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Friday, March 29, 2024

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कर्नाटक मामले से उपजे सवाल

विजय कु. चौधरी अध्यक्ष, बिहार विधानसभा vkumarchy@gmail.com कर्नाटक में विधायकों के इस्तीफा एवं सरकार के विश्वासमत का प्रकरण अंतहीन बनता जा रहा है. राजनीतिक फलाफल से निरपेक्ष इस क्रम में कुछ महत्वपूर्ण बातें उभरकर सामने आयीं. राजनीतिक लाभ या हानि जिस दल का भी हुआ, इस प्रकरण से संबद्ध संवैधानिक संस्थाओं पर इसके प्रभाव का […]

विजय कु. चौधरी
अध्यक्ष, बिहार विधानसभा
vkumarchy@gmail.com
कर्नाटक में विधायकों के इस्तीफा एवं सरकार के विश्वासमत का प्रकरण अंतहीन बनता जा रहा है. राजनीतिक फलाफल से निरपेक्ष इस क्रम में कुछ महत्वपूर्ण बातें उभरकर सामने आयीं. राजनीतिक लाभ या हानि जिस दल का भी हुआ, इस प्रकरण से संबद्ध संवैधानिक संस्थाओं पर इसके प्रभाव का आकलन आवश्यक है. सर्वविदित है कि कर्नाटक के कांग्रेस और जनता दल (एस) के 16 विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और गोवा चले गये.
इसके बाद विधानसभा अध्यक्ष ने व्यक्तिगत रूप से मिलकर त्यागपत्र सौंपने का निर्देश दिया तथा कुछ विधायकों के त्यागपत्र सही प्रपत्र में नहीं होने की बात भी बतायी. उसके बाद विधायकों ने अध्यक्ष के सामने उपस्थित होकर सही प्रपत्र में अपना त्यागपत्र सौंपा. अध्यक्ष ने त्यागपत्र देने की परिस्थितियों की समीक्षा की बात कहकर निर्णय लेने में न सिर्फ देर की, बल्कि इसकी कोई समय सीमा भी निर्धारित नहीं की.
किसी खेल की आशंका के मद्देनजर त्यागपत्र देनेवाले विधायकों ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. तीन सदस्यीय पीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के साथ दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस शामिल थे, ने इस मामले पर सुनवाई की.
बागी विधायकों एवं विधानसभा अध्यक्ष के वकीलों ने अपनी-अपनी दलीलें रखीं. बागी विधायकों के वकील की मुख्य बहस यह थी कि उन्होंने अध्यक्ष से व्यक्तिगत रूप से मिलकर इस्तीफा दिया और संविधान के अनुच्छेद 190 (3) (बी) के तहत अध्यक्ष को इस्तीफा स्वीकार करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प उपलब्ध नहीं है.
दूसरी ओर, अध्यक्ष के वकील ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि प्रावधानों के मुताबिक त्यागपत्र की स्वीकृति से पहले यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि त्यागपत्र बिना किसी दबाव के दिया गया है. दोनों पक्षों को सुनने के बाद न्यायालय ने अगले चार दिनों तक यथास्थिति बनाये रखने का निर्देश दिया और फिर 16 जुलाई को सुनवाई पूरी कर 17 जुलाई को निर्णय सुनाया. न्यायालय ने अध्यक्ष के फैसले लेने में स्वतंत्रता की बात कर कोई निर्देश देने से इनकार किया. दूसरे, न्यायालय ने कहा कि बागी विधायकों को सदन में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.
शुरू में विधानसभा अध्यक्ष द्वारा विधायकों को स्वयं उपस्थित होकर निर्धारित प्रपत्र में इस्तीफा देने की बात करना बिल्कुल उचित था. क्योंकि विधायकों के स्वयं उपस्थित नहीं होने पर इस्तीफे की सत्यता प्रमाणित नहीं हो पाती.
परंतु जब विधायकों ने उपस्थित होकर त्यागपत्र दिया, तब विधानसभा अध्यक्ष के पास कोई विकल्प नहीं बचता. अगर यह भी मान लें कि उन्हें यह सुनिश्चित करना था कि त्यागपत्र बिना किसी दबाव के दिया गया है, तो जिस समय विधायकगण उनके सामने उपस्थिति थे, उसी समय वे हर एक से अलग-अलग मिलकर इस बात को सुनिश्चित कर सकते थे.
परंतु ऐसा न करके बाद में सारी स्थितियों की समीक्षा करने की बात कर निर्णय लेने में हीला-हवाला करना अनुचित लगता है. इसके अलावा निर्णय लेने के क्रम में अध्यक्ष द्वारा राज्य की जनता की भावना का भी ख्याल रखने की बात करना स्थिति को और भी संदेहास्पद बना दिया.
इससे अनावश्यक उलझन पैदा हुई. यह तरीका विश्वसनीय नहीं माना जा सकता है, क्योंकि आखिर कर्नाटक की जनता की भावना का आकलन या संदर्भ करने की प्रामाणिक विधि क्या हो सकती थी? इस तरह की दलील राजनीतिक भावना से संवैधानिक मान्यताओं के विपरीत ही दी जा सकती है. अगर अध्यक्ष इस्तीफा स्वीकार नहीं करके ह्विप उल्लंघन के मामले में सदस्यों को संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत निरर्हित करने का विचार रखते हैं, तो कोई तात्विक अंतर हो ही नहीं सकता एवं दोनों स्थिति में सदस्यता ही समाप्त होनी है.
दूसरी तरफ, उच्चतम न्यायालय द्वारा अगले चार दिनों तक यथास्थिति बनाये रखने का आदेश और भी चौंकानेवाला था. अगर विधानसभा अध्यक्ष कोई फैसला नहीं ले रहे हों और इस हेतु कोई उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाता है, तो न्यायालय द्वारा अध्यक्ष को एक समय-सीमा के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दिया जा सकता है.
परंतु, किसी खास अवधि तक फैसला नहीं लेने का निर्देश देने का क्या औचित्य है? विधानसभा अध्यक्ष त्यागपत्र के मामले में फैसला लेने में स्वतंत्र हैं. संवैधानिक प्रावधानों के तहत यह उनके क्षेत्राधिकार में आता है.
फिर, न्यायालय द्वारा तय समय-सीमा के अंदर फैसला नहीं देने का निर्देश देने की बात समझ से परे है. किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को उसके अधिकारों के अधीन कार्य करने से कोई दूसरा प्राधिकार रोक नहीं सकता है. ऐसा करके न्यायालय ने विधायिका के अधिकारों का अतिक्रमण किया.
पुनः 17 जुलाई को अध्यक्ष के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप से मना करके सही एवं स्वागतयोग्य निर्णय दिया. परंतु न्यायालय द्वारा विधायकों के सदन में उपस्थिति को बाध्यकारी नहीं बतानेवाली बात अनावश्यक थी. वैसे भी कोई विधायक सदन में जाये अथवा न जाये, यह उसी का निर्णय हो सकता है. बाध्यता की तो बात ही उत्पन्न नहीं होती. आश्चर्य है कि कई प्रतिष्ठित मीडिया समूहों ने इसे ही निर्णय का महत्वपूर्ण अंश मानकर अकारण इसकी व्याख्या की. लगा जैसे इसके बाद विधायकों को अनुपस्थित होने की अनुमति मिल गयी.
यह बात सही है कि ऐसी स्थिति विधानसभा अध्यक्ष द्वारा त्यागपत्र पर फैसला लेने में किये गये इरादतन विलंब के कारण ही उत्पन्न हुई. अपने अधिकार क्षेत्र के विषयों या प्रश्नों पर ससमय फैसला नहीं लेना भी अधिकारों के दुरुपयोग की श्रेणी में ही आता है. आखिर अध्यक्ष के फैसले में विलंब के कारण ही संदेहास्पद स्थिति पैदा हुई और न्यायपालिका के दरवाजे तक मामला पहुंचा और उसे हस्तक्षेप करने का अवसर उपलब्ध हुआ.
इस तरह के विवादास्पद घटनाक्रम में कोई राजनीतिक दल जीते अथवा हारे, निष्पक्ष विवेचकों के लिए तो हर हाल में संवैधानिक संस्था की प्रतिष्ठा का ही क्षरण होता है.
इस मामले में अध्यक्ष द्वारा समय पर वांछित फैसला नहीं लेकर न सिर्फ विधायिका की साख में बट्टा लगाया गया, बल्कि न्यायपालिका के अनावश्यक हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त किया गया. पदधारक तो बदलते रहते हैं, परंतु पदासीन अधिकारी संस्थाओं की प्रतिष्ठा धूमिल कर जनतांत्रिक प्रणाली को ही कमजोर करते हैं. ऐसी स्थितियां न आयें, यह तो सभी को देखना होगा.
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