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विकसित हों स्वस्थ परंपराएं

II पवन वर्मा II लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com शायद मैं पुरातनपंथी हूं या एक पूर्व राजनयिक होने के डीएनए का असर मुझे पेशेवर संयम बरतने को प्रेरित करता रहता है. वजह जो भी हो, मैं यकीन करता हूं कि जब हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या उपराष्ट्रपति विदेश की राजकीय यात्रा पर हों या देश के […]

II पवन वर्मा II
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
शायद मैं पुरातनपंथी हूं या एक पूर्व राजनयिक होने के डीएनए का असर मुझे पेशेवर संयम बरतने को प्रेरित करता रहता है. वजह जो भी हो, मैं यकीन करता हूं कि जब हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या उपराष्ट्रपति विदेश की राजकीय यात्रा पर हों या देश के बाहर किसी बहुपक्षीय कार्यक्रम में शिरकत कर रहे हों, तब हमारी आंतरिक सियासत की सतत स्पर्धा थोड़ी देर के लिए रोक दी जानी चाहिए, या कम-से-कम इसका इस्तेमाल उस व्यक्ति को शर्मिंदा करने में नहीं किया जाना चाहिए, जो अपनी संवैधानिक भूमिका में पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर रहा है.
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि अतीत में कई अवसरों पर, और बिल्कुल हाल में राष्ट्रकुल शिखर सम्मेलन में शिरकत के लिए प्रधानमंत्री मोदी की लंदन यात्रा के दौरान भी विपक्ष ने उनके प्रति अपनी राजनीतिक स्पर्धा की कटुता में कोई कमी नहीं आने दी.
इसका नतीजा यह था कि जब वे अन्य देशों के नेताओं के साथ संवाद कर रहे थे या सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे, तो भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या सोशल मीडिया पर नजर रख रहा अथवा पीएम और उनकी सरकार के बारे में भारत में उनके राजनीतिक विपक्षियों के कथन पढ़ रहा कोई भी व्यक्ति सहज ही यह सोच सकता था कि प्रथमतः क्या वे संवाद किये जाने योग्य भी हैं या नहीं?
हमारे लिए यह गौरव का विषय है कि भारत एक जीवंत लोकतंत्र है. अगले संसदीय चुनावों के निकट होने तथा कर्नाटक विधानसभा चुनावों के आसन्न होने के कारण यह तो स्वाभाविक ही है कि देश का सियासी माहौल गर्म रहेगा और मामूली उकसावे पर भी आरोप-प्रत्यारोप के दौर चला करेंगे.
यह भी सही है कि देश में हाल ही उन्नाव तथा कठुआ दुष्कर्म जैसी घटनाएं घटीं, जिनमें कुछ भाजपा नेताओं की भूमिका अत्यंत निंदनीय रही. यह भी सच है कि इस पृष्ठभूमि से पैदा गुस्से और विरोध की छाया पीएम माेदी के विदेश दौरे के दौरान भी पड़े बगैर नहीं रह सकती.
फिर भी, जब हम एक विदेशी श्रोतासमूह के आगे अपनी राजनीतिक कटुताएं परोस देते हैं, तो इससे हमारी छवि में शायद ही कोई निखार आता है.
मैं ऐसा समझता हूं कि इसकी बजाय यदि विपक्षी नेताओं ने यह कहा होता कि जब तक प्रधानमंत्री विदेश की राजकीय यात्रा पर पूरे देश की ओर से बोल रहे हैं, उनके प्रति हमारे विरोधभाव पर एक अस्थायी विराम रहेगा, तो वे कहीं अधिक गरिमामय दिखते हुए कहीं ज्यादा जनसमर्थन हासिल कर लेते. प्रधानमंत्री की ऐसी यात्राएं कुछ ही दिनों के लिए होती हैं. उनके द्वारा भारतीय सीमाएं छोड़ने तक और लौटकर अपनी सीमाओं में प्रवेश के साथ ही विपक्षी नेता निस्संदेह उन पर अपना राजनीतिक प्रहार जारी रखें, पर दोनों के मध्यांतर में उनके द्वारा संयम रखा जाना उचित ही नहीं, वांछनीय भी होगा.
यह परामर्श प्रधानमंत्री पर भी लागू होता है. अतीत में इसके उदाहरण सामने आये हैं, जब उन्होंने विदेशी भूमि पर प्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए आंतरिक राजनीति की बातें भी की हैं.
यह भी उतना ही अवांछनीय है और विपक्षी नेताओं की ही तरह, यदि उन्होंने भी यह रुख अपनाया होता कि वे ऐसे अवसरों पर देश के आंतरिक सियासी मतभेद के विषय में कुछ कहना नहीं चाहेंगे, तो उन्हें और भी अधिक सम्मान मिला होता. देश में दुष्कर्म की घटनाओं या कालेधन या कि भ्रष्टाचार की चर्चा विदेशों में कर उन्होंने भी यही गलती की. लंबे वक्त से भाजपा के गठबंधन सहयोगी शिवसेना के मुखपत्र सामना ने भी इस पर सवाल उठाये हैं.
यह तो है कि उनके द्वारा की गयी आलोचनाएं सही थीं और यदि उनके इन वक्तव्यों के द्वारा देश की छवि धूमिल होने पर विपक्ष को इतना ही एतराज था, तो क्या वह भी ऐसे ही मौकों पर उनके विरुद्ध अपने विषैले प्रहार स्थगित रखने को तैयार है?
पिछले दिनों जब मोदी लंदन में थे, तो वहां उनके विरुद्ध कुछ प्रदर्शन हुए. जब एक राष्ट्राध्यक्ष अथवा राज्याध्यक्ष विदेश यात्रा पर जाते हैं, तो वहां रहनेवाले प्रवासियों के किसी वर्ग द्वारा उनके विरुद्ध शांतिपूर्ण प्रदर्शन कोई असामान्य बात नहीं है. पर लंदन में कुछ लोगों ने राष्ट्रकुल शिखर सम्मेलन के लिए स्थापित एक आधिकारिक ध्वजस्तंभ से लगे भारतीय तिरंगे को फाड़ डाला. निश्चित रूप से किसी के भी द्वारा यह तथ्य बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार, लंदन के पार्लियामेंट चौक पर एक भारतीय पत्रकार पर हमला भी किया गया.
हमारे उच्चायुक्त ने ऐसे व्यवहारों के प्रति कड़ा विरोध व्यक्त किया और यह बिल्कुल उचित भी था. भारत के विदेश मंत्रालय ने एक वक्तव्य में कहा कि ‘उच्चतम स्तर सहित यूनाइटेड किंगडम (यूके) के पक्ष ने इस घटना पर खेद प्रकट किया है. झंडे को तत्काल ही बदल दिया गया. हम इस घटना में संलिप्त लोगों तथा उन्हें भड़कानेवालों के विरुद्ध कानूनी समेत अन्य कार्रवाइयों की अपेक्षा करते हैं.’
ब्रिटिश विदेश विभाग के एक प्रवक्ता ने कहा, ‘हालांकि लोगों को शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों का अधिकार है, पर हम कुछ लोगों द्वारा पार्लियामेंट चौक पर किये गये इस कृत्य से निराश हैं.’
इस प्रवक्ता द्वारा आगे कही गयी बात इससे भी अहम थी कि ‘प्रधानमंत्री द्वारा यूके की यात्रा ने भारत के साथ हमारे संबंध और भी मजबूत किये हैं और हमें आशा है कि आगे हम कई अहम क्षेत्रों में अधिक घनिष्ठतापूर्वक मिलकर कार्य कर सकेंगे.’ मैं इसी बिंदु को सामने रखना चाहता हूं. जब हमारे प्रधानमंत्री विदेश जाते हैं, तो वे वहां विशिष्ट द्विपक्षीय मुद्दों के अलावा आर्थिक अंतर्क्रिया, निवेश, सुरक्षा, रक्षा सहयोग, प्रौद्योगिकी, बहुपक्षीय सहयोग तथा आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष जैसे राष्ट्रहित के लिए अहम बिंदुओं के संबंध में उच्चतम स्तर पर विमर्श करते हैं.
ऐसे में उनका तथा देश में उनके सियासी विरोधियों का उद्देश्य यह होना ही चाहिए कि इन बिंदुओं पर ठोस फायदे सुनिश्चित किये जाएं, न कि देश में एक दूजे के विरुद्ध चल रही कटु आलोचनाएं जारी रखी जाएं.
परिपक्व लोकतंत्र कानून के शब्दों से चलने के साथ ही राष्ट्रहित की आत्मा से भी संचालित हुआ करते हैं. जब शब्द तथा आत्मा का प्रबुद्ध संयोग होता है, तो आचार एवं रीतियों, व्यवहार और संयम की परंपराएं पैदा होती हैं. यह वक्त है कि जब विदेशों में भारत के हित साधे जा रहे हों, तो सभी सियासी पार्टियां ऐसी ही परंपराएं विकसित करने की सोचें.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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