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पर्यावरण की चिंता जरूरी

जगदीश रत्तनानी वरिष्ठ पत्रकार editor@thebillionpress.org विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) लगभग आधी सदी पुरानी संस्था है. यह खुद को सार्वजनिक-निजी सहयोग करनेवाले अंतरराष्ट्रीय संगठन के रूप में पेश करती है और वैश्विक आर्थिकी सुधारने के लिए प्रतिबद्ध है. अपने सफर की शुरुआत में इस मंच ने विश्व की एक हजार प्रमुख कंपनियों के लिए सदस्यता की […]

जगदीश रत्तनानी
वरिष्ठ पत्रकार
editor@thebillionpress.org
विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) लगभग आधी सदी पुरानी संस्था है. यह खुद को सार्वजनिक-निजी सहयोग करनेवाले अंतरराष्ट्रीय संगठन के रूप में पेश करती है और वैश्विक आर्थिकी सुधारने के लिए प्रतिबद्ध है. अपने सफर की शुरुआत में इस मंच ने विश्व की एक हजार प्रमुख कंपनियों के लिए सदस्यता की एक व्यवस्था बनायी थी. स्वाभाविक है कि इसने अपने सालों के सफर में भविष्य पर विचार करने के लिए महंगी और खूबसूरत जगहों पर बैठकें आयोजित कर बड़ी व्यावसायिक कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों में एक साख बना ली है.
आमतौर पर इसके बैठकों का एजेंडा व्यापक होता है, लेकिन स्वर और मुख्य अभिप्राय कारोबार ही- व्यवसाय के लिए व्यवसाय के बारे में, व्यवसाय द्वारा- होता है. और अब व्यवसाय जगत इन मुद्दों- परेशान युवा, सरकारों पर अविश्वसनीयता, दुनियाभर में बढ़ती असमानता और आर्थिक लूटपाट- को लेकर चिंतित है. ऐसे समय में सहयोग का ग्राफ कैसे आगे बढ़ेगा?
हाल में संपन्न सम्मेलन दावोस- 2019 में दो बयान आये हैं, जो कुछ चुनौतियों की ओर संकेत करते हैं. इनमें से एक बयान 92 वर्षीय प्रकृतिवादी सर डेविड एटेनबरो का है, जिन्होंने विश्व की मौजूदा स्थिति पर एक पंक्ति का नाटकीय और मर्मस्पर्शी निष्कर्ष दिया कि ‘इडेन गार्डेन अब नहीं रहा’. दूसरा बयान दिग्गज वैश्विक सलाहकार एसेंचर की ओर से आया है, जिन्होंने अहम बात रखी- ‘भरोसा ही वास्तविक मुद्रा है’. हालांकि कई वक्ताओं ने इसके तीव्र क्षरण की ओर ध्यान दिलाया था.
इस तरह दावोस ने बाहरी और भीतरी बदलावों के लिए उठी आवाजों में तालमेल बिठाया. इसके अतिरिक्त, यह मंच जिस रास्ते पर आधी सदी तक सफर कर चुका है, उस पर आगे बढ़ने को लेकर चुनौतियों से निपटने की चिंता अभी कायम है. जिस पथ पर इसने अभी तक की यात्रा की है, उसकी प्रकृति अतीत और भविष्य को लेकर बहुत बदली नहीं है.
अंतः यह एक आर्थिक मंच है और इसकी चिंता वैश्विक मानी जा रही दुनिया में विकासमान कारोबार के बीच गरीबी दूर करने के उपाय के तौर पर आर्थिक विकास को आगे ले जाना है. जबकि यथार्थ में वैश्विक दुनिया का अस्तित्व नहीं है.
विश्व आर्थिक मंच की प्रमुख चिंता का विषय था- ‘वैश्विक अर्थव्यवस्था संक्रमण काल से गुजर रही है’, इसलिए इसके दृष्टिकोण और चिंताओं को समझें. समृद्धि, सहयोग और सुरक्षा ही वैश्विक अर्थव्यवस्था को चलानेवाले तीन कारक हैं.
यह समझना आसान है कि वरीयता और समृद्धि किसके लिए है? आर्थिक विकास ने असमानता को कम नहीं किया, बल्कि बढ़ाया है. आॅक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, हर साल विश्व आर्थिक मंच के सम्मेलनों के पहले असमानता में वृद्धि दर्ज की जाती है. बदहाली बढ़ी है और स्थितियां और बदतर हो रही हैं.
पिछले साल दुनिया के अरबपतियों की संपत्ति 900 बिलियन अमेरिकी डाॅलर बढ़ी है, यानी एक दिन में 2.5 बिलियन अमेरिकी डाॅलर. पिछले साल, 26 लोगों के पास उतनी संपत्ति थी, जितनी 3.8 बिलियन गरीबों की कुल संपत्ति थी.
वैश्विक वित्तीय संकट शुरू होने के बाद से अरबपतियों की संख्या लगभग दोगुनी हो गयी है. साल 2017-2018 के बीच लगभग हर दो दिन में एक नया अरबपति पैदा हो हुआ. इसी अवधि में, धनवान लोग और कॉरपोरेशन पिछले दशकों की तुलना में निम्न दर की करों का भुगतान कर रहे हैं!
आॅक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट के आंकड़े स्तब्ध करनेवाले हैं. भारतीय अरबपतियों की संपत्ति 2004 के 49 बिलियन डाॅलर से बढ़कर 2017 में 479 बिलियन डाॅलर हो गयी थी. और यह सिर्फ 100 धनवानों के पास थी. भारतीय अरबपतियों की कुल संपत्ति देश की जीडीपी का 15 प्रतिशत है.
दिलचस्प है कि लगभग 40 प्रतिशत भारतीय अरबपतियों को उनकी संपत्ति विरासत में हासिल हुई है, जबकि यह संपत्ति अरबपतियों की कुल संपत्ति का दो-तिहाई ही ठहरती है. साल 2005 और 2010 के बीच रीयल इस्टेट क्षेत्र के सभी 15 अरबपतियों ने इस अरबपति क्लब में जगह बनायी. वहीं दूसरी ओर, आईटी क्षेत्र के अरबपतियों की संपत्ति की विकास दर कम रही है.
इन सबके बीच जो तस्वीर उभरती है, वह दुनिया की सबसे बड़ी समस्याओं- गरीबी, स्वास्थ्य, शिक्षा तथा अधिकतर लोगों को बेहतर जीवन उपलब्ध कराने के अवसरों की बात नहीं करती है. वैश्वीकरण हमारे लिए घनिष्ठता और सीमाहीन दुनिया लेकर नहीं आया. सीमाएं उनके लिए खुली हैं, जिनके पास साधन हैं, लेकिन वे साधनहीनों की पहुंच से बाहर हैं. पूंजीवादी व्यवस्था और अधिक शोषणयुक्त कारोबारी रवैयों ने उपभोक्तावाद पैदा किया, जिसने पर्यावरण प्रणाली को हाशिये पर डाल दिया है.
काॅरपोरेशनों में बैठे, ऊंची योग्यता वाले पेशेवर तथा प्रबंधक और उनके अगुआ क्या कर सकते हैं, जब दुनिया की हालत अपने आप में इतनी खराब हो?
आखिर वे कार और सड़क की कितनी मरम्मत कर सकते हैं, जब गंतव्य ही भाग्य भरोसे हो और बड़ी संख्या में लोगों को गरीबी और प्राकृतिक संसाधनों की बदहाली के भरोसे पर छोड़ दिया गया हो, जो एक प्रजाति के रूप में हमारा संरक्षण करते हैं.
ये ऐसे बड़े सवाल हैं, जिनका सामना करने में विश्व आर्थिक मंच असमर्थ है. जिन लोगों ने यह संकट खड़ा किया है और मौजूदा व्यवस्था बनाये रखने में जिनकी बड़ी भागीदारी है, वे इन समस्याओं को हल नहीं कर सकते.
इनमें उनकी बड़ी संख्या शामिल है, जो हर साल दावोस के जश्न में देखे जाते हैं. ये लोग नींद में चलनेवाले बटालियन के अगुवा हैं, जो दावा करते हैं कि दुनिया एक मशीन है, जिसे थोड़ा तेल डालने और कुछ पार्ट बदलकर ठीक से चलाया सकता है. जबकि, पूरा ढांचा ही बेकार हो चुका है, किसी बदलाव के लिए यह जानना जरूरी है.
जलवायु परिवर्तन के सवाल पर सर एटेनबरो ने सही कहा कि ‘इसे बढ़ा-चढ़ाकर कहना कठिन है, हम आज इतने अधिक हैं, इतने ताकतवर हैं, इतने तरह के तंत्र हैं, जो पर्यावरण प्रणाली को पूरी तरह नष्ट कर सकते हैं और हमें इसका पता भी नहीं चलेगा. हमें पहचानना होगा कि हम जो सांस लेते हैं और जिस भोजन को खाते हैं, वह सब कुछ हमारी प्रकृति से ही मिलता है.’
(अनुवादः कुमार विजय)

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