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तो दिलचस्प होगा 2019 का चुनाव

II आकार पटेल II कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया aakar.patel@gmail.com जनता दल (एस) और कांग्रेस के बीच हुए गठबंधन का जश्न मनाने के लिए विपक्षी दलों का बेंगलुरु में एकत्र होना क्या दर्शाता है? इस एकजुटता के क्या कारण हैं और क्या यह साल भर बाद भी बनी रहेगी, जब देश में आम चुनाव होंगे? […]

II आकार पटेल II

कार्यकारी निदेशक,
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@gmail.com
जनता दल (एस) और कांग्रेस के बीच हुए गठबंधन का जश्न मनाने के लिए विपक्षी दलों का बेंगलुरु में एकत्र होना क्या दर्शाता है? इस एकजुटता के क्या कारण हैं और क्या यह साल भर बाद भी बनी रहेगी, जब देश में आम चुनाव होंगे?
आइए, इसकी पड़ताल करते हैं और पहले उन नेताओं पर निगाह डालते हैं, जो इस जश्न में शामिल नहीं हुए. नवीन पटनायक के पास ओड़िशा में उनका अपना जनता दल है. वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने 43 प्रतिशत मत प्राप्त किया था.
भाजपा ने 18 और कांग्रेस ने 25 प्रतिशत मत प्राप्त किया था. ये आंकड़े बताते हैं कि क्यों पटनायक इस जश्न में शामिल नहीं हुए. उनके लिए कांग्रेस बड़ा खतरा है या वे उसे भाजपा के बराबर ही खतरा मानते हैं. भविष्य में यह समीकरण बदल भी सकता है और ऐसा होना इसलिए आसान है, क्योंकि अगले साल भाजपा पटनायक के करीब होगी.
लेकिन तब तक अपने विकल्पों को खत्म करने की कोई जरूरत नहीं है और इस मामले में पटनायक इंतजार करने जैसी समझदारी दिखा रहे हैं. वे पहले भाजपा के साथ गठबंधन में रह चुके हैं. इसलिए 2019 का मुद्दा तय होने से पहले राहुल गांधी के साथ गठबंधन करने का काई अर्थ नहीं है.
तेलंगाना में कांग्रेस का ही विपक्षी नेता है. आम चुनाव में भी ऐसी ही स्थिति बने रहने की संभावना है. इस राज्य मे कांग्रेस की तरह भाजपा दमदार नहीं है और कुछ हद तक ऐसा ही आगे भी जारी रह सकता है. यही कारण है कि यहां के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव, गौड़ा से मिलने बेंगलुरु तो आये, लेकिन एकता रैली में शामिल नहीं हुए. आइए, अब उन लोगों पर नजर डालते हैं, जो इस समारोह में शामिल हुए.
बिहार के मतदाता काफी बंटे हुए हैं. साल 2015 में भाजपा की हार हुई थी और लालू यादव, नीतीश कुमार और कांग्रेस के महागठबंधन ने 40 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त किया था. इस गठबंधन के दो प्रमुख दल, दो जनता दलों ने समान मत प्राप्त किया था. नीतीश कुमार का जनता दल (यू) बाद में भाजपा के साथ चला गया और लालू का जनता दल कांग्रेस के साथ गठबंधन में बना रहा.
कोई भी पार्टी अपने दम पर बिहार में प्रभावी नहीं हो सकती है और इसलिए यहां दोनों जनता दल के लिए गठबंधन के साथ बने रहना जरूरी है. कागज पर नीतीश-भाजपा गठबंधन मजबूत है और यही कारण है कि लालू परिवार के पास मदद के लिए कहीं और देखने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. भाजपा के खिलाफ राष्ट्रव्यापी एकता को लेकर दिख रहा उत्साह यही बताता है.
पिछले विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में इस प्रकार मताें का विभाजन हुआ था- भाजपा 41 प्रतिशत, सपा 28 प्रतिशत, बसपा 22 प्रतिशत. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने 2012 में 29 प्रतिशत मतों के साथ बहुमत हासिल किया था और इस प्रकार उनका अपना मत प्रतिशत बरकरार रहा था. नरेंद्र मोदी के केंद्र में आते ही यहां भाजपा बहुत बड़ी पार्टी हो गयी है.
मायावती और मुलायम मुख्य रूप से सत्ता के लिए राज्य में प्रतिस्पर्धा करते हैं. इस अर्थ में वे भाग्यशाली हैं कि 2019 में कोई विधानसभा चुनाव नहीं होना है. यही वजह है कि भाजपा के खिलाफ एकजुटता बनाये रखने की कोशिश उनके लिए आसान होगी. लेकिन जब राज्य में सत्ता साझा करने की बात आयेगी, तो यह एकता संभवत: बिखर जायेगी. अभी के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी)+मुसलमान+दलित गठबंधन दमदार दिख रहा है.
मत हस्तांतरण बेशक ऐसे साधारण तरीकों से काम नहीं करते हैं. चुनाव विश्लेषक दोराब सोपारीवाला ने कहा था कि भारत में गठबंधन इसलिए काम करता है, क्योंकि यहां जातियों का गठबंधन होता है. पर इनमें से कई दल अधीर हो चले हैं और वे दशकों तक विपक्ष में नहीं रहना चाहते हैं.
बंगाल में, जहां लोकसभा की 42 सीटें हैं, वाम गढ़ ढह चुका है और कांग्रेस अप्रासंगिक हो गयी है. वहां भाजपा विपक्षी बन चुकी है और यही वजह है कि ममता को मोदी-विरोधी गठबंधन में शामिल होने से कोई परहेज नहीं है. बंगाल की तरह महाराष्ट्र में भी कांग्रेस टूट गयी, लेकिन वहां पवार में ममता की तरह पूरी पार्टी पर हावी होने की काबिलियत नहीं थी. यहां राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और कांग्रेस का एक साथ आना भाजपा के लिए परेशानी उत्पन्न कर सकता है.
उत्तर भारत की तरह महाराष्ट्र में भाजपा का ठोस वोट बैंक नहीं है. पिछले विधानसभा चुनाव में इसे कुल मत का केवल 27 प्रतिशत ही प्राप्त हुआ था, लेकिन यह बहुमत के करीब आ गयी थी. शिव सेना समेत अन्य तीन दलों में प्रत्येक को करीब 18-18 प्रतिशत मत मिले थे. संभव है कि दो दशकों के असहज साझेदारी के बाद एनसीपी और कांग्रेस 2019 का चुनाव बिना किसी परेशानी के साथ लड़ें, क्योंकि दोनों की विचारधारा लगभग समान ही है.
आंध्र प्रदेश में वाइएस जगनमोहन रेड्डी मुख्य विपक्षी हैं. बंगाल की तरह यहां भी एक स्थानीय करिश्माई नेता ने कांग्रेस की जगह ले ली है और इसके बुनियादी ढांचे और नेतृत्व पर कब्जा कर लिया है. चंद्रबाबू नायडू के लिए अपने विकल्पों को खुले रखना जरूरी है, क्योंकि स्थानीय स्तर पर उन्हें केवल भाजपा से खतरा नहीं है.
चुनाव में भाजपा की रणनीति इस बात को सुनिश्चित करना होगा कि जो दल इस गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं, जैसे तमिल पार्टियां, विशेष तौर से वे जिनके साथ चुनाव बाद गठबंधन किया जा सकता है, उन्हें नाराज नहीं किया जाये.
वहीं कांग्रेेस के लिए गठबंधन तैयार करना बहुत जरूरी है, लेकिन स्थानीय स्तर पर ऐसा करना अासान नहीं है. हाल में हुए एक सर्वेक्षण ने दिखा दिया है कि राजस्थान और आश्चर्यजनक रूप से मध्य प्रदेश, जहां पिछले 15 वर्षों से भाजपा सत्ता में है, में कांग्रेस भाजपा से आगे है.
वर्ष 2013 में मध्य प्रदेश में बसपा ने केवल चार सीटें (तीन सीटें कम हुई थीं) जीती थीं, लेकिन इसे छह प्रतिशत से अधिक मत हासिल हुआ था. ऐसे दल के साथ गठबंधन को आगे बढ़ाना कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि ऐसे समय में जब उन्हें अपनी जीत दिखायी दे रही हो, राज्य के नेता गठबंधन में रहने को बहुत ज्यादा इच्छुक नहीं होंगे.
लेकिन मध्य प्रदेश में बसपा के साथ गठबंधन भाजपा को लगातार दो दशक तक सत्ता में बने रहने से रोक सकती है. इस तरह का गठबंधन तैयार करने के लिए गांधी परिवार को बहुत ज्यादा परिपक्वता दिखाने की जरूरत होगी. लेकिन अगर वे ऐसा करने में सफल हो जाते हैं, तो हम सबके लिए 2019 का चुनाव बेहद दिलचस्प हो जायेगा.

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