिशा-निर्देश दिया?
मीडिया आज जागरूक जनता के बीच खुद कई सवालों के कठघरे में खड़ा है. देश की तीन शीर्ष संस्थाओं- एडिटर्स गिल्ड आॅफ इंडिया, वीमेंस प्रेस कोर तथा प्रेस क्लब ने अपने हमपेशा लोगों के साथ राजनीति या मीडिया की चंद बड़े काॅर्पोरेट हाथों में जा चुकी मिल्कियत और उसके काॅर्पोरेट हितों से उसको विचारधारा विशेष को झुकानेवाला राजनीति का पिछलग्गू इंजन बनते जाने, के सामयिक सवाल पर समवेत चर्चा की क्या इधर कोई प्रशंसनीय पहल की?
यह सही है कि गहरी स्पर्धा के युग में ताबड़तोड़ जटिल स्टोरी का पीछा करते हुए एक पत्रकार को हर तरह के लोगों से मिलना होता है. पर दलील दी जाये कि पत्रकार अगर दोस्ती का चरका देकर किसी ऐसे महत्वपूर्ण स्रोत से संपर्क साधेगा ही, जो काॅर्पोरेट घरानों का ज्ञात और भरोसेमंद प्रवक्ता तथा राजनीतिक दलों से उनके हित साधन का जरिया भी हो, तो क्या यह पत्रकार के प्रोफेशनल होने का प्रमाण माना जाए?
चुनाव पास हों, तो भीतरी उठा-पटक और भी गहराने लगती है. बजट से लेकर सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन तक से जुड़ी अहम सरकारी फैसलों की धारा मीडिया के जजमानों के हित में मुड़वाने के लिए कौन नेता, अफसर या पत्रकारिता दिग्गज उनको मदद देगा और बदले में क्या पायेगा, इसकी सबको खूब परख होती है. रिपोर्टिंग के लिए बार-बार सम्मानित पत्रकार इन सच्चाइयों व धंधई लक्ष्मण रेखाओं से अनजान हैं, यह मानना असंभव है. बेहतर हो कि विनम्रता से मान लें कि उनसे गलती हुई है और उससे वे सबक लेंगे.
अभी उत्तर प्रदेश के खदान आवंटन मामले में एक बड़े पत्रकार का नाम उछला है, जिनकी धूमकेतु सफलता का रहस्य उनके द्वारा हर सत्तावान राजनीतिक दल को विस्मयकारी रूप से खुश रखने की दक्षता माना जाता है.
हमारे संविधान का अनुच्छेद-19 मीडिया ही नहीं, सभी देशवासियों को अभिव्यक्ति की आजादी का हक देता है, वह यह नहीं कहता कि आप अमुक चैनल या अखबार के समूह संपादक और कई लाभकारी सूत्रों से संपर्क रखनेवाले हैं, तो आपको अपनी इच्छानुसार सरकारी पक्षधरता या कंपनी हितों की रक्षा का दूसरों से बड़ा हक प्राप्त हो जाता है. ताबड़तोड़ हुए तमाम राजनीतिक बदलावों, फैसलों और सरकार के आगे अधिकतर मीडिया समूहों की सामूहिक मत्थाटिकाई ने आज पत्रकारिता के क्षेत्र को परिधिविहीन बना डाला है.
सभी हिंदी पत्रकार धंधई उसूलों को तोड़ने के दोषी भले न हों, पर उनके लिए भी चुनाव की पूर्वसंध्या सरकारी विज्ञापनों से मालामाल होकर अपनी पीठ थपथपाने की बजाय तटस्थ आत्मपरीक्षण की घड़ी होनी चाहिए.

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