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Thursday, March 28, 2024

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भारत के लिए सतर्क रहना बुद्धिमानी

पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार pushpeshpant@gmail.com इधर पूरे देश का ध्यान लोकसभा चुनावों की हलचल ने, उनके शोर-शराबे ने अपनी तरफ आकर्षित कर रखा है, शायद इसलिए दूसरे देशों के चुनावों की चर्चा वैसी नहीं हुई है, जैसी होनी चाहिए. पहले जिक्र मालदीव का- हजार से ज्यादा नन्हे टापुओं का समूह, जिसे दुनिया के […]

पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
pushpeshpant@gmail.com
इधर पूरे देश का ध्यान लोकसभा चुनावों की हलचल ने, उनके शोर-शराबे ने अपनी तरफ आकर्षित कर रखा है, शायद इसलिए दूसरे देशों के चुनावों की चर्चा वैसी नहीं हुई है, जैसी होनी चाहिए.
पहले जिक्र मालदीव का- हजार से ज्यादा नन्हे टापुओं का समूह, जिसे दुनिया के गिने-चुने सूक्ष्म राज्यों में शुमार किया जाता है, कहने को भले ही यह माइक्रो स्टेट संसार के मानचित्र पर सूई की नोक से दर्शाया जा सकता है, हिंद महासागर में अपनी अतिसंवेदनशील भू-राजनीतिक स्थिति के कारण इसका महत्व हमारे लिए चीन या पाकिस्तान से कम नहीं. हकीकत यह है कि ये दोनों देश मालदीव का दुरुपयोग हाल के वर्षों में हमारी पीठ में खंजर भोंकनेवाले अंदाज में करते रहे हैं.
करीब पांच-छह साल पहले जनतांत्रिक प्रणाली से निर्वाचित राष्ट्रपति का तख्ता पलटकर अब्दुल्ला यामीन ने सत्ता ग्रहण की थी. आरंभ से ही उनका रवैया भारत विरोधी था.
उन्होंने चीन का तुरुप पत्ता खेलने की रणनीति अपनायी, साथ ही मालदीव की सुन्नी मुसलमान बहुसंख्यक आबादी का विज्ञापन कर पाकिस्तान तथा सऊदी अरब जैसे समानधर्मा देशों से सहानुभूति तथा सहायता बटोरने का प्रयास किया. इसी के चलते वह चीन के ऋणजाल में फंसते चला गया और मालदीव की प्रभुसत्ता के लिए संकट पैदा हो गया. आर्थिक सहायता की एवज में चीन को मालदीव की भूमि पर लगभग संप्रभु अधिकार सौंप दिये गये और चीनी कंपनियां दैत्याकार ठेकों के आधार पर बुनियादी ढांचे के निर्माण में जुट गयीं.
जाहिर है, चीन को खुश करने के लिए भारतीय कंपनियों के ठेके-सौदे रद्द कर दिये गये. भारतीय राजदूत को अवांछित व्यक्ति घोषित करने की देर बची थी. अक्सर उनकी स्थिति नजरबंद कैदी सरीखी रहती थी. प्राकृतिक आपदा प्रबंधन के लिए भारत ने जो दो हेलीकॉप्टर सुलभ कराये थे, उनके बारे में सैनिक दखलंदाजी का दुष्प्रचार किया गया.
मालदीव के सदियों पुराने रिश्ते अरब जगत से हैं- इस्लाम भी वहां भारत के रास्ते नहीं, समुद्री सौदागरों के माध्यम से ही पहुंचा. मालदीववासी अपने प्राचीन इतिहास पर गर्व करते हैं तथा इसे अपनी अलग पहचान का हिस्सा मानते हैं.
भारतीय राजनयिकों द्वारा इस अहं के आहत होने से ही वह भारत से खिन्न होने लगे. मोहम्मद नशीद के पहले एक दशक तक अब्दुल गय्यूम ने मालदीव में निर्वाचित तानाशाह के रूप में राज किया. वह यामीन के रिश्तेदार भी थे, पर इसके बावजूद वह कारावास जाने से बच नहीं सके. बहरहाल जब गय्यूम के खिलाफ फौज की एक टुकड़ी ने बगावत की, तब भारतीय कमांडो की कुमुक ने ही उनकी गद्दी बचायी थी.
तभी से गय्यूम के मन में यह आशंका घर कर गयी कि भारत पर अपनी निर्भरता घटाने में ही भलाई है अन्यथा वह कभी भी हस्तक्षेप कर सकता है. इसलिए उन्होंने चीन तथा पाकिस्तान से घनिष्टता बढ़ायी. इस काम को यामीन ने अंजाम तक पहुंचा दिया.
भारत की कोई इच्छा अपने किसी भी पड़ोसी देश के आंतरिक मामलों में दखलंदाजी की नहीं है, पर निश्चय ही वह इनकी भूमि का दुरुपयोग अपने विरुद्ध करने की साजिश को नजरंदाज नहीं कर सकता. हाल के वर्षों में यह संकट निरंतर बढ़ा है.
रईसों की ऐशगाह समझा जानेवाला मालदीव दहशतगर्दों का शरण्य भी बन गया है. सरकार ने स्वयं इस्लामी कट्टरपंथ को प्रोत्साहित किया, साथ ही दुर्गम दूरदराज द्वीपों पर तस्करों की गतिविधियों को जड़ से समाप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया गया.
कुल मिलाकर मालदीव की संसद के चुनावों में नशीद के दल की निर्णायक विजय भारत के लिए संतोष का विषय है. हालांकि, कुछ ही महीने पहले राष्ट्रपति चुनावों में भी यामीन को नाटकीय हार का मुंह देखना पड़ा था. पर इससे यह नतीजा निकालने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए कि अब भारत के राष्ट्रहित यहां निरापद हैं. चीन और पाकिस्तान इतनी आसानी से हार माननेवाले नहीं.
दोनों के लिए जनतांत्रिक चुनाव गौण है और उनके हथकंडे परदे के पीछे जारी रहेंगे. फिलहाल नयी सरकार चीन के साथ सौदों को उतनी आसानी से खारिज नहीं कर सकती, जितनी आसानी से यामीन ने भारत को ठुकराया था. भारत के लिए सतर्क रहना ही बुद्धिमानी है.
कुछ ऐसी ही स्थिति इस्राइल में बेंजामिन नेतन्याहू की पांचवीं लगातार जीत ने भी भारत के लिए जटिल चुनौती के रूप में पेश की है.
हाल के वर्षों में यह देश भारत के लिए सैनिक साजो-सामान की खरीद का प्रमुख स्रोत बनकर प्रकट हुआ है और सीमांती तकनीक तथा वैज्ञानिक शोध में भी हमारा सामरिक साझेदार है. हम दोनों देशों की खुफिया एजेंसियों के बीच जानकारी का आदान-प्रदान कट्टरपंथी इस्लामी दहशतगर्दों का मुकाबला करने में उपयोगी साबित हुआ है. जब से मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला है, इस्राइल की अहमियत लगातार बढ़ी है. इसका एक कारण अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का इस्राइल की पीठ पर वरदहस्त है. ईरान की नाक में नकेल कसने के लिए अमेरिका इसी मोहरे का प्रयोग करता रहा है.
दिक्कत सिर्फ यह है कि इस्राइल के नजदीक जाने के चक्कर में भारत अपने पारंपरिक मित्रों-ईरान, फिलिस्तीन, लेबनान से दूर होता जा रहा है. पश्चिम एशिया की अंतरराष्ट्रीय राजनीति बहुत अस्थिर है. वहां शक्ति-समीकरण तेजी से बदल रहे हैं. सऊदी अरब आज सर्वशक्तिमान संपन्न सर्वप्रमुख नहीं. सीरिया में ईरान, लेबनान तथा रूस की स्थिति अमेरिका के हिमायतियों से कहीं बेहतर है, इस्लामी खिलाफत को हराने का सेहरा इन्हीं के सर बांधा जा रहा है.
इस्राइल की बड़ी चिंता गोलान ऊंचाइयों पर बैरी सेनाओं का कब्जा है. नेतन्याहू दक्षिणपंथी ही नहीं, कट्टर फिलिस्तीन विरोधी भी हैं. उनका बस चले तो वह फिलिस्तीनी शरणार्थियों वाले इलाके का विलय ही कर डालें. जेरूसलम में राजधानी के स्थानांतरण से उन्होंने निश्चय ही फिलिस्तीनियों को उकसाने का प्रयास किया. भारत ट्रंप के दबाव में भी इस्राइल के हर गलत फैसले का समर्थन नहीं कर सकता. वैसे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस्राइल की कोई ऐसी अपेक्षा हमसे नहीं. वह इसी में संतुष्ट है कि हम उसके सामरिक साझेदार बन चुके हैं.
भारत के लिए यह याद रखना उपयोगी रहेगा कि चुनाव जीतने के बावजूद नेतन्याहू भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से बरी नहीं हुए हैं. उनकी जीत से इस्राइली समाज का विभाजन, पीढ़ीगत संघर्ष या राजनीतिक असंतोष समाप्त होनेवाला नहीं. उनके प्रतिपक्षी गैंट्ज की पार्टी बहुत पीछे नहीं है, इसलिए यह चुनौती बरकरार रहेगी.
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