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महाराष्ट्र में खींचतान के बीच

नीरजा चौधरी राजनीतिक विश्लेषक delhi@prabhatkhabar.in महाराष्ट्र में छह माह के लिए राष्ट्रपति शासन लग गया. विधानसभा निलंबित कर दी गयी. कल शाम ही खबर आ गयी थी कि महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी है. अब आगे जो भी हो, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति एक अलग ही मोड़ […]

नीरजा चौधरी
राजनीतिक विश्लेषक
delhi@prabhatkhabar.in
महाराष्ट्र में छह माह के लिए राष्ट्रपति शासन लग गया. विधानसभा निलंबित कर दी गयी. कल शाम ही खबर आ गयी थी कि महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी है.
अब आगे जो भी हो, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति एक अलग ही मोड़ पर है, जहां भाजपा, शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस सबकी अपनी मजबूरियां और महत्वाकांक्षाएं दिख रही हैं. पहले भाजपा और शिवसेना के बीच लंबे समय तक पहले मुख्यमंत्री मेरा होगा को लेकर खींचतान चली और उसके बाद जब गेंद एनसीपी के पाले में गयी, तो फिर कांग्रेस के भीतर के अपने कन्फ्यूजन ने उसे अपने समर्थन की चिट्ठी न देकर एक नये तरह का कशमकश पैदा कर दिया.
मजे की बात यह है कि महाराष्ट्र चुनाव परिणाम के तीन सप्ताह पूरे होनेवाले हैं, लेकिन अब तक न तो अमित शाह और न तो नरेंद्र मोदी की कोई टिप्पणी इस संदर्भ में आयी है कि आखिर वहां भाजपा क्या चाहती है?
घंटेभर में या ज्यादा-से-ज्यादा एक-दो दिन में सारे सियासी गुणा-भाग फिट कर लेनेवाले भाजपा के अध्यक्ष इस पर चुप क्यों हैं, इसके पीछे की कोई बड़ी वजह क्या है, इसकी कोई सुगबुगाहट तक नहीं आयी, जबकि महाराष्ट्र के साथ ही चुनाव हुए हरियाणा में एक दिन भी नहीं लगा और दुष्यंत चौटाला का समर्थन लेकर भाजपा ने वहां फौरन सरकार बना लिया.
ऐसा कैसे हो सकता है कि महाराष्ट्र के देवेंद्र फड़णवीस के ऊपर सब कुछ छोड़ दिया गया? हो सकता है कि फड़णवीस को लेकर कोई नाराजगी हो कि वह बहुत तेजी से ऊपर उठ रहे थे और फड़णवीस ने खुद ही यह कहा था कि मुख्यमंत्री तो मैं ही बनूंगा और पांच साल फिर सरकार चलाऊंगा. प्रधानमंत्री मोदी इस बयान से खुश नहीं थे. इसलिए हो सकता है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने फड़णवीस को खुला छोड़ दिया हो कि अब खुद ही अपने दम पर सरकार बना लो.
जब शिवसेना और भाजपा सरकार बनाने पर सहमत नहीं हुईं और वक्त गुजरने लगा, तो राज्यपाल ने एनसीपी को बुला कर कुछ घंटे का वक्त दिया कि वह अपना दावा पेश करे, लेकिन कांग्रेस की जब समर्थन की चिट्ठी उसको नहीं मिली, तो मामला फिर उलझता हुआ दिखा.
ऐसे में एनसीपी चाहती, तो शिवसेना के साथ ढाई-ढाई साल की सरकार बना सकती है और इसमें कांग्रेस को भी कम आपत्ति होती, क्योंकि तब भाजपा विपक्ष में बैठती और मेरा खयाल है कि एनसीपी के नेतृत्व में बननेवाली यह सरकार स्थायी भी होती, क्योंकि शरद पवार बहुत अनुभवी नेता हैं, खासतौर पर महाराष्ट्र और उसकी राजनीति को अच्छी तरह से समझते भी हैं. वे यह भी कह सकते हैं कि ढाई साल पहले शिवसेना का मुख्यमंत्री होगा और फिर उसके बाद ढाई साल एनसीपी का. शिवसेना इस बात को मान भी जायेगी, लेकिन मुश्किल यही है कि इसकी पहल कैसे हो. शरद पवार जिस तरह से चुनाव मैदान में उतरे थे, उससे मराठा लोगों का जुटान बढ़ा है.
अगर कांग्रेस के समर्थन से शरद पवार सरकार बनाते, तो कांग्रेस के पुराने वोट बैंक मराठा, महार और मुसलमान भी उसकी ओर झुकते और फिर उम्मीद बढ़ जाती कि महाराष्ट्र में खेती-किसानी के लिए कोई बड़ा कदम उठाते. क्या एनसीपी किसी तरह से उद्धव ठाकरे को मना लेगी, कांग्रेस को अपने साथ कर लेगी, यह सब मात्र राजनीतिक संभावनाएं ही हैं.
इस चुनाव परिणाम में शिवसेना के लिए तो आफत ही आफत है. राष्ट्रपति शासन के दौरान भाजपा हर हाल में शिवसेना के विधायकों को तोड़ना चाहेगी, क्योंकि खुद शिवसेना के विधायक चाहेंगे कि वे सरकार में रहें. यह तो मौजूदा नेताओं का गुण-धर्म है कि चुने जाओ और फिर किसी तरह से सरकार में शामिल रहो. इसलिए चुनाव बाद सियासी बिसात बिछ जाती है और साम-दाम-दंड-भेद के साथ सब अपनी-अपनी गोटियां सेट करने में लग जाते हैं.
राष्ट्रपति शासन में चार-पांच महीने में चुनाव कराने की मजबूरी होगी, जिसका परिणाम यह होगा कि उसमें भाजपा और एनसीपी को बढ़त हासिल होगी और शिवसेना पिछड़ जायेगी. इसलिए शिवसेना के लिए आफत ही आफत है.
हालांकि, कांग्रेस के लिए भी समस्याएं कम नहीं हैं, वह जिस तरफ जा रही है, वहीं समस्याएं खड़ी हो रही है. कांग्रेस के विधायकों को टूटते देर नहीं लगती है, इसलिए वह सरकार में रहे या बाहर रहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है.
बहरहाल, सारी सूई इस बात पर आकर टिक जा रही है कि जो भाजपा इतनी माहिर है सरकार बनाने में, वह इतनी चुप क्यों है और उसके शीर्ष नेतृत्व की तरफ से कोई आहट क्यों नहीं आ रही है. जहां से मैं देख रही हूं, मुझे ऐसा लगता है कि भाजपा ने शायद यह सोचा होगा कि अब तक कई राज्यों में जिस तरह से उसने येन-केन-प्रकारेण सरकारें बनायी हैं, उसको थोड़ा विराम दिया जाए. दूसरी बात यह लगती है कि एनसीपी और शिवसेना के विधायकों को तोड़ना इतना अासान नहीं है.
शायद इसी आधार पर भाजपा ने गुणा-भाग किया होगा कि वह सरकार बना नहीं पायेगी. इसलिए उसने अपना दावा भी छोड़ दिया. शायद भाजपा ने यह भी जान लिया हाेगा कि बाकी की पार्टियां भी सरकार नहीं बना पायेंगी और फिर राष्ट्रपति शासन लगना तय हो जायेगा. बस इसी राष्ट्रपति शासन का वह इंतजार करेगी और कुछ महीने बाद जब चुनाव होंगे, तब वह बिना किसी के साथ गठबंधन किये महाराष्ट्र में सारी सीटों पर चुनाव लड़ेगी.
जाहिर है, अगर ऐसा होता है, तो निश्चित रूप से बड़ा फायदा भाजपा को ही होगा. गौरतलब है कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के पास यह मौका चुनाव के पहले भी था, लेकिन फड़णवीस ने ही जोर डाला था कि वह शिवसेना के साथ गठबंधन में ही चुनाव में उतरेंगे. खुद भाजपा में एक बड़ा तबका यह मानता था कि उसे गठबंधन नहीं करना चाहिए.
भाजपा ने ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री की बात चुनाव के पहले की हो या नहीं, लेकिन अब जो हालत है, उसमें शिवसेना को हठ नहीं पालना चाहिए. चुनाव परिणाम ने नयी स्थिति पैदा की थी. इसलिए शिवसेना को नयी तरह की पहल करनी चाहिए थी.
दरअसल, शिवसेना को यह आभास हो गया था कि भाजपा के मुख्यमंत्री बनने में उसके अस्तित्व पर संकट आ जायेगा. यह भी बात सही है कि भाजपा एक तरह से शिवसेना के अाधार पर ही आगे बढ़ती जा रही है. शायद इसलिए फड़णवीस ने शिवसेना से गठबंधन बनाये रखने की बात कही होगी. बहरहाल, अब तो समय ही बतायेगा कि क्या होनेवाला है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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