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नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी

II राजीव प्रताप रूडी II लोकसभा सांसद व पूर्व केंद्रीय मंत्री rprudy.office@gmail.com पिछले सप्ताह संसद में खूब हंगामा हुआ. प्रधानमंत्री मोदी और राहुल गांधी के बीच राष्ट्र को बनाने और तोड़ने का आरोप और प्रत्यारोप लगाया गया. संसद में उठे इस विवाद को यदि निष्पक्ष अकादमिक नजरिये से नापा-तौला जाये, तो प्रधानमंत्री द्वारा कहे गये […]

II राजीव प्रताप रूडी II
लोकसभा सांसद व पूर्व केंद्रीय मंत्री
rprudy.office@gmail.com
पिछले सप्ताह संसद में खूब हंगामा हुआ. प्रधानमंत्री मोदी और राहुल गांधी के बीच राष्ट्र को बनाने और तोड़ने का आरोप और प्रत्यारोप लगाया गया. संसद में उठे इस विवाद को यदि निष्पक्ष अकादमिक नजरिये से नापा-तौला जाये, तो प्रधानमंत्री द्वारा कहे गये शब्दों में बल है. जब मोदी ने कहा कि यह देश कांग्रेस के पाप से आज भी झुलसा हुआ है, हर दिन कुछ-न-कुछ ऐसा होता है, जिसकी नींव 1947 में खोदी गयी थी. इसके कई उदाहरण है. यहां पर चंद प्रसंगों का जिक्र जरूरी है, जिससे देश के आम नागरिकों को महरूम रखा गया था.
पहला, कश्मीर का मुद्दा. पिछले एक महीने में हमारे कई जवान शहीद हुए. निरंतर आतंकवादी हमले और पाकिस्तानी घुसपैठ जारी है. 70 वर्षों में जम्मू-कश्मीर का मसला कांग्रेसी राजनीति में इतना पिस चुका है कि उसका सुनयोजित हल खोज पाना अत्यंत ही कठिन काम है.
लेकिन, यहां पर कुछ बुनियादी प्रश्नों को पूछा जाना समयानुकूल है. पहला, नेहरू जी ने जम्मू-कश्मीर को भारत में विलय की शर्तों से क्यों जकड़ दिया? जबकि, वहां के महाराजा परिस्थितियों के कारण स्वतः और स्वाभाविक रूप से भारत में विलय के लिए राजी थे? नेहरू क्या सोचकर जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र की चौखट पर गुहार लगाने चले गये?
क्या इससे देश का भला हुआ? जब भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को ललकारते हुए मुजफ्फराबाद, ग्रामीण पंुछ और गिलगित को अपने कब्जें में कर लिया था, तो अचानक युद्ध विराम की घोषणा कर एक अलग पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर बनाने की छूट क्यों दी गयी? इतना ही नहीं, जब गृह मंत्री पटेल 64 करोड़ रुपये पाकिस्तान को नहीं देने की जिद पर अड़ गये थे, तो क्यों नेहरू ने पटेल के विरोध में एक अलग मोर्चा खोल दिया?
गांधीजी के दबाव में यह राशि पाकिस्तान को दी गयी. क्यों नेहरू जी ने चीन के प्रधानमंत्री को भारत बुलाकर भारतीय नृत्य का लुत्फ उठाने का मौका दिया? तिब्बत किस तरीके से भारतीय प्रभाव से फिसलकर चीन के चंगुल में अटक गया? किस तरीके से भारतीय विदेश नीति राष्ट्र हित से अलग हटकर वोट बैंक की तराजू पर मापी जाने लगी? यदि प्रधानमंत्री ने इन तमाम खामियों को बटोरकर यह कहा कि कांग्रेसी नीतियों की वजह से खंजर हमारे देशवासियों को झेलनी पड़ रही है, तो इसमें अतिशयोक्ति क्या है ?
पटेल ने गृहमंत्री की हैसियत से दो टूक शब्दों में यह जवाब दिया था कि जब कोई देश हमारे साथ युद्ध की स्थिति में है, तो उसे हम पैसा क्यों दे? संधि हुई थी, तो शांति और व्यवस्था को लेकर हुई थी, तब तय हुआ था कि भारत 64 करोड़ की राशि मुहैया करवायेगा. लेकिन, पाकिस्तान इस पैसे से हथियारों की खरीद-फरोख्त कर हमें ही मारने मिटने पर उतारू है.
कश्मीर की जनता मुस्लिम थी और राजा हिंदू, इसलिए नेहरू ने अंतरराष्ट्रीय संत गुरु बनने के चक्कर में कश्मीर का बंटाधार कर दिया. दूसरी तरफ अंग्रेजियत के अतिशय प्रेम ने कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय कलेवर पहना दिया. बाद में चीन ने पाकिस्तान की बांह थाम ली. पाकिस्तान ने चीन को कश्मीर मुद्दे का मुख्य सिपहसलार बना दिया. इसके बदले एक बड़ा हिस्सा चीन को दे दिया. यह सब कुछ दृष्टि-दोष की वजह से पैदा हुआ, जो कांग्रेस की देन थी.
उसके उपरांत इंदिरा गांधी के द्वारा चकमा शरणार्थियों के लिए भारत के ऊत्तर-पूर्वी राज्यों को रैन बसेरा बना दिया गया. तकरीबन हर उत्तर-पूर्वी राज्यों की जनसांख्यिकी बदलने लगी. विद्रोह और विद्वेष की िचनगारी फैलने लगी.
इसके अतिरिक्त और कई उदाहरण हैं. नेपाल के राजा त्रिभुवन भारत के साथ मिलना चाहते थे.मिलने-मिलाने की बात तो दूर की रही, नेपाल 1950 तक भारत विरोधी बन गया. सत्ता के गलियारों में भारत विरोध की महत्वपूर्ण इकाई नेपाल में बनकर तैयार हो गयी. कौन जिम्मेदार है इसके लिए? आज नेपाल अगर भारत से संयमित दूरी की बात करता है, तो इसके पीछे भारत की दोषपूर्ण नीति रही है, जिसे पल्लवित-पुष्पित कांग्रेस की सरकार ने किया. तिब्बत को हड़पने के बाद चीन की सेना नेपाल तक पहुंच गयी. नेपाल की सीमा भारत के चार बड़े राज्यों से मिलती है. जो आसन भारत का अंग्रेजों के दौरान था, वह टूटता चला गया और यह तकरीबन 2014 तक चला.
मोदी ने पिछले वर्ष ‘डोकलाम’ में उसे कर दिखाया कि भारत चीन से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है.प्रधानमंत्री ने यह सब कुछ एक सामरिक राजनीति के तहत की. प्रधानमंत्री बनने के उपरांत ही उन्होंने अपनी पहली विदेश यात्रा भूटान और नेपाल से शुरू की थी. यह परिवर्तन इस समीकरण का हिस्सा था कि भारत हिमालय के तलहटियों में बसे देशों में अपनी खोई हुई अस्मिता को वापस लेना चाहता है. पुनः मोदी ने दुनिया के उन तमाम देशों की यात्रा की, तलाशा और खोजा कि कौन-कौन से देश चीन के उत्पीड़न से परेशान है.
दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से लेकर पैसिफिक देशों की टोली बनायी. अमेरिका को भरोसा दिलाया. इसका परिणाम यह निकला कि अमेरिका ने इस तथ्य को समझा कि हमारा पड़ोसी राष्ट्र तालिबान और अन्य आतंकवादी संगठनों को प्रश्रय दे रहा है. भारत का इसके प्रति कड़े रुख पर अमेरिका ने पाकिस्तान को दी जानेवाली सहायता राशि में कटौती कर दी.
पाकिस्तान के लिए अमेरिकी सहायता वर्ष 2014 में 2.177 अरब डॉलर से घटकर 2017 में 526 मिलियन डॉलर कर दी. 1953 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने नेहरू को आण्विक हथियार देने तक की बात कह दी थी, यदि भारत चीन को घेरने की कोशिश में अमेरिका की मदद कर देता. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. भारत चीन का दुश्मन तो बन ही गया, अमेरिकी रंजिश भी झेलनी पड़ी.
इन तमाम कवायदों के मद्देनजर नेहरू के अत्यंत ही विश्वसनीय मित्र अबुल कलाम साहब यहां तक कह गये कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पटेल को होना चाहिए था. यह बात जब प्रधानमंत्री संसद से कह रहे हैं, तो इसमें गलत क्या है? यह धारणा 70 सालों के बाद भी जनता की अनुगूंज है.
इसमें कोई मनगढ़ंत और अतिशयोक्ति नहीं है. नरेंद्र मोदी ने भारत की विदेश नीति को एक नया रूप दिया है. प्रधानमंत्री मोदी ने वोट बैंक की राजनीति से हटकर राष्ट्रीय हित की नींव रखी है. फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी की इस्राइल और फिलिस्तीन यात्रा को इस नजरिये से देखा जा सकता है.

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