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शिक्षा की चिंताजनक स्थिति

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in शिक्षा संबंधी एक वैश्विक सर्वे में भारत के बच्‍चों को लेकर एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आयी है. इसमें बताया गया है कि दुनिया में सबसे ज्यादा ट्यूशन भारत के बच्चे पढ़ते हैं. भारत में 74 फीसदी बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं. इनमें अधिकांश गणित विषय में सहायता […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
शिक्षा संबंधी एक वैश्विक सर्वे में भारत के बच्‍चों को लेकर एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आयी है. इसमें बताया गया है कि दुनिया में सबसे ज्यादा ट्यूशन भारत के बच्चे पढ़ते हैं. भारत में 74 फीसदी बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं. इनमें अधिकांश गणित विषय में सहायता लेते हैं. इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का ट्यूशन पढ़ना चिंताजनक है.
इस सर्वे को कैंब्रिज विश्वविद्यालय की सहयोगी संस्था द्वारा कराया गया है. सर्वेक्षण में दुनियाभर के 20 हजार शिक्षकों और विद्यार्थियों से सवाल पूछे गये. इनमें से 4400 शिक्षक और 3800 छात्र भारत के थे. इसके जरिये यह पता लगाने की कोशिश की गयी कि दुनियाभर के स्कूली बच्चों और शिक्षकों की प्राथमिकताएं क्या है? भारत में कैरियर के मामले में इंजीनियरिंग और मेडिकल सबसे लोकप्रिय क्षेत्र हैं.
भारत में 16 फीसदी छात्र और सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहते हैं और 8 फीसदी वैज्ञानिक. भाषाओं के मामले में भारतीय छात्रों की पहली पसंद अंग्रेजी है. 84.7 फीसदी छात्र अंग्रेजी पढ़ना चाहते हैं. गणित और विज्ञान पर भारतीय छात्रों का ज्यादा जोर है. 78 फीसदी छात्रों की गणित पढ़ने में दिलचस्पी है. उसके बाद भौतिक विज्ञान 73.1 और रसायन विज्ञान 71.8 फीसदी का नंबर आता है, जबकि 47.8 फीसदी बच्‍चे कंप्‍यूटर साइंस पढ़ना चाहते हैं.
अध्ययन में यह सुखद बात भी सामने आयी है कि भारतीय माता-पिता बच्चों की शिक्षा में गहरी दिलचस्पी दिखाते हैं. 66 फीसदी छात्रों ने बताया कि उनके माता-पिता रोजाना उनसे स्कूल के बारे में जानकारी लेते हैं. लगभग 50 छात्रों के माता-पिता स्कूल में होने वाले कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेते हैं. पश्चिमी देशों की तुलना में यह बहुत बड़ी संख्या है. सर्वे में यह बात भी कही गयी है कि भारतीय प्राध्यापक छात्रों के भविष्य को लेकर संजीदा हैं.
यह जगजाहिर है कि किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है. अगर शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी, तो विकास की दौड़ में वह देश पीछे छूट जायेगा. राज्यों के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है. यही वजह है कि शिक्षा की वजह से हिंदी पट्टी के राज्यों के मुकाबले दक्षिण के राज्य आगे हैं.
हम सब यह बात बखूबी जानते हैं, लेकिन बावजूद इसके पिछले 70 वर्षों में हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था की घोर अनदेखी की है. गुरुओं की छात्रों को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है. मौजूदा दौर में यह कार्य दुष्कर होता जा रहा है. गुरुओं के ऊपर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है कि विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं का शमन करें, कैरियर की राह दिखाएं और उन्हें एक जिम्मेदार और अच्छा नागरिक बनाने में योगदान दें.
यह सही है कि मौजूदा दौर में बच्चों को पढ़ाना आसान काम नहीं रहा है. बच्चे, शिक्षक और अभिभावक शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ी हैं. शिक्षक शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है. शिक्षा के बाजारीकरण के इस दौर में न तो शिक्षक पहले जैसे रहे और न ही छात्रों से उनका पहले जैसा रिश्ता रहा. पहले शिक्षक के प्रति न केवल विद्यार्थी, बल्कि समाज का भी आदर और कृतज्ञता का भाव रहता था. अब तो ऐसे आरोप लगते हैं कि शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते.
इसमें आंशिक सच्चाई भी है. इसकी रोकथाम के उपाय करने होंगे, अध्यापकों को जवाबदेह बनाना होगा. परीक्षा परिणामों को उनके परफॉर्मेंस और वेतनवृद्धि से जोड़ना होगा, पर यह भी सच है कि प्रशासन लगातार शिक्षकों का इस्तेमाल गैर शैक्षणिक कार्यों में करता है. प्रशासनिक अधिकारी शिक्षा और शिक्षकों को हेय दृष्टि से देखते हैं. यही नहीं, किसी भी देश के भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का समाज ने भी सम्मान करना बंद कर दिया है.
गौर करें, तो पायेंगे कि टॉपर बच्चे पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर और प्रशासनिक अधिकारी तो बनना चाहते हैं, लेकिन कोई शिक्षक बनना नहीं चाहता. यह इस देश का दुर्भाग्य है कि शिक्षा कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनती. इसी उपेक्षा ने हमारी शिक्षा को भारी नुकसान पहुंचाया है.
शिक्षा और रोजगार का चोली दामन का साथ है. लिहाजा बिहार-झारखंड में माता-पिता बच्चों की शिक्षा को लेकर बेहद जागरूक हैं. उनमें ललक है कि बच्चा अच्छी शिक्षा पाए, ताकि उसे रोजगार मिल सके.
बिहार-झारखंड में श्रेष्ठ स्कूलों का अभाव तो नहीं है, लेकिन इनकी संख्या बेहद कम है. हर जिले में एक जिला स्कूल है, एक वक्त था इनमें प्रवेश के लिए मारामारी रहती थी. अब इन्होंने अपनी चमक खो दी है. पिछले कुछ समय में बिहार शरीफ स्कूलों में प्रवेश की तैयारी के हब के रूप में उभरा है.
बच्चे नवोदय विद्यालय, तिलैया के सैनिक स्कूल अथवा देवघर के रामकृष्ण मिशन के स्कूलों में प्रवेश पा जाएं, इसके लिए माता-पिता बिहार शरीफ में जाकर रहते हैं और मोटी फीस देकर बच्चों की कोचिंग करवाते हैं. बिहार के जमुई स्थित सिमुलतला आवासीय विद्यालय ने संसाधनों की कमी के बावजूद शिक्षा के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बना ली है.
कुछ समय पहले ‘प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन’ ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट ‘असर’ यानी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट जारी की थी. यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है. इसके अनुसार प्राथमिक स्कूलों की हालत तो पहले से ही खराब थी, अब जूनियर स्तर का भी हाल कुछ ऐसा होता नजर आ रहा है. ‘असर’ की टीमों ने देश के 24 राज्यों के 28 जिलों में सर्वे किया.
इसमें 1641 से ज्यादा गांवों के 30 हजार से ज्यादा युवाओं ने हिस्सा लिया. ‘असर’ ने इस बार 14 से 18 वर्ष के बच्चों पर ध्यान केंद्रित किया. सर्वे में पाया गया कि पढ़ाई की कमजोरी अब बड़े बच्चों यानी 14 से 18 साल के बच्चों में भी देखी जा रही है. 76% फीसदी बच्चे पैसे तक नहीं गिन पाते. 57 फीसदी को साधारण गुणा भाग नहीं आता. 25 फीसदी बच्चे अपनी भाषा भी धाराप्रवाह पढ़ नहीं पाते.
सामान्य ज्ञान और भूगोल के बारे में बच्चों की जानकारी बेहद कमजोर पायी गयी. 58 फीसदी अपने राज्य और 14 फीसदी देश का नक्शा नहीं पहचान पाये. 28 फीसदी युवा देश की राजधानी का नाम नहीं बता पाये. देश को डिजिटल बनाने का प्रयास चल रहा है, पर 59 फीसदी युवाओं को कंप्यूटर का ज्ञान नहीं है. लगभग 64 फीसदी युवाओं ने इंटरनेट का इस्तेमाल ही नहीं किया है. प्राथमिक की तरह यदि माध्यमिक स्तर के विद्यार्थी भी बुनियादी बाते नहीं सीख रहे हैं, तो यह बात गंभीर है.
दरअसल, 14 से 18 आयु वर्ग के बच्चे कामगारों की श्रेणी में आने की तैयारी कर रहे होते हैं, इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ता है. यदि इन्हेंं समय रहते तैयार नहीं किया गया, तो इसका असर भविष्य में देश के विकास पर पड़ेगा. देश में मौजूदा समय में 14 से 18 साल के बीच के युवाओं की संख्या 10 करोड़ से ज्यादा है. इस पर तत्काल गौर करने की जरूरत है.

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