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Thursday, March 28, 2024

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केंद्रीय बजट में क्या न करें

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आगामी पांच जुलाई को केंद्र का अपना पहला बजट संसद में पेश करनेवाली हैं. सीतारमण ने, नागरिकों को यह आश्वासन देते हुए कि उनके प्रत्येक सुझाव पर गौर किया जायेगा, बजट के लिए अपने सुझाव देने का आह्वान भी किया है. यह प्रक्रिया निश्चित […]

अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आगामी पांच जुलाई को केंद्र का अपना पहला बजट संसद में पेश करनेवाली हैं. सीतारमण ने, नागरिकों को यह आश्वासन देते हुए कि उनके प्रत्येक सुझाव पर गौर किया जायेगा, बजट के लिए अपने सुझाव देने का आह्वान भी किया है.
यह प्रक्रिया निश्चित रूप से अधिक समावेशी है, जो सामूहिक बुद्धिमत्ता पर भरोसा करती है. मगर, इसमें एक विडंबना भी संभावित है कि ज्यादातर सुझाव ‘क्या नहीं किया जाना चाहिए’ की बजाय ‘क्या किया जाना है’ पर केंद्रित रहेंगे.
इसलिए, पहले बिंदु पर आगे बढ़ने के पहले कुछ अवलोकनों पर गौर कर लेना प्रासंगिक होगा. प्रथमतः, यह बजट पूरे वर्ष का बजट नहीं होगा, क्योंकि उसे तो आगामी फरवरी में ही पेश किया जायेगा. दूसरे, चूंकि यह इस नवनिर्वाचित सरकार का पहला वर्ष है, इसलिए वित्तमंत्री तथा सरकार दोनों के लिए ही यह एक अवसर है कि वे अपने एजेंडे के फलसफे का खाका सामने रखें.
प्रधानमंत्री को हासिल विशाल बहुमत उन्हें वह प्रभूत सियासी पूंजी प्रदान करता है, जिसके बल पर वे अल्पावधि में आर्थिक पीड़ा देने वाले, पर दीर्घावधि में लाभदायक फैसले ले सकते हैं. तीसरा बिंदु यह है कि यह बजट परवान चढ़ते व्यापार युद्ध, कठिन सुखाड़-सी स्थिति, जीडीपी वृद्धि में तीन वर्षों से जारी मंदी, राजकोष एवं चालू खाते के घाटे की बिगड़ती स्थिति के साथ ही रोजगार विहीन विकास के संकेतों की पीठिका में लाया जा रहा है.
ये सभी कठिन चुनौतियां हैं और यह सही है कि कोई एक बजट इन सभी के लिए जादू की छड़ी नहीं बन सकता. पर वह आर्थिक वृद्धि की दिशा में आगे की राह का जमीनी आकलन कर राजस्व तथा व्यय की तदनुरूप दिशा अवश्य निर्धारित कर सकता है. उसे उपभोग में वृद्धि, निजी निवेश के पुनर्जीवन, उद्यमी गतिविधियों में तेजी तथा खाते के संतुलन के संकेत तो देने ही चाहिए.
क्या नहीं किया जाना चाहिए, इस दिशा में कुछ सुझाव इस प्रकार हैं: पहला, कर जाल को व्यापक करने की दिशा से पीछे जाने की प्रवृत्ति छोड़ी जानी चाहिए.
प्रधानमंत्री स्वयं यह सार्वजनिक घोषणा कर चुके हैं कि वे 10 करोड़ लोगों को कर दायरे में लाना चाहेंगे. जीडीपी की तुलना में कर, खासकर प्रत्यक्ष कर का भारतीय अनुपात विश्व में सर्वाधिक निम्न है. कुछ ही वर्षों पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण ने यह खुलासा किया कि मतदाताओं की तुलना में करदाताओं का अनुपात देखने पर भारत विश्व में निम्नतम पायदान पर है, क्योंकि यहां प्रत्येक सौ मतदाताओं पर सिर्फ सात करदाता हैं. बहुत से उत्तर यूरोपीय देशों में शत प्रतिशत मतदाता करदाता भी हैं. हमें इस असंतुलन में कमी लानी ही चाहिए.
इस वर्ष फरवरी में पेश अंतरिम बजट ने कर सीमा इतनी बढ़ा डाली कि तकरीबन तीन करोड़ करदाता उससे बाहर हो गये. संभव है, ऐसा चुनावी नजरिये अथवा उपभोग बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया हो, पर यह एक गलत संकेत देता है. यह सही है कि निम्न आय वर्गों के लिए प्रत्यक्ष कर का बोझ हल्का रखा जाये, पर इस जाल से बाहर वालों की तादाद कम होनी ही चाहिए. भारत को प्रत्यक्ष करों में वृद्धि तथा उसकी तुलना में ऊंचे अप्रत्यक्ष करों में कमी लाने की ओर भी प्रगति करनी चाहिए.
दूसरा, कृपया कोई और उपकर (सेस) न लगायें. उपकर केंद्र सरकार के विशेषाधिकार हैं, जिन्हें सभी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों यानी जीएसटी के ऊपर थोप सकती है.
इन्हें राज्य सरकारों के साथ साझा नहीं किया जाता और ये वित्त आयोग द्वारा केंद्र-राज्य के बीच कर राजस्व के बंटवारे की सीमा से बाहर होते हैं. दरअसल, उपकर केवल असामान्य स्थिति में ही लगाये जाने चाहिए, पर अभी तो ये केंद्र सरकार द्वारा संगृहीत प्रत्यक्ष करों के 10 प्रतिशत के लगभग तक हैं. अच्छा तो यह होगा कि इन्हें लगाया ही नहीं जाये, पर कम से कम उनमें कोई वृद्धि तो नहीं ही की जानी चाहिए.
तीसरा, बहुत सारे परस्पर विरोधी संकेत देने से बचा जाना चाहिए. जैसा ऊपर कहा जा चुका है, उनमें एक तो कर जाल व्यापक करने के इरादे के साथ ही कर सीमा में छूट देना है.
इसका दूसरा उदाहरण खाद्य मुद्रास्फीति को निम्न एवं स्थिर रखने हेतु प्रतिबद्ध होते हुए भी न्यूनतम समर्थन मूल्यों (एमएसपी) को लागत के 150 प्रतिशत पर निर्धारित करने की मंशा है, जो खाद्य मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी ही लायेगी. ये परस्पर विरोधी इरादे लागतें कम करने अथवा जलवायु एवं जलविज्ञान अनुकूल उपजों को बढ़ावा देने के संकेत तो नहीं ही देते हैं. क्या यह उचित है कि एक ऐसे क्षेत्र में ईंख उपजायी जाये, जो जल संकटग्रस्त है और उस पर भी उसके एमएसपी को ऊंचा रखा जाये? यह एक और बात है कि एमएसपी की यह नीति इसलिए भी असफल है कि उसके अंतर्गत मूल्य का आश्वासन तो दे दिया गया, पर खरीदी जाने वाली मात्रा का नहीं.
इस वजह से किसानों की आय अनुमान के अनुसार नहीं बढ़ सकी. यदि किसानों की आय में वृद्धि लानी है, तो इसे एमएसपी बढ़ाने की बजाय पीएम किसान सम्मान निधि योजना की तरह प्रत्यक्ष नकद अंतरण द्वारा ही किया जाना चाहिए. एक तरफ तो सरकार ब्याज दरों में कमी लाना चाहती है, ताकि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाया जा सके और दूसरी ओर कर्मचारी भविष्य निधि से ऋण की ब्याज दर बढ़ा दी जाती है. इनसे परस्पर विरोधी संकेत जाते हैं.
चौथा सुझाव यह है कि विशिष्ट छूटों और प्रोत्साहनों की बहुतायत से बचा जाना चाहिए. बजट भाषण ऐसा न हो कि उसमें कई गतिविधियों पर सौ करोड़ रुपये तक के आवंटनों की भी चर्चा समाहित हो. यह सूक्ष्म संकेतों की इंतहा है, जिन्हें मंत्रियों के व्यक्तिगत विवेक अथवा राज्य एवं स्थानीय सरकारों पर छोड़ दिया जाना चाहिए. बेहतर हो कि वित्तमंत्री खुद को नीति एवं सिद्धांतों की व्यापक दिशा तक ही सीमित रख बाकी बारीकियां विभिन्न मंत्रालयों पर छोड़ दें.
और अंत में, कृपया अप्रत्यक्ष करों से प्रत्यक्ष करों के अनुपात असंतुलन को बदतर करने से बचें. अप्रत्यक्ष कर प्रतिगामी होते हैं और अमीरों से अधिक गरीबों पर चोट करते हैं.
भारत में आय तथा संपदा संबंधी असंतुलन पहले से ही गंभीर चिंता की वजह रही है. अब हमें प्रत्यक्ष करों की अधिक हिस्सेदारी की ओर बढ़ना है. अतः जीएसटी दरों को और तार्किक तथा निम्नतर किया जाना चाहिए. आशा करें कि पांच जुलाई को हम उपर्युक्त अवयवों के साथ सकारात्मक दिशा में ही बढ़ेंगे.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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