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चुनाव मैदान से बाहर है कांग्रेस

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in महाराष्ट्र और हरियाणा में मतदान की तारीख नजदीक आती जा रही है. दोनों राज्यों में 21 अक्तूबर को मतदान होना है और नतीजे 24 अक्तूबर को आ जायेंगे. दोनों राज्य वर्षों तक कांग्रेस के गढ़ रहे हैं. बहुत अरसा नहीं बीता है, सन 1999 से 2014 तक […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
महाराष्ट्र और हरियाणा में मतदान की तारीख नजदीक आती जा रही है. दोनों राज्यों में 21 अक्तूबर को मतदान होना है और नतीजे 24 अक्तूबर को आ जायेंगे. दोनों राज्य वर्षों तक कांग्रेस के गढ़ रहे हैं.
बहुत अरसा नहीं बीता है, सन 1999 से 2014 तक महाराष्ट्र और 2005 से 2014 तक हरियाणा में कांग्रेस की सरकारें रही हैं. दोनों राज्यों में कांग्रेस के मजबूत नेता रहे हैं, जिनमें से कई ने तो केंद्र में भी अहम जिम्मेदारी संभाली है, लेकिन आज कांग्रेसी नेता महाराष्ट्र और हरियाणा, दोनों राज्यों में ऊहापोह की स्थिति में हैं. यह स्थिति केवल चुनावी राज्यों तक सीमित नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर भी नेता उलझन में हैं.
उनकी बयानबाजी स्थितियों को और उलझा रही है. कांग्रेस नेतृत्व कोई स्पष्ट दिशा, सोच और भविष्य का खाका पेश नहीं कर पा रहा है. दोनों राज्यों से कांग्रेस को लेकर चिंताजनक खबरें सामने आ रही हैं. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने इन दोनों राज्यों में भाजपा के लिए मैदान खुला छोड़ दिया है.
हरियाणा का मामला लें. कुछ समय पहले तक हरियाणा के प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा के बीच तलवारें खिंची हुई थीं.
मामला सोनिया गांधी की अदालत तक पहुंचा और फैसला हुड्डा के पक्ष में हुआ. ऐन चुनाव से पहले अशोक तंवर ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया. कुमारी शैलजा काे जिम्मेदारी सौंपी गयी है, लेकिन उनकी भी हुड्डा से पटती नहीं है. कहने का आशय यह कि कांग्रेस आपसी संघर्ष में ही उलझी हुई है. महाराष्ट्र में भी कमोबेश यही स्थिति है.
वहां प्रमुख कांग्रेस नेता संजय निरुपम टिकट बंटवारे के बाद असंतुष्ट हो गये और खुल कर बयानबाजी कर रहे हैं. उन्होंने चुनाव में कांग्रेस पार्टी के लिए प्रचार करने से इनकार कर दिया है. इसके कुछ समय पहले महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों का चेहरा रहे कांग्रेस नेता और महाराष्ट्र के पूर्व गृह मंत्री कृपाशंकर सिंह ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था.
कृपाशंकर सिंह मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. फिल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर ने भी कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया. वह कांग्रेस की अंदरूनी गुटबाजी से नाराज थीं. दूसरी ओर युवा नेता मिलिंद देवड़ा रूठे हुए हैं. उन्हें लगता है कि वह कांग्रेस के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं, लेकिन पार्टी उनकी सुध नहीं ले रही है. कहने का आशय यह है कि ऊपर से नीचे तक नेतृत्वहीनता का असर दिख रहा है.
इसका असर चुनाव प्रचार पर भी नजर आ रहा है. कांग्रेस लोगों से जुड़ नहीं पा रही है और न ही उनसे जुड़े मुद्दे उठा पा रही है. राज्य सरकारों को लेकर लोगों की जो स्वाभाविक नाराजगी होती है, उसे वह अपने पक्ष में नहीं कर पा रही है. दूसरी ओर भाजपा को देखें, तो हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस महीनों से चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह अलग सघन प्रचार कर रहे हैं.
कांग्रेसी की एक दिक्कत और है कि विचारधारात्मक और प्रमुख राजनीतिक मुद्दों पर पार्टी का क्या रुख है, पार्टी नेताओं को यह स्पष्ट नहीं है. सबकी अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग है. केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने को लेकर मोदी सरकार की आलोचना कर रही है, लेकिन हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा इसके समर्थन में हैं.
और तो और, कांग्रेसी बयानवीरों ने विधानसभा चुनावों में पार्टी की हार की घोषणा पहले ही कर दी है. हालांकि वह कोई गलत बात नहीं कह रहे हैं. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने कहा है कि कांग्रेस की जो स्थिति है, उसमें महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव जीतने की संभावना नहीं है. उन्होंने कहा है कि कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या यही है कि हमारे नेता राहुल गांधी हमें छोड़ कर चले गये है. राहुल गांधी पर अब भी पार्टी की निष्ठा है. उनके जाने के बाद यह एक तरह का खालीपन है.
कांग्रेस पार्टी की हालत ऐसी हो गयी है कि आगामी विधानसभा चुनावों को तो छोड़िए, वह अपना भविष्य तक तय करने की स्थिति में नहीं है. पूर्व सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा कि कांग्रेस को आगे बढ़ने के लिए आत्मचिंतन की जरूरत है. अभी कांग्रेस की जो स्थिति है, उसका जायजा लेना जरूरी है, ताकि पार्टी को आगे बढ़ाया जा सके.
कांग्रेस नेता राशिद अल्वी ने इस पर प्रतिक्रिया दी कि इन बयानात की रोशनी में आज ऐसा लग रहा है कि शायद कांग्रेस पार्टी को दुश्मनों की जरूरत नहीं है. घर को आग लग गयी घर के चिराग से, ऐसी स्थिति लग रही है. नेतृत्व को इस तरफ तवज्जो देनी चाहिए. महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव हैं. ऐसे मौकों पर कांग्रेस लीडरों को इस तरह के बयान नहीं देने चाहिए. इससे कांग्रेस पार्टी और इलेक्शन में कमजोरी आती है.
लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष जरूरी होता है. लोकसभा चुनावों में हार ने कांग्रेस को बेहद कमजोर कर दिया है. 1885 में स्थापित कांग्रेस पार्टी आज अपनी प्रासंगिकता के लिए संघर्ष कर रही है. राहुल गांधी कांग्रेस को मझधार में छोड़ कर चले गये. नेतृत्व के अभाव में कांग्रेस पार्टी कोई ठोस कदम नहीं उठा पा रही है. हालांकि सोनिया गांधी को नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, बावजूद इसके, कांग्रेस में ऊहापोह की स्थिति है.
राहुल गांधी को पार्टी की जिम्मेदारी मिलने के बाद कांग्रेस में युवा नेताओं को तरजीह मिलनी शुरू ही हुई थी, लेकिन अचानक उनके पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने से मिलिंद देवड़ा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, संजय निरूपम जैसे युवा नेता एक बार फिर नेपथ्य में चले गये हैं. वे उम्मीद कर रहे थे कि राहुल गांधी के नेतृत्व में उनकी अहमियत बढ़ेगी, लेकिन एक बार फिर पुरानी पीढ़ी के अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा जैसे नेताओं का पार्टी पर प्रभुत्व बढ़ा है.
लोकसभा चुनाव नतीजों से एक बात तो स्पष्ट हो गयी है कि लगातार प्रयासों के बावजूद भी राहुल गांधी को देश की जनता कांग्रेस के नेता के बतौर स्वीकार करने को तैयार नहीं है. एक और संदेश साफ है कि वंशवाद की राजनीति का दौर उतार पर है. प्रियंका गांधी को लोकसभा चुनावों में जोर-शोर से उतारा गया, लेकिन वह कोई कमाल नहीं दिखा पायीं.
इसे जितनी जल्दी कांग्रेस स्वीकार कर लेगी, उतना उसके लिए बेहतर होगा, लेकिन कांग्रेस का ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का वजूद नहीं रहेगा. दरअसल, समस्या यह भी है कि कांग्रेस को बिना नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व के काम करने की आदत नहीं रही है और यही वजह है कि पार्टी की यह स्थिति है.
दूसरी ओर भाजपा को देखें. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह जैसे ही गृह मंत्री बने, तत्काल जेपी नड्डा ने कार्यकारी अध्यक्ष का पद संभाल लिया. बहरहाल, लोकतांत्रिक व्यवस्था में मुख्य विपक्षी दल की यह स्थिति शुभ संकेत नहीं है.

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