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संकट में घिरे हैं क्षेत्रीय क्षत्रप

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की प्रचंड विजय ने न केवल मुख्य विरोधी दल कांग्रेस को हतप्रभ किया है, बल्कि भाजपा-विरोध का झंडा उठाये ताकतवर क्षेत्रीय क्षत्रपों के पैरों तले की जमीन भी खिसका दी है. ये दल पराजय से उबरने और नये सिरे से उठ खड़े होने की […]

नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की प्रचंड विजय ने न केवल मुख्य विरोधी दल कांग्रेस को हतप्रभ किया है, बल्कि भाजपा-विरोध का झंडा उठाये ताकतवर क्षेत्रीय क्षत्रपों के पैरों तले की जमीन भी खिसका दी है.
ये दल पराजय से उबरने और नये सिरे से उठ खड़े होने की बजाय और भी बिखर रहे हैं. उनके खेमे में हताशा ही नहीं, भगदड़ भी मची है. आनेवाले चुनावी अखाड़ों में उनके सामने जहां भाजपा का तगड़ा पहलवान होगा, वहीं उनका अपना पहलवान बाहरी-भीतरी दांवों से अभी से चित दिख रहा है.
दूसरी तरफ वे प्रभावशाली क्षेत्रीय नेता, जिन्होंने मोदी-विरोध का परचम नहीं उठा रखा था या जो भाजपा की तरफ झुके हुए थे, उनके खेमे सकुशल और आनंद में हैं. न उनके सेनानी पाला छोड़कर भाग रहे हैं, न ही बाहरी ताकतें वहां सेंध लगा रही हैं.
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन, बंगाल में ममता बनर्जी और आंध्र प्रदेश में चंद्र बाबू नायडू मोदी को दोबारा सत्ता में न आने देने के लिए सबसे ज्यादा कमर कसे हुए और मुखर थे. लोकसभा चुनाव में इन सबने मुंह की खायी. ममता ठीक-ठाक सीटें जीतने में कामयाब रहीं, लेकिन भाजपा ने उनके किले में भारी सेंध लगा दी है. सपा-बसपा गठबंधन पूरी तरह विफल रहने के बाद टूट चुका है और मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चा बनाने में सक्रिय रहे चंद्रबाबू नायडू के पैर अपनी जमीन से उखड़ गये हैं.
चुनाव संपन्न होने के बावजूद इन क्षत्रपों की विपदाओं का अंत नहीं हुआ, बल्कि बढ़ गया है. मोदी के खिलाफ दहाड़नेवाली ‘बंगाल की शेरनी’ सबसे ज्यादा संकट में हैं. उनके छह विधायक, नगरपालिकाओं के दर्जनों सदस्य और बड़ी संख्या में कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं. यह सिलसिला जारी है. बिना चुनाव लड़े भाजपा बंगाल में पहली बार एक जिला पंचायत में बहुमत हासिल कर चुकी है. यह संकेत है कि तृणमूल कांग्रेस में भारी हाला-डोला मचा है.
बंगाल में दो साल बाद विधानसभा चुनाव होने हैं. ममता परेशान हैं कि भाजपा से अपना साम्राज्य बचाने के लिए वे क्या करें. यह विडंबना ही है कि जिन हथकंडों से उन्होंने बंगाल में कांग्रेस और वाम दलों का सफाया किया, वैसे ही हथकंडे भाजपा उनके साथ आजमा रही है. उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा.
कभी वे आरएसएस के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को बंगाली अस्मिता से जोड़ने का दांव खेलने की कोशिश कर रही हैं और कभी ‘जय श्रीराम’ के जवाब में ‘जय मां काली’ का नारा देने का बचकाना प्रयास कर रही हैं.ममता की तरह ही राजनीतिक चक्रव्यूह में फंसे हुए अखिलेश यादव और मायावती भी हैं.
उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराने के लिए उन्होंने जो गठबंधन किया, वह विफल रहा. इस तथ्य के बावजूद कि देश के सबसे बड़े राज्य में भाजपा को चुनौती दे सकनेवाली आज भी यही दो पार्टियां हैं, मायावती ने हार की जिम्मेदारी सपा पर डालते हुए गठबंधन तोड़ दिया है. पहले तय था कि आगामी विधानसभा चुनाव तक गठबंधन रहेगा. अब दोनों आनेवाले चुनावों में एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोकेंगे. यह स्थिति भाजपा के लिए परम सुखदायी है.
मायावती अपने भाई-भतीजे को पार्टी की जिम्मेदारियां देकर दलितों में अपनी पकड़ फिर से मजबूत बनाना चाहती हैं, लेकिन बदली परिस्थितियों और मतदाताओं के नये वर्ग की अपेक्षाओं के अनुरूप राह चुनने की शायद नहीं सोच रहीं.अखिलेश यादव से ज्यादा ठगा हुआ और कोई नेता आज अनुभव नहीं कर रहा होगा.
उन्होंने मायावती का जूनियर पार्टनर बनना स्वीकार ही इसलिए किया था कि भाजपा को हराने के लिए जिन दलित वोटों का सहारा मिलेगा, वे आगे उनकी राजनीति के सारथी बनेंगे. उनके लिए तो ‘माया मिली न राम’ वाली स्थिति है. परिवार और चाचा से अखिलेश ने बैर लिया, पिता को किनारे किया, विपरीत सलाह के बावजूद बसपा से तालमेल किया और हाथ कुछ आया नहीं. अब उनके लिए आगे की राह कठिन और अनिश्चित है, यद्यपि उनके पास लंबी पारी है.
और, चंद्रबाबू नायडू? पिछले साल तक एनडीए में मोदी के साथ रहे नायडू ने आंध्र की राजनीति का गणित लगाकर न केवल मोदी का साथ छोड़ा, बल्कि उनके खिलाफ आक्रामक रुख अपनाते हुए एक राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा बनाया.
आज वे अपने राज्य में लगभग पैदल हैं. तेलुगु देशम के छह में से चार राज्यसभा सदस्य भी उनका साथ छोड़कर भाजपा में चले गये और नये मुख्यमंत्री जगन रेड्डी उनकी बनायी इमारत तक तोड़ने में लगे हैं. जगन ने जैसा समर्थन पाया है, उसे देखते हुए नायडू को राज्य में अपना आधार बचाने के लिए बहुत पापड़ बेलने होंगे.
तीन प्रभावशाली क्षेत्रीय नेता ऐसे हैं, जिन्होंने चुनावों में मोदी विरोध को अपनी राजनीति का केंद्र नहीं बनाया था. उड़ीसा में नवीन पटनायक, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी ने या तो भाजपा के प्रति नरम रुख रखा या कांग्रेस एवं भाजपा से बराबर दूरी बनाये रखी.
इन्होंने नयी स्थितियों में मतदाता को समझा. ये तीनों ही अपने-अपने राज्यों में निश्चिंत होकर शासन चला रहे हैं. उनकी पार्टियों में कोई भीतरघात नहीं है, कोई पार्टी छोड़कर नहीं जा रहा, किसी तरह की ‘खरीद-फरोख्त’ की शिकायत भी उनकी तरफ से नहीं आ रही.
तो क्या यह निष्कर्ष निकाला जाये कि मोदी-विरोधी क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपनी राजनीति की कीमत चुकानी पड़ रही है और भाजपा से बैर नहीं पालनेवाले नेता इसी कारण अपने राज्यों में निश्चिंत हैं? यह तो साफ है कि जो क्षेत्रीय क्षत्रप धारा के विरुद्ध तैरे या जो जनता का मन समझ नहीं पाये या जो अपनी राजनीति के कैदी रहे, उन्हें मुंह की खानी पड़ी.
ममता, मायावती, अखिलेश और नायडू को अपने-अपने राज्यों में प्रासंगिक और प्रभावशाली बने रहने के लिए अपनी राजनीति बदलनी होगी, क्योंकि मतदाता बदल रहा है.
कभी हैदराबाद को आइटी सिटी बनाने के लिए ख्यात नायडू को सोचना होगा कि मतदाता ने उन्हें हाशिये पर क्यों धकेला. बेवजह गरजने की बजाय ममता को इस पर मंथन करना चाहिए कि 2011 में वाम गढ़ ध्वस्त कर तृणमूल कांग्रेस को सत्ता सौंपनेवाला बंगाल अब उनसे क्यों रूठ रहा है. मायावती और अखिलेश की निगाह अपने जातीय वोट बैंक के भीतर उभरते महत्वाकांक्षी युवा वर्ग की अपेक्षाओं पर होनी चाहिए.
पारंपरिक वोट बैंक के सहारे आगे की नैया आसानी से पार नहीं होगी. अगले विधानसभा चुनावों तक उनके पास पर्याप्त समय है.

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