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चौंकानेवाला नहीं है परिणाम

अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार awadheshkum@gmail.com दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम ने शायद ही किसी को चौंकाया होगा. आरंभ से ही पूरा चुनाव एकपक्षीय लग रहा था. कुछ विश्लेषकों ने तो यहां तक टिप्पणी कर दी थी कि आप 2015 के अपने पुराने अंकगणित के आसपास पहुंच सकती है. भाजपा को भी इसका अहसास निश्चित ही […]

अवधेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
awadheshkum@gmail.com
दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम ने शायद ही किसी को चौंकाया होगा. आरंभ से ही पूरा चुनाव एकपक्षीय लग रहा था. कुछ विश्लेषकों ने तो यहां तक टिप्पणी कर दी थी कि आप 2015 के अपने पुराने अंकगणित के आसपास पहुंच सकती है. भाजपा को भी इसका अहसास निश्चित ही होगा. लेकिन भाजपा नेतृत्व केजरीवाल के पक्ष में सहानुभूति और समर्थन की लहर की काट करने में सफल नहीं हो पा रहा था.
अमित शाह को स्वयं कूदना पड़ा. उनके आक्रामक अभियान तथा चुनाव प्रबंधन की कुशलता ने असर डालना आरंभ किया तथा पार्टी के निरुत्साहित कार्यकर्ता सक्रिय हुए. इसका असर उसके मतों में करीब नौ प्रतिशत की वृद्धि के रूप में दिख रहा है. पर, कुल मिलाकर यह कहने में हर्ज नहीं है कि वह केजरीवाल की काट तलाश नहीं कर पायी.
इस परिणाम को किसी तरह नागरिकता संशोधन कानून, अनुच्छेद-370 हटाने और शाहीन बाग धरने के आक्रामक विरोध से जोड़कर देखना गलत विश्लेषण होगा. सारे सर्वेक्षणों का निष्कर्ष यही था कि इन मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को भारी समर्थन प्राप्त है.
जनता कह रही थी कि हम दिल्ली में वोट केजरीवाल को देंगे, लेकिन अनुच्छेद-370 हटाने और नागरिकता कानून पर केंद्र का समर्थन करते हैं. केजरीवाल पिछले एक वर्ष से चुनाव के मोड में थे. आप उनके वक्तव्यों तथा कार्यप्रणाली में आये परिवर्तनों को साफ देख सकते थे. महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा, चुनाव के पूर्व महीने में बिजली बिल तथा पानी के बिल में माफी ने इस चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. यह ऐसा लोकप्रियतावादी कदम था, जिसकी काट किसी पार्टी के पास नहीं थी.
भारत का आम मानस ऐसे कदमों की ओर तात्कालिक रुप से आकर्षित होता है. हालांकि भाजपा ने भी अपने संकल्प पत्र में स्पष्ट किया था कि वह सत्ता में आयी, तो बिजली व पानी के दर में कटौती जारी रहेगी. उसने भी केजरीवाल की तरह कुछ लोकप्रियतावादी घोषणाएं की, मसलन- दो रुपये किलो आटा और छात्रों को साइकिल एवं इलेक्ट्रिक स्कूटर आदि. इसका कुछ असर भी हुआ, पर असर इतना नहीं था कि भाजपा बहुमत हासिल कर सके.
भाजपा का प्रदेश नेतृत्व मुगालते में था कि केजरीवाल ने अपने वादों को पूरा नहीं किया है तथा अब उनकी छवि पुराने आंदोलनकारी की भी नहीं है, इसलिए उनको हराना कठिन नहीं होगा. वे भूल गये कि केजरीवाल परंपरागत राजनेता नहीं हैं.
वैसे भी केजरीवाल की रणनीति है कि दिल्ली में जो अच्छा हुआ, उसका श्रेय लो तथा जो नहीं हुआ, उसके लिए केंद्र, उपराज्यपाल या फिर भाजपा के बहुमतवाले नगर निगमों को दोष दे दो. प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी को काफी लंबा समय मिला, लेकिन वे केजरीवाल के समानांतर न अपना कद बना सके और न ही विपक्ष के नाते उनको कभी दबाव में लाने में कामयाब हो सके. वे परिश्रम तो करते रहे, पर उनमें सुनियोजित रणनीति का अभाव हमेशा रहा. केजरीवाल ऐसे नेता हैं, जिन्हें केंद्र के कामों का भी श्रेय लेने में तनिक भी हिचक नहीं.
कायदे से सबसे बड़ा मुद्दा एक आंदोलनकारी और नायक के रूप में उभरे केजरीवाल का वैचारिक एवं व्यवहारिक बदलाव या पतन होना चाहिए. साल 2011 से 2013 तक के केजरीवाल की अब झलक तक नहीं मिलती. अपने अधिनायकवादी चरित्र के कारण उन्होंने उन सारे साथियों को अलग होने के लिए विवश कर दिया, जो अन्ना अभियान से लेकर पार्टी के निर्माण एवं 2015 की जीत तक उनके साथ थे.
भाजपा इसे मुद्दा बनाने में सफल नहीं रही. कहते हैं कि आक्रमण सबसे बड़ा बचाव है. भाजपा इस रणनीति में माहिर मानी जाती है, पर वह ऐसी स्थिति कायम नहीं कर सकी कि केजरीवाल एवं उनके साथियों को बचाव के लिए विवश होना पड़ता. एक समय नरेंद्र मोदी के लिए निंदात्मक शब्दों का प्रयोग करनेवाले तथा उनको निशाना बनानेवाले केजरीवाल ने अचानक ऐसा करना बंद कर दिया.
पिछले लोकसभा चुनाव में हार का एक विश्लेषण यह था कि मोदी पर ज्यादा हमला जनता ने पसंद नहीं किया. दूसरे, हिंदुत्व, सांप्रदायिकता एवं सेक्युलरवाद पर भी उन्होंने कुछ बोलने से परहेज किया. जब प्रधानमंत्री ने अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट की घोषणा की, तो सारी पार्टियों ने उसके समय पर सवाल उठाया, लेकिन केजरीवाल ने समर्थन कर दिया. इस तरह भाजपा को कोई अवसर उन्होंने नहीं दिया.
उल्टे एक चैनल पर उन्होंने हनुमान चालीसा गाया और हनुमान मंदिर जाकर ट्वीट किया, तो प्रदेश भाजपाध्यक्ष ने उनकी आलोचना कर दी. इस पर केजरीवाल ने अपनी शैली में पलटवार किया कि भाजपा कह रही है कि मुझे भगवान की पूजा-पाठ का अधिकार नहीं है. इसका जवाब भाजपा के पास हो ही नहीं सकता था.
केजरीवाल को आभास था कि मुस्लिम वोट एकमुश्त उन्हें मिलेगा क्योंकि कांग्रेस लड़ाई में है नहीं. इस भरोसे उन्होंने शाहीनबाग पर स्वयं चुप्पी धारण कर ली. मनीष सिसोदिया ने एक बार अवश्य कह दिया कि हम शाहीनबाग के साथ हैं, लेकिन बाद में वे भी शांत हो गये. भाजपा ने भी उन्हें कोई बयान देने पर मजबूर नहीं किया. चुनाव में यह मुद्दा था. जिन लोगों को धरने के कारण आने-जाने में परेशानी हो रही थी, वे सब उसके खिलाफ थे. स्वयं प्रधानमंत्री ने इसे संयोग नहीं प्रयोग तथा एक डिजाइन बताकर अपने मूल समर्थकों को सीधा संदेश दिया था.
इन सबका असर हुआ, लेकिन भाजपा इसे बड़ा मामला नहीं बना सकी. एक महत्वपूर्ण भूमिका कांग्रेस के प्रदर्शन ने निभायी. साल 2015 में कांग्रेस के मतों में 15 प्रतिशत की गिरावट आयी थी एवं वे सारे मत आप के खाते में चले गये थे. इस कारण भाजपा 32 प्रतिशत मत पाकर भी तीन सीटों तक सिमट गयी थी. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 22 प्रतिशत से ज्यादा मत काट लिया, तो आप तीसरे स्थान पर सिमट गयी. लोकसभा चुनाव में लड़ाई में आने का संकेत दे चुकी कांग्रेस शीला दीक्षित के देहांत के बाद फिर हाशिये पर चली गयी.
नतीजतन, 70 में 65 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गयी. वैसे कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की रणनीति भी थी कि किसी तरह दिल्ली में भाजपा को रोकना है, इस कारण उसने बहुत परिश्रम ही नहीं किया. अगर कांग्रेस पर्याप्त मात्रा में वोट काट लेती और संघर्ष त्रिकोणीय होता, तो भाजपा को लाभ मिल जाता.
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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