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गुजरात में गांधी की 150वीं वर्षगांठ

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com गांधीजी के जीवनीकार, उनके पोते राजमोहन गांधी ने जिक्र किया है कि भारत के विभाजन के बाद गांधीजी के अंतिम वर्ष कैसे अवसाद और एकाकीपन के वर्ष थे. सौ बरस बाद भी उनकी जन्मशती पर साबरमती आश्रम में हिंदू-मुस्लिम विवाद के कारण गुजरात में दंगा हुआ. […]

मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mrinal.pande@gmail.com
गांधीजी के जीवनीकार, उनके पोते राजमोहन गांधी ने जिक्र किया है कि भारत के विभाजन के बाद गांधीजी के अंतिम वर्ष कैसे अवसाद और एकाकीपन के वर्ष थे. सौ बरस बाद भी उनकी जन्मशती पर साबरमती आश्रम में हिंदू-मुस्लिम विवाद के कारण गुजरात में दंगा हुआ.
साल 2002 में गोधरा कांड के बाद सूबे के अधिकतर अल्पसंख्यकों के मन में गहरा डर व अविश्वास पैदा हो गया. अब बापू की 150वीं जन्मशती की शुरुआत पर जब बिहार और उत्तर प्रदेश के कामगारों को हत्या-लूटपाट की धमकी देकर दरबदर किया जा रहा है, तो देश को दुख व क्रोध भले हो, अचरज नहीं होता.
यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि हर बरस गाजे-बाजे के साथ बापू का जन्मदिवस मनाने से देश गांधी के सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चल निकलेगा. पर इतने सारे विषैले विवादों का गांधी के जन्म-प्रदेश से फूटने में एक जहरीली विडंबना जरूर है.
गांधीजी हत्यारे की गोली से मारे गये यह उतना दुखद नहीं, जितना यह कि उनकी मौत भी तब से अब तक विवादों का विषय बनी हुई है और कई दक्षिणपंथी लोग सीना ठोंककर मीडिया में नाथूराम गोडसे को देशभक्त और गांधीजी को हिंदुओं का अहित करनेवाला बताते हैं.
गांधी के गुजरात से एक बार फिर एक अल्पसंख्यक अ-गुजराती समूह को हिंसक तरीके से खदेड़ा जा रहा है, इसमें विगत के साथ एक तरह का तर्कसंगत जुड़ाव दिखता है. नैतिक हो या भौतिक अगर किसी सूबे में आसपास की गंदगी अगर हद से बढ़ जाये, तो देर सबेर रिसकर वह मंदिरों के गर्भगृह को भी प्रदूषित कर देती है, इसका यह प्रमाण है.
पुराने पापों के जो घड़े सील करके तलघर में छुपाये जाते रहे हैं और पापी पगड़ी पहने उच्चतम पदवी पर विराजमान हो जाये. फिर उसके परवर्ती भी वही क्रम जारी रखकर ऊपरखाने चकाचक मार्बल के मंदिर में कथा भजन कराते रहे, तो एक दिन आता है, जब मीथेन गैस से घड़े फूटते हैं और सालों से संचित विषाक्त पानी भलभला कर फर्श और गलियारों को फोड़कर बाहर बहने लगता है.
गांधीजी के आत्मोत्सर्ग से भी ‘हम बनाम ये बाहरिये’ की जिस मूल स्वार्थी मानसिकता का विसर्जन नहीं हुआ, उसके प्रेत अब मुसलमानों के परे जाकर बहुसंख्यक बाहरियों का खून पीना चाहते हैं.
इस अवसर पर नेताओं के भाषण रिप्ले कीजिए, तो कुछ देर को लगेगा कि उनके अनुसार गांधी का सपना वे लगातार साकार कर रहे हैं. झाड़ू लेकर स्वच्छ भारत के उनके सपने को, सब्सिडी की मृत्युंजय खुराक से आत्महत्या करते अंतिम पायदान पर खड़े किसानों-मजूरों को और जनधन तथा मोदी केयर सरीखी योजनाओं से करोड़ों गरीबों की जीवनरक्षा की गारंटी वे ले चुके हैं.
नेताओं की यह दुनिया भी कितनी सादी और इकरंगी होती है. शब्दों का जादू बिखेरकर वे हर रण, हर किले को फतह किया मानकर एक और प्रतीक स्मारक बनवा देते हैं. लिहाजा इस बात में विडंबनापरक न्याय है कि जिस समय सीमा पर हमारे शत्रु चौगिर्द दिखायी दे रहे हैं, रोज हमारे सैनिक और सुरक्षाबलों के जवान हर कहीं मारे जा रहे हैं, जानकार सैन्य-विशेषज्ञ शस्त्रों की कमी का रोना रो रहे हैं, वहीं राजपथ पर करोड़ों खर्च करके एक भव्य शहीद स्मारक बनाया जा रहा है.
सरलीकरण, सर्वत्र सरलीकरण और मीडिया तथा सड़कों-चौराहों पर विशाल होर्डिंग लगा कर आत्मप्रचार! आंकड़े आये हैं कि पिछले चार बरस में इन सब महान कामों की पब्लिसिटी पर जितना खर्च कर दिया गया है, उतना पूर्व सरकार ने दस बरसों में नहीं किया था. गांधी जी की किफायतशारी और सादगी की विरासत को यह कैसा नमन है?
गुजरात से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि वहां तरह-तरह के कामों में जो मजदूर लगे हुए हैं, उनमें से कम-से-कम 30 फीसदी उत्तर प्रदेश और बिहार से हैं. उनसे नाराजगी की तात्कालिक वजह यह कि किसी बिहारी मजूर ने एक बच्ची से घृणित दुष्कर्म किया.
गांधी का मूल मंत्र था, निर्भय बनो. वे चूंकि खुद निर्भय थे, इसलिए समझते थे कि एक आदर्श स्वराज कायम हुआ, तो शताब्दियों की गुलामी से बहुत गहरे से घर कर गये आम भारतीय के मन की असुरक्षा खत्म हो जायेगी. वे चूंकि हृदय से धर्म का मर्म आत्मसात कर चुके थे, उनको लगता था कि नित्य सर्वधर्म प्रार्थना सभाएं, समवेत बाइबिल की हिम्स, कुरान शरीफ के पाठ और रामधुन का गायन आत्माओं के मल का विरेचन कर देश को पुराने हिसाब-किताब बराबर करने की विशुद्ध भारतीय उतावली से मुक्त कर सच्चा राष्ट्रवादी बना देगा.
गुजरात से उत्तर भारतीय कामगार भगाओ, लोकल नौकरियां गुजरातियों के लिए बचाओ, इस ताजा प्रकरण की जड़ें देशव्यापी बेरोजगारी में हैं. गुजरात में पानी का भीषण संकट है.
खेती सिकुड़ रही है. नोटबंदी और जीएसटी ने राज्य के हजारों छोटे-मंझोले उपक्रमों का भट्टा बिठा दिया है, हीरा व्यवसाय की धुरी बने हुए कई बहुत बड़े व्यवसायी सरकारी बैंकों का कर्ज डकार कर परदेस भाग निकले हैं. इसलिए यूपी-बिहार के भैय्यों को बाहर खदेड़ने से ही इस समस्या का हल नहीं होगा.
न ही हल वल्लभभाई पटेल की चीन में बनी एशिया की विशालतम मूर्ति को साबरमती तट पर लगवाने से 2019 में वोटों का जखीरा बाहर निकलेगा. इस मामले में दो दुष्प्रभावित राज्यों बिहार और यूपी की दशा, उनका सामर्थ्य-असामर्थ्य भी एक जैसे नजर आते हैं. अगर हमारे तीन सूबों की आबादियां अपनी रोजी-रोटी के लिए चुनौती मान चुकी हों, और संविधान के तहत उनको अलग-थलग करना कतई संभव न हो, तो इस पेंच का जवाब न तो यूपी के योगीराज के पास है, न ही बिहार के सुशासन बाबू के पास.
पिछले सालों से आप देख रहे हैं कि तरह-तरह के दबाव डालकर मीडिया के कुछ भाग को और जादुई भाषणों और फेक न्यूज के सम्मोहन से कुछ दूर तक चुनाव जीतने का ही लक्ष्य सबसे ऊपर है. लेकिन उसके बाद? गांधी की दृष्टि में लोकतंत्र में स्वराज पा जाना ही सब कुछ नहीं होता. भारतीय मन के कालातीत ठहराव और भ्रम को खत्म करने के लिए जरूरी है कि जिन चीजों को हम बतौर मनुष्य और बतौर पत्रकार लोकतंत्र के लिए कीमती मानते हैं, वे एक हद तक तो हमारे बूते भी खड़ी रहें.
मसलन, अगर हम कामगारों के भारत में कहीं भी जाकर रोजी-रोटी कमाने के संविधान प्रदत्त हक की बहाली चाहते हैं और अभिव्यक्ति की आजादी की कद्र करते हैं, तो यह बात हमको मीडिया के माध्यम से अपनी पूरी सामर्थ्य और इस आग्रह के साथ रखनी होगी कि लोग इसे पूरी तरह पढ़ें और इस पर समवेत सोचना और रणनीति रचना शुरू करें. महिलाओं के शोषण को रोकने या अपने समय का सच सामने लाते रहने-मात्र से लोकतंत्र की रक्षा नहीं होगी.

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