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आखिर हम चिंतित क्यों नहीं होते

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in प्रदूषण को लेकर एक के बाद एक रिपोर्टें आ रही हैं, जिनमें भारत के शहरों की चिंताजनक स्थिति की ओर इशारा किया जा रहा है. बावजूद इसके, हम इस ओर आंख मूंदे हैं. कोई चिंता नहीं जतायी जा रही है. समाज में भी इसको लेकर कोई विमर्श […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
प्रदूषण को लेकर एक के बाद एक रिपोर्टें आ रही हैं, जिनमें भारत के शहरों की चिंताजनक स्थिति की ओर इशारा किया जा रहा है. बावजूद इसके, हम इस ओर आंख मूंदे हैं. कोई चिंता नहीं जतायी जा रही है. समाज में भी इसको लेकर कोई विमर्श नहीं हो रहा है.
अगले महीने आम चुनाव हैं, लेकिन उनमें भी यह कोई मुद्दा नहीं है और न ही पर्यावरण संरक्षण किसी पार्टी के घोषणापत्र में स्थान पाता है. आइक्यूएयर एयर विजुअल और ग्रीनपीस ने हाल में अध्ययन प्रकाशित किया है, जिसके अनुसार दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित 10 शहरों में से सात भारत के हैं. इनमें पांच तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के ही हैं. प्रदूषण स्तर के मामले में टेकनोलॉजी का क्षेत्र का हब माने जाने वाला गुरुग्राम प्रदूषण के मामले में दुनिया में टॉप पर है. रिपोर्ट के मुताबिक दूसरे नंबर पर गाजियाबाद है़ हरियाणा का फरीदाबाद चौथे, यूपी का नोएडा छठवें और राजधानी दिल्ली 11वें नंबर पर है. इस सूची में पटना सातवें नंबर पर और मुजफ्फरपुर 13वें स्थान पर है.
देश में प्रदूषण का स्तर कितना ज्यादा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस सूची में प्रदूषित शीर्ष 10 शहरों में से सात भारत के हैं.
दुनियाभर के देशों की राजधानियों से तुलना करें, तो भारत की राजधानी दिल्ली सबसे ज्यादा प्रदूषित है. दिल्ली को लेकर लगातार रिपोर्टें आ रही हैं, लेकिन स्थिति जस-की-तस है. प्रदूषण के मामले में दिल्ली के बाद नंबर आता है बांग्लादेश की राजधानी ढाका और अफगानिस्तान की राजधानी काबुल का. इससे पता चलता है कि आप किस श्रेणी में हैं. ये आंकड़े किसी भी देश और समाज के लिए बेहद चिंताजनक हैं.
सन् 2013 में दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहर में चीन के पेइचिंग समेत 14 शहर शामिल थे, लेकिन चीन ने कड़े कदम उठाये और प्रदूषण की समस्या पर काबू पा लिया. दरअसल, विकास के नाम पर औद्योगिक इकाइयों को धुआं फैलाने की खुली मिल जाती है. औद्योगिक इकाइयां, बिल्डर और खनन माफिया पर्यावरण संरक्षण कानूनों की खुलेआम अनदेखी करते हैं. औद्योगिक इकाइयों के अलावा वाहनों की बढ़ती संख्या, धुआं छोड़ती पुरानी डीजल गाड़ियां, निर्माण कार्य और टूटी सड़कों की वजह से भी हवा में धूल का उड़ना भी प्रदूषण की बड़ी वजह हैं. प्रदूषण को लेकर सख्त नियम हैं, लेकिन उनको लागू करने वाला कोई नहीं है.
जनता से जुड़े इस विषय पर विस्तृत विमर्श होना चाहिए, लेकिन ऐसा भी होता नजर नहीं आता है. सोशल मीडिया पर रोजाना कितने घटिया लतीफे चलते हैं, लेकिन पर्यावरण जागरूकता को लेकर संदेशों का आदान-प्रदान नहीं होता है. टीवी चैनलों पर रोज शाम बहस होती है, लेकिन बढ़ते प्रदूषण पर कोई सार्थक चर्चा नहीं होती.
वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा बच्चे और बुजुर्ग होते है. वायु प्रदूषण से हर वर्ष 70 लाख लोगों की जान चली जाती है, जिनमें छह लाख बच्चे हैं. दुनिया में औसतन सात में से एक बच्चा जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर है.
कई वर्षों तक प्रदूषित हवा में सांस लेने के कारण कैंसर, हृदय और श्वांस संबंधी बीमारियां हो जाती हैं और लोग अपनी जान गंवा बैठते हैं. पर्यावरण और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत डेविड बॉयड का कहना है कि लोगों को स्वच्छ हवा में सांस लेने का बुनियादी अधिकार है और कोई भी समाज पर्यावरण की अनदेखी नहीं कर सकता है. दुनिया के 155 देश इस अधिकार को मान्यता देते हैं.
अपने देश में स्वच्छता और प्रदूषण का परिदृश्य वर्षों से निराशाजनक है. इसको लेकर समाज में जैसी चेतना होनी चाहिए, वैसी नहीं है. एक बात स्पष्ट है कि यह काम केवल केंद्र अथवा राज्य सरकार के बूते का नहीं है.
इसमें जनभागीदारी जरूरी है. केवल सरकार या नगर निगमों के सहारे यह काम नहीं छोड़ा जा सकता है. प्रदूषण मुख्य रूप से मानव निर्मित होता है. इसलिए इसमें सुधार एक सामूहिक जिम्मेदारी है. साथ ही हमारी जनसंख्या जिस अनुपात में बढ़ रही है, उसके अनुपात में सरकारी प्रयास हमेशा नाकाफी रहने वाले हैं. हमें प्रदूषण को नियंत्रित करने के प्रयासों में योगदान करना होगा. बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के हमारे अन्य अनेक शहरों की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है.
स्वच्छता और सफाई के काम को करने में सांस्कृतिक बाधाएं भी आड़े आती हैं. देश में ज्यादातर धार्मिक स्थलों के आसपास अक्सर बहुत गंदगी दिखाई देती है. इन जगहों पर चढ़ाये गये फूलों के ढेर लगे होते हैं. कुछेक मंदिरों ने स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से फूलों के निस्तारण और उन्हें जैविक खाद बनाने का प्रशंसनीय कार्य प्रारंभ किया है.
झारखंड के विश्व प्रसिद्ध बासुकीनाथ मंदिर के ऐसे फलों और बेलपत्रों से दुमका जिला प्रशासन ने ‘बासुकीनाथ’ अगरबत्ती बनाने का काम शुरू किया है. इसके लिए वहां के गांव की महिलाओं को प्रशिक्षित कर उनका ‘सखी मंडल’ नाम से ग्रुप तैयार किया गया है.
इससे जहां इन फूल-बेलपत्रों को इधर-उधर फेंक देने से पैदा होने वाली गंदगी की समस्या खत्म हो गयी, वहीं फूलों का उपयोग भी होने लगा है और गांव की महिलाओं को नियमित रोजगार मिला है. इस ग्रुप में ज्यादातर महिलाएं आदिवासी हैं, जो इससे पहले बदबूदार ‘हड़िया’ (कच्ची शराब) बेच कर अपने घर चलाती थीं. मंदिर में उपयोग के बाद फेंक दिये जाने वाले फूल-बेलपत्रों से अब उनकी जिंदगी में खुशबू आयी है.
इस अगरबत्ती की सालों भर बिक्री होती है और जिला प्रशासन की पहल पर फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट ने भी इसकी ब्रांडिंग की है. अन्य धर्म स्थलों को भी ऐसे उपाय अपनाने चाहिए. होता यह है कि हम लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करके सुंदर मकान तो बना लेते हैं, लेकिन नाली पर ध्यान नहीं देते और गंदा पानी सड़क पर बहता रहता है. यही स्थिति कूड़े की है. हम रास्ता चलते कूड़ा सड़क पर फेंक देते हैं.
दलील दी जाती है कि बिहार के शहरों के प्रदूषण की एक बड़ी वजह जनसंख्या घनत्व है, लेकिन दुनिया के कई ऐसे शहर हैं जो उच्च जनघनत्व के बावजूद प्रदूषण की मुक्त हैं. सिंगापुर दुनिया का आठवां सबसे अधिक जन घनत्व वाला शहर है, लेकिन अपने बेहतरीन रखरखाव के कारण यह दुनिया का सबसे स्वच्छ शहर है. विदेशी शहरों को तो छोड़े अपने देश में ही देखें कि इस सूची में दक्षिण का कोई शहर शामिल नहीं हैं.
बिहार के शहरों के मुकाबले हैदराबाद, बेंगलुरु जैसे शहर आबादी के लिहाज से बड़े हैं लेकिन योजनाबद्ध तरीके से विकास के कारण इन शहरों को प्रदूषण की समस्या से जूझना नहीं पड़ रहा है. लोगों में जब तक साफ सफाई और प्रदूषण के प्रति चेतना नहीं आयेगी, तब तक कोई उपाय कारगर साबित नहीं होंगे. यह चेतना सरकार और समाज को जागृत करनी होगी.

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