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इमरान खान से ज्यादा उम्मीदें नहीं

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in हाल में पाकिस्तान स्थित करतारपुर के गुरुद्वारा दरबार साहिब को भारत के गुरदासपुर स्थित डेरा बाबा नानक गुरुद्वारा के एक गलियारे से जोड़े जाने की ऐतिहासिक पहल के हम सब गवाह बने. करतारपुर में सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी ने अंतिम सांस ली थी. […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
हाल में पाकिस्तान स्थित करतारपुर के गुरुद्वारा दरबार साहिब को भारत के गुरदासपुर स्थित डेरा बाबा नानक गुरुद्वारा के एक गलियारे से जोड़े जाने की ऐतिहासिक पहल के हम सब गवाह बने. करतारपुर में सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी ने अंतिम सांस ली थी. करतारपुर साहिब पाकिस्तान में स्थित है और यह पंजाब के गुरदासपुर में स्थित डेरा बाबा नानक से दिखाई देता है और वहां से लगभग चार किलोमीटर दूर है. गुरु नानक देव जी ने 1522 में इस गुरुद्वारे की स्थापना की थी.
गलियारे से भारतीय सिख श्रद्धालु दरबार साहिब तक वीजा रहित यात्रा कर सकेंगे. सब ठीक-ठाक चला, तो इस गलियारे के छह महीने के भीतर बनकर तैयार हो जायेगा. यह एक पहल का स्वागत किया जाना चाहिए. गलियारे की आधारशिला पाकिस्तान में वहां के प्रधानमंत्री इमरान खान और भारत में उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने रखी. इस मौके पर इमरान खान ने कहा कि भारत-पाकिस्तान दोनों तरफ से गलतियां हुईं हैं. जब फ्रांस और जर्मनी साथ हैं, फिर हम क्यों नहीं? क्या हम अपना एक मसला हल नहीं कर सकते? कोई ऐसी चीज नहीं, जो हल नहीं हो सकती.
इरादे बड़े होने चाहिए, ख्वाब बड़े होने चाहिए. इमरान खान की बातों से असहमत नहीं हुआ जा सकता है. करतारपुर गलियारे की शुरुआत सकारात्मक कदम है, लेकिन जल्द ही पता चल गया कि इसे लेकर बहुत आशांवित होने की जरूरत नहीं है. इस गलियारे को लेकर जो सद्भावना उपजी थी, उस पर दूसरे ही दिन पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने पानी फेर दिया. कुरैशी ने बयान दिया कि इमरान खान ने करतारपुर गलियारे की ऐसी गुगली फेंकी कि भारत को अपने दो मंत्री भेजने पड़ गये.
अगर सद्भावना के पीछे यह मानसिकता रहेगी, तो रिश्तों को सुधारने की कोई पहल कामयाब होने वाली नहीं है. रही-सही कसर इमरान खान ने कश्मीर का मुद्दा उठा कर पूरी कर दी. वहीं, खालिस्तान समर्थक नेता इस कार्यक्रम के दौरान सक्रिय नजर आये. जाहिर है, ये सारी बातें सद्भावना उत्पन्न नहीं करतीं. यह सही है कि आप अपना पड़ोसी नहीं बदल सकते और परमाणु हथियारों ने युद्ध की संभावना भी खत्म कर दी है.
देर सबेर बातचीत ही एकमात्र रास्ता बचता है, लेकिन आतंकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चल सकती है. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी स्पष्ट किया कि दि्वपक्षीय बातचीत और करतारपुर गलियारा दोनों अलग-अलग हैं. भारत सरकार पिछले 20 साल से इस गलियारे के बारे में पाकिस्तान से बातचीत कर रही थी.
पाकिस्तान ने पहली बार सकारात्मक जवाब दिया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बातचीत शुरू हो जायेगी. पाकिस्तान को पहले आतंकवादी गतिविधियों को रोकना होगा, उसके बाद बातचीत शुरू होगी. शुरुआत में इमरान खान की बातों से उम्मीद जगी थी, लेकिन हमें इमरान खान के प्रधानमंत्री पद तक के सफर को जानना भी जरूरी है. तभी हम आकलन कर पायेंगे कि वह रिश्तों काे सुधारने की दिशा में कहां तक जा सकते हैं. यह जगजाहिर है कि पाकिस्तानी सेना ने पूरी ताकत लगाकर इमरान खान को जितवाया था.
इसके लिए सेना ने चुनावों में जितना हेराफेरी हो सकती है, वह की. चुनाव प्रचार से लेकर मतदान और मतगणना तक सारी व्यवस्था को सेना ने अपने नियंत्रण में रखा. पाक सुरक्षा एजेंसियों ने चुनावी कवरेज को प्रभावित करने के लिए लगातार अभियान चलाया. जो भी पत्रकार, चैनल अथवा अखबार नवाज शरीफ के पक्ष में खड़ा नजर आया, खुफिया एजेंसियों ने उन्हें निशाना बनाया.
कई पत्रकारों का अपहरण हुआ है और उन्हें प्रताड़ित किया गया. पाकिस्तान के सबसे बड़े टीवी प्रसारक जियो टीवी को हफ्तों तक आंशिक रूप से ऑफ एयर रहना पड़ा. जाने-माने अखबार डॉन का अरसे तक प्रसार प्रभावित रहा. चुनाव से ठीक पहले भष्ट्राचार के एक मामले में नवाज शरीफ को 10 साल और उनकी बेटी मरियम को सात साल की जेल की सजा सुना दी गयी. लब्बोलुआब यह कि इमरान खान की हैसियत सेना की कठपुतली भर है. यह भी जानना जरूरी है कि पाकिस्तान में सेना विदेश नीति तय करती है, खासकर भारत के साथ. रिश्ते कैसे हों, इसका निर्धारण वही करती है.
भारत के संदर्भ में देखें, तो पड़ोसी मुल्क में लोकतांत्रिक शाक्तियों का कमजोर होना और सेना का और मजबूत होना शुभ संकेत नहीं है. भारत-पाक दोनों देशों में लोकतंत्र की नींव एक साथ रख गयी, लेकिन वहां प्रधानमंत्री आते-जाते रहे हैं.
सेना वहां तख्ता पलट करती आयी है, लेकिन इस बार मामला कुछ अलग रहा. इस बार न्यायपालिका के माध्यम से नवाज शरीफ सरकार का तख्ता पलटा गया और सेना ने चुनाव में हस्तक्षेप कर इमरान खान को प्रधानमंत्री की गद्दी तक पहुंचवा दिया. यह ऐतिहासिक तथ्य है कि जब भी किसी पाक नेता ने भारत के साथ रिश्ते सामान्य करने की कोशिश की है, सेना ने उसमें पलीता लगाया है. पाक सेना की हमेशा कोशिश रहती है कि चुना हुआ नेता बहुत लोकप्रिय और ताकतवर न हो जाए.
कुछ समय पहले अखबार डॉन में एक खबर छपी थी कि नवाज शरीफ ने एक बैठक में सेना के अधिकारियों से कह दिया था कि आतंकवादियों की ऐसे ही मदद जारी रही तो पाकिस्तान दुनिया में अलग थलग पड़ जायेगा. इसका मीडिया में छपना सेना को पसंद नहीं आया. इस पर भारी बावेला मचा. इसके बाद सेना और नवाज शरीफ के बीच पाले खिंच गये.
पाकिस्तान में सेना का साम्राज्य है. वह उद्योग धंधे चलाती है. प्रोपर्टी के धंधे में उसकी खासी दिलचस्पी है. उसकी अपनी अलग अदालतें हैं. सेना का एक फौजी ट्रस्ट है, जिसके पास करोड़ों की संपदा है. खास बात यह है कि सेना के सारे काम धंधे किसी भी तरह की जांच पड़ताल के दायरे से बाहर रखा गया है.
कोई उन पर सवाल नहीं उठा सकता है. उसके पास लगभग हर शहर में जमीनें हैं. कराची और लाहौर में तो डिफेंस हाउसिंग ऑथाॅरिटी के पास लंबी चौड़ी जमीनें हैं. गोल्फ क्लब से लेकर शाॅपिंग माल और बिजनेस पार्क तक सेना ने तैयार किये हैं. अदालतें उसके इशारे पर फैसले सुनाती हैं. अब तक पाकिस्तान में जितने भी तख्ता पलट हुए हैं, उन सभी को वहां के सुप्रीम कोर्ट ने उचित ठहराया है. सेना एक और खेल खेलती रही है. वह सत्तारूढ़ राजनीतिक दल पर लगाम लगाने के लिए किसी कमजोर विपक्षी दल पर हाथ रख देती है.
पाकिस्तान में सेना और राजनीतिज्ञों के बीच के इस खेल का खामियाजा पड़ोसी होने के नाते भारत को भी झेलना पड़ता है. लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकार से संवाद की गुंजाइश रहती है. सेना पर भी थोड़ा बहुत अंकुश रहता है. वह खुले आम आतंकवादियों को बढ़ावा नहीं दे पाती. लेकिन पाक सेना से भारत सरकार के संवाद की गुंजाइश नहीं रहती है.

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